प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 25 मार्च से तीन सप्ताह के लिए लॉकडाउन की घोषणा घोषणा की थी तो लाखों की तादाद में कामगार महानगरों से अपने गांवों की और पैदल ही चल पड़े। यह क्रम कमोवेश आज तक जारी है। सड़कें मज़दूरों की व्यथा की गवाह बनी। महानगरों में उनके दुख दर्द को सुनने वाला कोई नहीं था। हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी उन्हें चुल्लूभर सुख नसीब नही हुआ। वे कुनबे के साथ हजारो किलोमीटर पैदल ही यात्रा करते रहे। अदम्य जिजीविषा के साथ ज़िंदगी की जंग लड़ते रहे। उनके कंधों पर मासूम बच्चे थे। सभ्य समाज की गालियां उन्हें जख्मी कर रही थी। किसी भी सूरत में उन्हें अपने गांव पहुंचना था।
मजदूरों की यह व्यथा हमारे नीति नियंताओ के गैरज़िम्मेदारीपूर्ण रवैये की देन है। पूंजीवाद की आवारगी का नतीजा है। मजदूरों के पास श्रम की पूंजी है। वे कर्मयज्ञ करते हैं। उनके पसीने के दम पर महानगरों की चमक-दमक है। इसके बावजूद उनके हिस्से में यह त्रासदी। दर-असल पूंजीवाद के दरिंदों ने मज़दूरों को गुलाम समझ रखा है। वे शोषण के लिए ही पैदा हुए हैं। लेकिन इन मज़दुरों में हौसला भरपूर था। हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर जब वे अपने घर पहुँचे तो उनके हाथ ख़ाली थे। शायद इसीलिए वे उदास और निराश थे; लेकिन वे हारे नहीं हैं।
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कोरोना काल में काम के थमते ही मज़दूरों का चूल्हा बुझने लगा। इन प्रवासी मज़दूरों ने जिन मालिकों के लिए खून पसीना बहाया, उन मालिकों ने इनसे मुँह मोड़ लिया। देश के श्रम संगठनों से सवाल है कि उनके शब्दों में अब वह ताक़त क्यों नहीं रही ? श्रमिक नेताओं के जो जोश और जज्बे कहाँ चले गए ? केंद्र और प्रदेश सरकारें भी सवालों के कटघरे मे हैं। श्रमिकों की ख़ामोशी बडी खतरनाक है। यदि समय रहते मज़दूरों की पीड़ा का निदान नहीं हुआ तो खेतों दे अनाज के साथ ही आग भी उपजेगी।