'सलाम बॉम्बे' से लेकर 'अंग्रेजी मीडियम' तक, इरफान खान ने कुछ इस तरह हासिल की थी लोकप्रियता

इरफान खान कमर्शियल हिंदी सिनेमा में किसी अजूबे की तरह थे। बॉलीवुड की दुनिया में वो 'मिसफिट' थे। एक शानदार मिसफिट। वो इसलिए क्योंकि इरफान में किसी और बॉक्स नहीं, सिर्फ प्रतिभा के बॉक्स में टिक मार्क की तरह थे। प्रतिभा के अलावा इरफान खान के पास जो कुछ भी था, वो बॉलीवुड में उनके खिलाफ ही काम करता था। फिर चाहे वो उनका चेहरा-मोहरा हो, उनकी भाव-भंगिमा या फिर किसी आम इंसान जैसा तौर-तरीका। उनमें किसी भी तरह का कोई भड़काऊपन नहीं था और यही उन्हें सबसे अलग करता था। सच कहें तो इरफान खान जैसे अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के लिए ही बने थे और ऐसा हुआ भी। अपने करियर के आखिर में उनकीफिल्मों को दुनिया भर में शोहरत मिली। उनकी फिल्में ऑस्कर तक गईं। वहां तक गईं जिन पर हॉलीवुड के एंगली, वेस एंडर्सन, डैनी बॉयल और जॉन फॉरो को भी गर्व होता। क्या इरफान की भारतीय फिल्में कम प्रभावशाली थीं। नहीं, वो ज्यादा प्रभावशाली थीं और हमारे लिए ज्यादा प्यारी भी। आखिर इरफान ने इस सिनेमाई चुनौती पर जीत कैसे हासिल की? इसका जवाब पुराना है: खुद की तरह बनकर। इरफान खान सच में ऐसे थे जैसा हिंदी सिनेमा ने पहले कभी देखा ही नहीं था।

बहुत से एक्टर जहां स्टार जैसा दिखने के लिए नखरे और चोंचले करते हैं, वहीं इरफान एकदम मस्तमौला थे। जैसे कि उन्हें किसी चीज की जरूरत ही न हो। वो लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कभी कुछ करते नजर नहीं आते थे। लेकिन इसके बावजूद, अगर वो छोटे से सीन में भी आएं तो आप उनसे अपनी नजरें नहीं हटा पाएंगे। सलाम बॉम्बे फिल्म का वो चिट्ठी लिखने वाला शख्स याद है? साल 1998 के दिनों में ऐसे गलता था मानो इरफान खान भी जो नसीरुद्दीन शाह की राह पर चलेंगे। अच्छे किरदार निभाएंगे, लीड रोल भी निभाएंगे, अवॉर्ड जीतने वाले 'समानांतर सिनेमा' का हिस्सा बनेंगे, वो फिल्में जो व्यावसायिक स्क्रीन पर सहज नहीं होतीं। वो ऐसी फिल्में करेंगे जिनसे पैसा और उत्साह कम मिलता है लेकिन ग़ुस्सा और कड़वाहट ज्यादा। लेकिन मैं पूरी तरह सही नहीं थी। इरफान 80 के आखिर से लेकर 90 के दशक तक गोविंद निहलानी और तपन सिन्हा की फिल्मों से होते हुए यश राज की 'मुझसे दोस्ती करोगे' और मुकेश भट्ट की 'कसूर' तक गए। साल 2000 तक वो अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में कदम रख चुके थे। उन्होंने आसिफ कपाड़िया की फिल्म द वॉरियर में काम किया जिसे बेस्ट ब्रिटिश फिल्म के लिए बाफ्टा से नवाजा गया, ... और फिर खुशकिस्मती से तिग्मांशु धूलिया की 'हासिल' आ गई। मैंने इस फिल्म को छोटे से थियेटर में कुछ सुस्त फिल्म समीक्षकों के साथ देखा था। मुझे याद है कि वो सब कैसे इरफान खान की ऊर्जा से विस्मित थे। इरफान पूरी फिल्म में अनायास ही चमक रहे थे। उस साल उन्हें बेस्ट विलेन की भूमिका के लिए फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवॉर्ड मिला। यही वो पल था जब इरफान खान कमर्शियल लाइमलाइट में आए।
अगले साल, 2003 में विशाल भारद्वाज की 'मकबूल' आई और फिर तब से इरफान खान का जलवा कायम ही रहा। ये फिल्म की कास्टिंग बेहद खूबसूरत थी। लीड रोल में इरफान खान, पंकज कपूर, तब्बू, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी और पीयूष मिश्रा... इसे देखना, सुनना और महसूस करना जादुई था। 22 फिल्में करने के बाद इरफान को मकबूल मिली थी और ये शानदार थी। इससे पहले तक वो हिंदी फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार ही निभाते आए थे। लेकिन अंतरराष्ट्रीय सिनेमा और निर्देशकों की नजर उन पर पड़ गई थी।माइकल विंटरबॉटम की फिल्म 'ए माइटी हार्ट' साल 2006 में आई और साल 2007 में मीरा नायर की 'द नेमसेक'.और फिर वेस्ट एंडर्सन की स्वप्लिन 'द दार्जिलिंग लिमिटेड'। और इसके बाद 2008 में आई स्लमडॉग मिलिनेयर, जिसे ऑस्कर मिला।
क्या ये शर्मनाक था कि उन दिनों बहुत कम हिंदी फिल्म निर्माताओं ने जीनियस इरफान खान को काम दिया? हां, ये शर्मनाक था और माफी के लायक भी नहीं था। लेकिन विशाल भारद्वाज और तिग्मांशु धूलिया ने बाकी सबकी कसर पूरी कर दी। तिग्मांशु धूलिया ने इरफान खान को वो फिल्म दी जिसे मैं उनकी दूसरी सबसे अच्छी फिल्म मानती हूं- साल 2012 में आई पान सिंह तोमर। इस साल इरफान खान और तिग्मांशु धूलिया दोनों को नेशनल अवॉर्ड मिला। इसी साल निर्देशक आंग ली और इरफान की फिल्म लाइफ ऑफ पाई को भी ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया था। साल 2013 में आई लंचबॉक्स में तो इरफान ने सबसे जादुई अभिनय किया। एक बोरिंग ऑफिस की कैंटीन में रोज डब्बा खोलने जैसे ऊबाऊ सीन को इतना नाटकीय, भावपूर्ण और खूबसूरत भला और कौन बना सकता था? वो बाथरूम वाला सीन और भला कौन कर सकता था जिसमें सागर फर्नांडीज को अहसास होता है कि वो बूढ़ा हो चला है?
इस पूरी फिल्म में इरफान ने खामोशी और तड़प की एक ऐसी चादर ओढ़ रखी है कि दिलों को छूने के लिए किसी फैंसी डायलॉग या भारी-भरकम सीन की जरूरत ही नहीं पड़ती। क्या ये लंचबॉक्स ही थी जिसने हिंदी सिनेमा में उनकी राह बदल दी? अचानक ही वो पीकू, तलवार, हिंदी मीडियम और अपनी आखिरी फिल्म अंग्रेजी मीडियम में नजर आए। वो अवॉर्ड शो में नजर आने लगे, उन्हें वो दर्शक मिलने लगे जिनके वो हकदार थे। उन्होंने इसका जश्न भी मनाया। लेकिन ये सब 'हीरो ऑब्सेस्ड' बॉलीवुड और विशाल भारतीय दर्शकों के लिए बहुत देरी में हुआ। नेशनल अवॉर्ड और फिल्मफेयर अवॉर्ड के बावजूद हमने इरफान खान को वो नहीं दिया जिसके वो असल में हकदार थे। और अब हम कभी दे भी नहीं पाएंगे।

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