बड़े गुलाम अली खां परंपरा और प्रयोग के मेल से बनी मिठास थे

किस्सा आधी सदी से भी पहले का है. के आसिफ की मुगले आजम तब बन ही रही थी. फिल्म में मुगल सल्तनत के वैभव को उभारने के लिए आसिफ तत्कालीन दरबारी संगीत की झलक भी दिखाना चाहते थे. इसी दौरान उनके मन में ख्याल आया कि अकबर के नवरत्न तानसेन के एक गीत के लिए पार्श्व गायन बड़े गुलाम अली खां से करवाया जाए. लेकिन खां साहब फिल्मों से जिस तरह दूरी बरतते थे उसको देखते हुए फिल्म के संगीत का जिम्मा संभाल रहे नौशाद ने तुरंत ही कह दिया कि यह मुमकिन नहीं है.

आसिफ नहीं माने. उनकी जिद को देखते हुए नौशाद को बड़े गुलाम अली के पास जाना पड़ा. खां साहब ने पहले तो मना कर दिया लेकिन, नौशाद के बार-बार कहने पर उन्हें टालने के लिए कह दिया कि वे गाने के 25 हजार रु लेंगे. यह उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी. तब लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जैसे स्थापित गायक भी एक गाने के 500 रु तक ही लेते थे. लेकिन के आसिफ यह सुनकर नौशाद से बोले कि 25 हजार तो कम है और वे तो इससे भी बड़े आंकड़े की उम्मीद कर रहे थे.
खैर, इसके बाद नौशाद ने शकील बदायूनी से प्रसंग के हिसाब से गीत लिखने को कहा और तैयार होने पर इसे उस्ताद बड़े गुलाम अली खां को सौंप दिया. उस्ताद ने इसे ठुमरी अंग की गायकी में अधिक प्रयोग किए जाने वाले राग सोहनी में गाया और इस तरह 'प्रेम जोगन बन के...' जैसा कालजयी गीत वजूद में आया.
यह किस्सा उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के कद की एक झलक है जो भारतीय शास्त्रीय संगीत की आकाशगंगा के सबसे चमकदार नक्षत्रों में से एक हैं. उनका जन्म अविभाजित भारत में लाहौर (अब पाकिस्तान) के पास स्थित कसूर में दो अप्रैल 1902 को हुआ था. अपनी सुरीली आवाज और अभिनव प्रयोगों के जरिये उन्होंने न सिर्फ अपने समय के श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया, बल्कि आज भी उनके प्रशंसकों की एक बड़ी तादाद मौजूद है.
बड़े गुलाम अली खां साहब को संगीत विरासत में मिला था. संगीत के गुर उन्होंने अपने पिता अली बख्श खां, चाचा काले खां और दादा शिंदे खां से सीखे. अली बख्श खां कश्मीर के महाराजा के दरबारी गायक थे और यह संगीत का कश्मीरी घराना कहा जाता था. बाद में ये लोग पटियाला आ बसे और घराने का नाम पटियाला घराना हो गया. यह भी दिलचस्प है कि खां साहब ने सारंगी वादन से अपने संगीत की शुरुआत की थी. उस्ताद आशिक अली खान भी उनके गुरू रहे.
बड़े गुलाम अली खां की आवाज को पहचान 1919 में लाहौर के संगीत सम्मेलन में मिली. इसके बाद कलकत्ता और इलाहाबाद में हुए ऐसे ही संगीत आयोजनों ने उन्हें मशहूर कर दिया. बड़े गुलाम अली खां को ठुमरी में उनके अभिनव प्रयोगों के लिए जाना जाता है. ठुमरी को परंपरा के दायरे से बाहर निकालकर उन्होंने इसे एक अलग अंदाज में ढाला. इस नए अंदाज में लोक संगीत की ताजगी और मिठास भी थी. दिखने में बेहद कड़क मिजाज और मजबूत डील-डौल वाले बड़े गुलाम अली ने सबरंग नाम से कई बंदिशें भी रचीं.
1947 में भारत के बंटवारे के बाद बड़े ग़ुलाम अली खां पाकिस्तान चले गए थे. लेकिन संगीत के इस साधक को वहां का माहौल रास नहीं आया. नतीजतन वे जल्द ही भारत लौट आए. संगीत के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान मिले जिनमें 1962 में मिला पद्मभूषण भी शामिल है. 23 अप्रैल, 1968 को हैदराबाद में उनका निधन हो गया.
इंटरनेट पर उस्ताद बड़े गुलाम अली खां का एक दुर्लभ साक्षात्कार भी मौजूद है. इसमें उन्होंने अपनी संगीत यात्रा के बारे में कई दिलचस्प बातें साझा की हैं.

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