बेहद लंबे, बोझिल और उदासी भरे दिन, उससे भी ज्यादा लंबी-उदास रातें काटना भीगी लकड़ी जलने जैसा हो गया है. करने को कोई काम नहीं बचा. एक हद से ज्यादा कहीं आना-जाना नहीं. पास-पड़ोस के अलावा किसी से मुलाकात नहीं. कोई नई जैसी लगने वाली बात सुनने को नहीं मिल रही. वर्षों से आस-पास के वही देखे-जाने चेहरे और उनकी आवाजें.
हर सुबह वही सदियों पुराना सूरज निकलता है और शाम होते-होते ढल जाता है. आंगन में हर रोज वही मटमैल रंग की घिनौड़ी चिड़ियों को झुंड आकर शोर मचाता हुआ फुदकता है. गुलाब के पौधों में रोज का एक-सा गुलाबी फूल खिलता है. पड़ोस की छत पर आकर बैठने वाले कबूतर गूटर-गूं के अलावा कुछ और नहीं बोलते. इसे देर-सबेर भारत की पुण्यभूमि में भी आना ही था. सो यह सारे सजग पहरेदारों-चौकीदारों को चकमा देकर आ गया. यहां आए बिना वैसे भी किसी का काम चलता नहीं, दुनियाभर के ताकतवर देशों के राष्ट्रध्यक्ष भी तो समय-समय पर यहां आते रहते हैं. वे इसलिए नहीं आते कि उन्हें हमसे या हमारे मुल्क से कोई भारी मोहब्बत है. तभी तो यहां आने से पहले वे 'नमश्टे' कहने का कितना रियाज किया करते हैं. वे क्यों आते हैं, यह बताने में ऊर्जा खर्च करने का कोई मतलब ही नहीं है. खैर, फिर यह तो महामारी है. महामारियों के पास ऐसा कुछ होता नहीं कि जिसे देने का दिखावा भी किया जा सके. आपदाएं-महामारियां मनुष्य का काफी कुछ छीनकर ले जाती हैं. कल हम न जाने किन-किन चीजों से महरूम होंगे जिनके बारे में आज ठीक कुछ कह पाना कठिन है.
आए दिन देखने में आ रहा है कि सामर्थ्यवान लोगों में 'जरूरी' सामान इकट्ठा करने का खब्त-सा पैदा हो गया है. वहीं, रोज कमाकर पेट भरने वालों खासकर प्रवासी मजदूरों के सामने विकट समस्या है. यह कई लोगों के लिए भुखमरी के आगमन की पदचाप हो सकती है. बीच-बीच में आने वाली कुछ खबरें यह भी बताती हैं कि कई लोगों को खाना नहीं मिल रहा या एक वक्त खाकर गुजर हो रही है. ऐसे में कई भले लोग व संस्थाएं लोगों की मदद कर रहे हैं. कुछ और हैं जो फोटो खिंचवा रहे हैं. उनकी फोटो में देखकर पता करना लगभग नामुमकिन हो रहा है कि इस भीड़ में अनाज की पोटली का दाता कौन है और पाता कौन. जानकार लोगों की यह आशंका है कि आने वाले दिन और कठिन हो सकते हैं. यह झूठी साबित हो, बस यही कामना सबकी होनी चाहिए.
फिलहाल, जिनके पेट भरे हैं और निकट भविष्य में भी उन्हें भूख व अभाव का डर नहीं सता रहा है. उनमें से अधिकांश लोगों को लगता है कि तकरीबन सभी का गुजारा हो ही रहा है, किसी का कम अच्छा तो किसी का ज्यादा अच्छा. वे मानते हैं कि कुल मिलाकर काम तो सभी का चल रहा है. मगर कुल तस्वीर ऐसी ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है. और फिर, पूरी तस्वीर दिखाने वाला कोई बचा भी तो नहीं. लेकिन सबकुछ इतना संतोषजनक तो नहीं ही है.
कई बार कुप्रबंधन और चीजों की किल्लत की भी सूचनाएं मिलती हैं. अपनी इस मान्यता को कई साल बाद फिर से दोहराने का लोभ नहीं छूट रहा कि हमें आपदा प्रबंधन का प्रशिक्षण शराब व्यवसाइयों और तस्करों से लेना चाहिए. ऐसे में जबकि सब धंधे और आवाजाही ठप है. बहुतों को 'आवश्यक राहत सामग्री' ऊंची कीमत पर ही सही फिलहाल उपलब्ध हो रही है. मगर ध्यान रहे यहां भी सभी का हर दिन चंगा नहीं है न जाने कितने लोग मन मार कर बैठे हैं. मधुशाला भी अब मेल नहीं बैर करवाने की राह चल पड़ी है.