पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा सदस्य बनाए जाने की पूर्व न्यायाधीशों और विपक्षी दलों ने आलोचना की है. ऐसा भी कहा गया कि उन्हें सरकार को फायदा पहुंचाने के एवज में यह पद मिला है. इस बारे में पटना हाईकोर्ट की पूर्व जज अंजना प्रकाश से आरफ़ा ख़ानम शेरवानी की बातचीत.
दो अलग-अलग प्रकार की बातें सामने आ रही हैं. एक तरफ कुछ लोग हैं जो ये कह रहे हैं कि इससे पहले भी दो जज- पूर्व चीफ जस्टिस रंगनाथ मिश्र और जस्टिस बदरुल इस्लाम- भी राज्यसभा में जा चुके हैं इसलिए जस्टिस रंजन गोगोई का राज्यसभा में जाना भी गलत नहीं है. इस पर आपकी क्या राय है?
गलत और सही को संदर्भ के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए. अगर पहले कुछ गलत हुआ है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि हम भी गलत करते चले जाएं. बदरुल इस्लाम का राज्यसभा में नामांकन दूसरे कारणों से हुआ था.
जहां तक रंगनाथ मिश्र की बात है, जहां तक मुझे मालूम है, उनके रिटायर होने के काफी दिनों बाद उन्हें एक कमीशन में लिया गया था. उन्होंने कुछ कांग्रेसियों को दोषमुक्त किया था और उनको इनाम के तौर पर सांसद बनाया गया था.
बात ये है कि पहले अगर ऐसा हुआ था तो अब वो जस्टिस गोगोई के लिए जस्टिफ़िकेशन तो नहीं हो सकता!
आप ये कहना चाह रही है कि पहले कांग्रेस ने इनाम के तौर पर दो जजों को मनोनीत किया था और हम जानते भी हैं. तो अब मोदी सरकार भी ये साफ करे कि जस्टिस रंजन गोगोई ने कौन से मुकदमे में सरकार के पक्ष में फैसला दिया, जिसके इनाम के तौर पर उन्हें राज्यसभा में भेजा गया?
इनाम के बारे में बाद में बात करेंगे लेकिन मेरी निजी राय यह है कि एक व्यक्ति के तौर पर जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामांकित नहीं किया जाना चाहिए था.
उनका चरित्र इतना खराब था कि उन्होंने न सिर्फ़ अपनी मातहत एक कर्मचारी की यौन प्रताड़ना की, बल्कि उनके पूरे परिवार को ऐसा फंसाया था कि वो उनके सामने घुटने टेक दे. जहां तक मुझे मालूम हुआ कि सर्विस लॉ में उनका पहले निलंबन हुआ, उसके बाद उन्हें बहाल भी किया गया.
उस महिला का आरोप जस्टिस गोगोई के खिलाफ था. एक व्यक्ति जब दूसरे पर आरोप लगाता है तो सच्चाई किसी एक व्यक्ति में ही हो सकती है. दोनों तो सही नहीं हो सकते.
यहां पर अगर उस महिला की बहाली हो गई तो इसका मतलब वह सही थी. अगर वो सही थी तो जाहिर सी बात है कि जस्टिस गोगोई गलत थे. अगर गोगोई गलत थे तो क्या उन्हें राज्यसभा जैसी संस्था में मनोनीत करना चाहिए. जिसका चरित्र इतना खराब है उसको राज्यसभा भेजना चाहिए?
वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए, जैसे कि उन्होंने खुद कहा, 'राज्यसभा में उनकी उपस्थिति से न्यायपालिका के विचारों को विधायिका के सामने रखने में और विधायिका के विचारों को न्यायपालिका के सामने रखने में सहूलियत होगी'. यानी कि वो दोनों अंगों के बीच पुल बनने की बात कह रहे हैं.
इससे ज्यादा बेतुकी बात और क्या हो सकती है? सबसे मज़ेदार बात ये है कि इसे वे सम्मानजनक कारण मान रहे हैं. ये सम्मानजनक कारण कैसे हो जाता है ये मेरी समझ से परे है.
यानी आपको ये नहीं लगता कि न्यायपालिका और विधायिका के बीच रिश्ता खराब हो रहा था जिसे पाटने के लिए गोगोई जी सामने आ रहे हैं?
रिश्ता खराब हो रहा था या अच्छा हो रहा था इसकी वजह से जस्टिस गोगोई को इनाम दिया जाए, ये तो कोई बात नहीं ही है न? और वह भी राज्यसभा में जिसमें बड़े और सुलझे हुए लोग मनोनीत किए जाते हैं, वहां ये कैसे फिट हो जाएंगे?
वे भारत के प्रधान न्यायाधीश बने रहे, क्या वो आपको निपुण नहीं लगते हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं. उनका व्यक्तित्व ही इतना बुरा था कि मेरी समझ से वो बिल्कुल डिज़र्व नहीं करते थे.
ये सामान्य नैतिक बात है. अगर कोई इतना बुरा करे और उसका फायदा उठाए, और उनको आप एक ऐसी संस्था में भेज रहे हैं जिसमें पढ़े-लिखे और समझदार लोग भेजे जाते हैं.
उन मामलों पर आते हैं, जो उनके नेतृत्व में चले और जिनसे सरकार को सीधे तौर पर फायदा होता नज़र आया. उनमें से सबसे बड़ा मुद्दा है रफाल मामला. इसमें प्रधान न्यायधीश के नेतृत्व में सरकार का समर्थन किया गया या फिर आरोपों से सीधा-सीधा मुक्त घोषित किया गया.
मैं उस केस के तथ्यों को नहीं जानती, इसलिए उस पर कुछ भी टिप्पणी करना मेरे लिए मुश्किल है. लेकिन बाकी लोग ये कयास लगा रहे हैं कि चूंकि उन्होंने कुछ खास मामलों में सरकार का पक्ष लिया इसकी वजह से उन्हें ये इनाम मिल रहा है, तो ये कयास ही अपने आप में बहुत खौफ़नाक हैं.
इसलिए खौफ़नाक हैं क्योंकि इन मुकदमों में फैसला जस्टिस गोगोई ने अकेले तो नहीं किया. उनके साथ कभी दो जज बैठते थे, तो कभी पांच बैठते थे. सबने मिलकर इन मुकदमों का फैसला सुनाया.
उनमें से एक उठकर चले गए और रिटायर होने के छह महीने के अंदर ही राज्यसभा में नामांकन मिल गया. लेकिन बाकी न्यायमूर्ति अभी भी सुप्रीम कोर्ट में मौजूद हैं.
अब गोगोई की नियुक्ति का असर बाकी जजों पर पड़ता है. उन पर इसकी छाया पड़ती है. ये गलत हैं तो वो भी गलत हैं. इसके बाद भी हम उनके पास जाकर न्याय की मांग कैसे कर सकते हैं? और हम किस तरह का न्याय देने की बात कर रहे हैं?
देश के एक मुख्य न्यायाधीश के अपने मूल्यों से समझौता करने से क्या हम ये भी मान सकते हैं कि वो बेंच का गठन करते समय अपनी पसंद के जजों को चुनते रहे होंगे?
बिल्कुल. हम यही अनुमान लगा सकते हैं कि चूंकि वो भ्रष्ट थे इसलिए मास्टर ऑफ रोस्टर के तौर पर भी उन्होंने ऐसा ही किया होगा. चूंकि वो भ्रष्ट थे और वो मैनेज्ड थे इसीलिए उन्होंने फलां फलां जजों को नियुक्त किया होगा.
वो करप्शन दूसरे जजों में ट्रांसफर हो गया, अब वे सिटिंग जज हैं. अब वो लोग भी भ्रष्ट हैं या नहीं, अभी कयास लगाए जा सकते हैं. ये सारी आशंकाएं गोगोई की वजह से हैं.
अगर मान लीजिए कि गोगोई को रिटायर होने के बाद राज्यसभा में सदस्यता नहीं दी जाती तो इस बात की तो चर्चा ज़रूर होती कि उन्हें मैनेज किया गया. लेकिन करप्शन की बात तो नहीं होती.
ये कोई नहीं कहता कि उन्हें इनाम दिया जाने वाला था इसीलिए उन्होंने ये फैसले सुनाए थे. और उन्होंने ये फैसले अकेले भी नहीं दिए थे. अगर टाइम को आगे बढ़ाते हैं तो पूरी तस्वीर साफ़ हो जाती. ये और भी खतरनाक है.
दूसरा बड़ा मामला आया अयोध्या का, इस पर आपकी क्या राय है? क्या इसमें निष्पक्ष तरीके से फैसला लिया गया क्योंकि अयोध्या को भी भाजपा के लिए एक इनाम के तौर पर देखा जा रहा है. तीन दशकों से भी ज्यादा समय से भाजपा अपने मतदाताओं से राजनीतिक वादा करती रही है कि अयोध्या में राम मंदिर बनाएंगे. ये बड़ा फैसला जस्टिस रंजन गोगोई के कार्यकाल में और देश में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए लिया गया.
बिल्कुल गलत था. जिस तेजी से इस पर फैसला दिया गया, रिव्यू वगैरह को भी खारिज कर दिया गया इससे लगता है कि कहीं न कहीं कुछ गलत बात है. वो किस हद तक गलत था, अब जाकर हमें पता चल रहा है. इसका खुलासा अब हो रहा है.
लेकिन आपको लगता है कि गलत हुआ था.
ज़रूर. बिल्कुल गलत हुआ.
कानून के एक तज़ुर्बेकार के तौर पर आपको ऐसा लगता है?
बिल्कुल.
दूसरा अहम सवाल है, अनुच्छेद 370 को लेकर दायर की गई याचिकाएं. अनुच्छेद 370 को हटाया गया, जम्मू कश्मीर का भारत के बाकी हिस्सों से जो खास रिश्ता था उसे खत्म कर दिया गया. उस पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई न करना, कम्युनिकेशन बंद कर देना, 70-80 लाख लोग एक बड़ी-सी जेल में बंद रहे. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं, अभी भी पता नहीं कि कितने लोग अरेस्ट हुए और वो कहां-कहां पर जेल में हैं? इन सबके बावजूद कान में जूं तक न रेंगी
कुछ समझ में नहीं आता कि सुप्रीम कोर्ट किस चीज़ को प्राथमिकता देना चाह रही थी- राम मंदिर को बनवाने को या उन लोगों को, जो कहते हैं कि उन्हें गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा गया है और अनुच्छेद 370 को हटाना गलत है.
ये अहम था या राम मंदिर को बनवाना? हम ये नहीं कहते कि उसको नहीं सुनना चाहिए. लेकिन ये भी तो एक महत्वपूर्ण मुद्दा था. उसको क्यों नहीं सुना गया? उसको क्यों बार-बार टाल दिया गया?
जम्मू कश्मीर में धारा 107 के तहत नाबालिग बच्चों को भी बंदी बनाया गया था जो अपने आपमें गलत था. जब वो मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में आया तो उस पर रिपोर्ट मंगाई गई. रिपोर्ट में बार-बार यही कहा गया कि बच्चों को धारा 107 के तहत बंदी बनाया गया था जो कि गैरकानूनी था.
उसके बावजूद भी सुप्रीम कोर्ट ने उसे टाल दिया और कहा कि सिर्फ दो घंटे के लिए बंदी बनाया गया था इससे बच्चों पर क्या फर्क पड़ता है. ये बिल्कुल ही हास्यास्पद है. मानव अधिकारों के साथ आप ऐसे कैसे खिलवाड़ होने देते हैं?
ऐसा खुल्लमखुल्ला हुआ है. मानव अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ही गंभीर नहीं है तो और कौन इंसाफ़ करेगा?
जब हमने वकालत शुरू किया था, हमारे दिमाग में ये आदर्शवाद था कि अदालतें जो हैं बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं या कोई भी मानव अधिकारों का मुद्दा रहता था, उस पर प्राथमिकता के साथ सुनाया जाता था.
एक वकील के तौर पर भी और एक जज के तौर पर भी मेरा अनुभव है कि ऐसे मुकदमों से बढ़कर कोई और नहीं हो सकता था.
समाज के साथ-साथ क्या अदालतें और जज भी बदल रहे हैं?
सिस्टम ही बदल रहा है और हम ही लोग इसे बदल रहे हैं. अदालतों का पूरा स्वभाव ही बदल रहा है. वैसे उच्च न्यायालय अभी भी अपना काम सही ढंग से कर रहे हैं, जो काबिले तारीफ़ है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह मुकदमों का निपटारा हो रहा है, हम में से कई लोग इससे नाराज़ हैं. हम निराश हैं.
क्या आपको ये लगता है कि जो आम आदमी है या जैसे कि गांधी कहा करते थे, समाज का आखिरी व्यक्ति, जिसके पास कोई संसाधन नहीं है, जो गरीब है, जो बड़ी अदालत में गुहार लगाता है, क्या सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े उसके लिए खुले नहीं है? या उसकी बात नहीं सुनी जा रही है?
अब तामझाम बहुत है. आपको कानूनी मदद (legal aid) मिलेगी, कोई भी अगर चिट्ठी लिखता है तो उसके लिए एक प्रक्रिया होगी, ऐसा कहा जाता है. लेकिन उसका कैसे निपटारा होता है ये तो व्यवहार में पता चल जाता है.
बहुत तरह के नियम-कायदे बतायेंगे. प्रोसीज़र्स बनाएंगे कि हरेक गरीब आदमी को कानूनी मदद मिलनी चाहिए. उसके लिए बड़े-बड़े बैनर्स होंगे, बातें होंगी, भाषण होंगे सब कुछ होगा.
लेकिन उसे कार्यान्वित कैसे किया जाता है वो तो रोज़ का प्रोसीज़र है. और उसमें हम देखते हैं कि वो प्रोसीज़र कहीं लागू नहीं हो रहा है, उस तेजी से नहीं जिस से होना चाहिए.
मैं सीएए-एनआरसी पर आते हैं. सीएए-एनआरसी को लेकर भारत का बहुत बड़ा तबका ऐसा मानता है कि उनकी नागरिकता खतरे में है. हमने देखा है कि जामिया में क्या हुआ, छात्रों को पुलिस ने किस तरह पीटा है. जेएनयू में देखा कि खून से लथपथ छात्र निकलकर आ रहे थे. सरकार जब जनहित के बजाय जनता के विरोध में नीतियां बना रही हो, सुप्रीम कोर्ट को जहां दखल देना चाहिए क्या दे रहा है? इसे किस रूप में देखती हैं?
हम तो इस बात से निराश हैं कि सुप्रीम कोर्ट उसे प्राथमिकता देकर नहीं सुन रहा है. क्यों नहीं सुन रहा है, इसका तो कोई कारण ही नहीं है.
और हम लोग ये जानते हैं कि न्यायपालिका को स्वतः संज्ञान में लेकर सुनना चाहिए, गुहार लगाने की भी जरूरत नहीं है. वो खुद ही ये काम कर सकती है.
खुद ही बोल सकती है कि चूंकि ये महत्वपूर्ण मुद्दा है, इस पर हम सुनेंगे और फैसला करेंगे. ये क्यों नहीं कर सकता है? अगर किसी ने पिटीशन भी नहीं दायर की है तब भी वो कर सकते हैं.
यहां पर तो बार-बार याचिकाएं दायर करने के बावजूद दरकिनार करते जा रहे हैं. कहां न्याय है, कहां अन्याय है- समझ में नहीं आ रहा है.
उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक हुए दंगों को अगर देखें… ये हम नहीं बल्कि बाकयदा भाजपा कह रही है कि सीएए प्रोटेस्ट्स, शाहीन बाग का दंगों के साथ रिश्ता है. पचास से ज्यादा लोग यहां मारे गए हैं, सैकड़ों जख्मी हुए हैं और हजारों बेघर. 30 हजार करोड़ रुपये तक का नुकसान होने की बात हो रही है. उत्तर प्रदेश को भी मिला लें तो करीब 80 से ज्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका क्या होनी चाहिए?
सुप्रीम कोर्ट को एक अभिभावक की भूमिका निभानी चाहिए थी. अगर उनको ये महसूस हुआ होता कि बहुत आतंक मचा हुआ है और समाज हिंसात्मक हुए जा रहा है और उसे काबू करने की जरूरत थी, तो सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे को लेना चाहिए था.
फैसला सुनाना चाहिए था. उसमें क्या गलती हो सकती थी? सुप्रीम कोर्ट को तो छोड़िए, मानवाधिकार आयोग ने भी यह कहा कि ये कोई दंगे नहीं हैं, ये तो छिटपुट वाकये थे. मुझे समझ में नहीं आता कि इसका पैमाना क्या है, क्या नियम हैं, कानून में क्या लिखा है?
सीएए का पूरा मामला जस्टिस गोगोई के रहते हुए हुआ था. क्या आपको लगता है उन्हें इस पर कदम उठाना चाहिए था?
सिर्फ जस्टिस गोगोई ही क्यों? बाकी लोगों को भी तो करना चाहिए था. कोई भी संज्ञान में ले सकता है.
अगर आप इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में होतीं तो क्या करतीं?
मैं चुप तो नहीं रहती. जरूर प्रोएक्टिव रहती, उसमें कोई शक नहीं. अगर मैं ये देखती हूं कि कहीं अन्याय हो रहा है तो उसे रोकने का कदम उठाती. मैं ये कोशिश जरूर करती.
सीएए को लेकर क्या सोचती हैं?
देखिए, ये बहुत खतरनाक है. ये कानून अपने आप में खतरनाक है. हम लोग जानते ही हैं कि राजनीतिज्ञों को कोई विश्वास नहीं करता था. वे लोग बोलते कुछ हैं, करते कुछ और हैं, ये बात तो आम है.
सीएए के जरिए हिंदू-मुस्लिम वाले मुद्दे को परदे के पीछे से लाया गया है. एक समुदाय को अलग-थलग करने की कोशिश बहुत ही खतरनाक है. भारत इसके लिए नहीं बना है.
राष्ट्र क्या है? राष्ट्र निर्माण का मतलब क्या है? सभी तरह के लोगों के लिए होता है राष्ट्र. तरह-तरह की महत्वाकांक्षाएं, तरह-तरह की प्राथमिकताएं रखने वाले तमाम तरह के लोगों के लिए है ये देश.
शांति, भाईचारा, समानता आदि तमाम मूल्य कहां जाते हैं? हम जिस राष्ट्र की बात कर रहे हैं? ये लोगों से बना है. लोगों से जुदा बिल्कुल नहीं.
कोरोना वायरस के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी बड़ा सवाल खड़ा हुआ था, फिर भी शाहीन बाग में बैठी हुई औरतें ये कह रही थीं कि उन्हें कोरोना से ज्यादा डर डिटेंशन सेंटर से लगता है. क्या लगता है कि कानून को दखल देना चाहिए या फिर उनके बुनियादी अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए?
एक नागरिक के बुनियादी अधिकार की जरूर रक्षा करनी चाहिए. ये काम अदालतें ही कर सकती हैं. जब राजनीतिक नेताओं ने पल्ला झाड़ लिया, तो उनसे ये उम्मीद ही नहीं कर सकते, न्यायपालिका को दखल देना चाहिए.
क्या ये कह रही हैं कि अगर अदालत चाहे तो इस कानून पर रोक लगा सकती है?
बिल्कुल. अगर अदालत ये कहती कि सीएए गलत है तो बात ही खत्म हो जाती न? इस बात को बढ़ावा ही नहीं मिलता.
एक आदमी के लिए इंसाफ का भविष्य कैसे होने वाला है? जिस तरह जस्टिस गगोई ने रिटायर होते ही राज्यसभा की सदस्यता ली, क्या इससे उन्होंने इंसाफ़ के भविष्य को धक्का पहुंचाया है?
कोई भी समय अचल नहीं होता है. कभी अच्छा होता है, कभी बुरा होता है. मैं तो एक पक्की आशावादी हूं. मैं ऐसा कभी भी नहीं सोच सकती कि रंजन गोगोई राज्यसभा में जाने से देश बिल्कुल बर्बाद हो गया.
मैं इस बात पर विश्वास नहीं करती क्योंकि आप किसी भी आम आदमी से बात कीजिए, आपको हमेशा यह समझ आएगा कि लोगों के अंदर बहुत अच्छापन है. बहुत अच्छे हैं.
लेकिन भारत में दिक्कत ये है कि जिन लोगों को महत्व दिया गया है, वो या तो भ्रष्ट हैं या फिर आसानी से भ्रष्टता की ओर चले गए हैं.
आप और मैं गिनती में नहीं आते हैं, लेकिन हमारे अंदर अच्छापन तो है. अपना अच्छापन को लोगों से बांट सकते हैं.
जब हमारे इर्द-गिर्द अच्छापन फैलाएंगे, जस्टिस रंजन गोगोई जैसा छोटा-सा विचलन लगभग बेअसर ही बनकर रह जाएगा. देश के लोगों के अंदर मौजूद अच्छाई से इसकी तुलना करे, ये तो बिल्कुल बेअसर ही होगा.
तो आखिर में आम आदमी ही जीतेगा?
बिल्कुल जीतेगा. आखिर में मैं गौरव सोलंकी के चंद शब्द सुनाना चाहती हूं…
'जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि जिंदगी एक पल्प फिक्शन है और जो भी उसे उच्च आदर्शों वाले साहित्य में बदलने की कोशिश करेगा, उसे चारों तरफ से घेरकर मार डाला जाएगा. हमें जिंदा रहना है इसलिए हम कोशिश करेंगे कि अश्लील चुटकुलों पर हंसते रहें और अपने हिस्से की रोटी खाकर चुपचाप सो जाएं.'
चाहें तो हमारे पर ये ऑप्शन है या फिर आम आदमी के अंदर अच्छेपन को खोजते रहें. 1986 के आसपास पैदा हुए एक युवा लेखक जब ऐसी बातें लिख रहे हैं तो समझ सकते हैं. आप अगर आवाज़ उठाते हैं तो आपको चारों तरफ से घेरा जाएगा और मार दिया जाएगा.