चंपारण सत्याग्रह के 105 साल: जब नील की खेती कर बदन जलाती औरतों-बच्चों को मिली जुल्मी कानून से मुक्ति



Champaran Satyagraha (दीप्ति मिश्रा)। 10 अप्रैल, 1997...यही वो दिन है, जब एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें न गोली चली और न लाठी। न जुलूस निकला और न कोई बड़ी सभा हुई। गिरफ्तारी हुई तो आरोपी ने खुद ही जमानत लेने से इनकार कर दिया। दरअसल आज ही के दिन आजादी के आंदोलन का पहला सत्याग्रह शुरू हुआ था। इसे चंपारण सत्याग्रह के नाम से जाना गया।
चंपारण सत्याग्रह यानी की ऐसा सत्याग्रह जिसके आगे अंग्रेजी हुकूमत को तो झुकना ही पड़ा, साथ ही कुछ गोरे अफसरों को भी अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर लंदन वापसी करनी पड़ी थी। यही वो सत्याग्रह है, जिसने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बना दिया और बाद में महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता कहलाए गए।

बात उन दिनों की है, जब पहला विश्व युद्ध चल रहा था। पूरी दुनिया के लिए उथल-पुथल का दौर था। ठीक उसी समय राजा जनक की भूमि यानी चंपारण भी भीतर ही भीतर सुलग रहा था। सालों से गरीबी और मजबूरी की मार झेल रहे यहां के किसानों के लिए अब और सहना मुश्किल हो गया था। नील की खेती ने उन्हें तबाह कर दिया था, लेकिन नील की खेती करना उनकी मजबूरी थी।

इस समय अंग्रेजी सरकार ने 'तीन कठिया' कानून लागू कर दिया था। इसके तहत एक बीघा जमीन में से तीन कट्ठा जमीन पर नील की खेती करना अनिवार्य है। किसान अपनी जमीन के किस हिस्से में नील की फसल की बुवाई करेगा, यह अधिकार भी उसके पास नहीं था। फसल की कीमत बेहद कम होती थी और नील की खेती करने से जमीन की उर्वरता भी खत्म हो जाती थी।
प्रति बीघा 19 रुपए भुगतान के तौर पर दिए जाने का नियम था, लेकिन इतनी धनराशि भी किसानों को नहीं मिल पाती थी। मुआवजे की कोई व्यवस्था नहीं थी। यानी कि हर हाल में नील की खेती करनी ही पड़ती थी और जो दाम अंग्रेजी हुकूमत दे दे, उसे लेकर ही सब्र करना पड़ता था। इसके अलावा प्रशासन की ओर से भी तरह-तरह के टैक्स वसूल किए जा रहे थे।

उस वक्त चंपारण में नील के 70 कारखाने थे। पूरे जिले पर इन कारखानों का प्रभाव था। 2 से 5 मील की दूरी पर बने इन कारखानों ने अपने-अपने इलाके बांध रखे थे, जो किसान पहले अन्न की खेती करते थे, उनसे ये लोग जबरदस्ती नील की खेती कराने लगे थे। इस दौरान पहला विश्व युद्ध चल रहा था। अंग्रेजों को और पैसों की जरूरत थी। ऐसे में नील की खेती करने वालों पर और दबाव बनाया जाने लगा। अगर कोई किसान नील की खेती करने से मना करता तो उसकी बेरहमी से पिटाई की जाती।

ऐसा नहीं था कि किसानों ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई। साल 1914 में छोटे किसानों ने एकजुट होकर जिला न्यायाधीश के पास अर्जी दी और अपना दुखड़ा सुनाया। नतीजन कुछ करों से राहत मिली। इसमें कारखानों की ओर से वसूला जाने वाला 'एक आना' कर भी शामिल था। कारखानों की आमदनी कम हुई तो वे लोग किसानों से नील की खेती के लिए अलग से सिंचाई का पैसा वसूलने लगे, यह वसूली भी बंद हो गई। नील के धंधे से जुड़े आला-अधिकारी किसानों पर जो कर लगाते थे, अगर किसान उसे नहीं भरते थे तो उनके लिए कड़ी सजा का प्रावधान भी था।

इससे पहले, साल 1859 में बंगाल के किसानों ने नील की खेती के खिलाफ अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ी थी, जिसे इतिहास में नील विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इसके बावजूद ​नील की खेती में जुटे किसानों की परेशानी कम नहीं हुई थी।
बंगाल से लेकर बिहार तक किसानों की दुर्दशा बरकरार थी। उन पर उधार बढ़ता गया। जमीन बंजर हो चुकी थी। उस जमीन पर दूसरी फसल की पैदावार बेहद कम हो चुकी थी। चंपारण में भुखमरी की नौबत आ गई। किसानों को कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। उन्हें एक ऐसे इंसान की जरूरत थी, जो यहां आकर उनकी आवाज अंग्रेज हुकूमत तक पहुंचाएं और उन्हें अत्याचारों की इस अंधेरी खाई से बाहर निकाले। उधर, गांधी भी अपने सत्याग्रह के अस्त्र को आजमाना चाहते थे। यानी चंपारण को गांधी की जरूरत थी और गांधी को चंपारण जैसे हालात की, जहां से वे शोषण और हिंसा के खिलाफ अहिंसा का रण छोड़ सकें, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।

चंपारण के ही एक साधारण से किसान राजकुमार शुक्ल ​अपनी और अपने जैसे किसानों की हालत से बहुत दुखी थी। वे नील के दाग को धो डालना चाहते थे। जब उन्होंने इसके खिलाफ आवाज बुलंद की, तब अंग्रेजों ने कई बार केस में फंसा कर जेल में डाल दिया। हर बार वह बाहर निकलते ही फिर विरोध करते तो ऐसे अंग्रेजों ने शुक्ल को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर इनाम की घोषणा कर दी।

शुक्ल के पास जब कोई और रास्ता नहीं बचा, तब उन्होंने देश के किसी बड़े नेता चंपारण लाने की ठानी। पहले वे बाल गंगाधर तिलक और फिर मदन मोहन मालवीय के पास गए, लेकिन इन दोनों ने स्वतंत्रता संग्राम का हवाला देकर न आने की मजबूरी जता दी। इसके बाद राजकुमार शुक्ल महात्मा गांधी से मिले और चंपारण में आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह किया। इसके बाद जो हुआ, वो भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है। चंपारण महात्मा गांधी की प्रयोगशाला बन गया, जहां उन्होंने सत्य और अहिंसा का पहला प्रयोग किया।

अपनी जीवनी 'सत्य के प्रयोग' में गांधी ने लिखा है, ''वहां जाने से पहले मैं चंपारण का नाम भी नहीं जानता था। नील की खेती होती है, यह विचार भी मन में नहीं था। राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान ने उनका पीछा किया और वकील बाबू (उस वक्त बिहार के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर ब्रजकिशोर प्रसाद) के बारे में कहते कि वे सब हाल बता देंगे। साथ ही चंपारण आने का निमंत्रण देते। यह क्रम चलता रहा और आखिर में मुझे चंपारण जाना ही पड़ा।''

परेशान किसान, बदहाल जनता और लोगों पर सरकारी टैक्स का बोझ... किसान राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर 10 अप्रैल, 1917 को गांधी मुजफ्फरपुर पहुंचे, तब उनके एजेंडा में यही तीन मुद्दे थे। गांधी के आने की खबर सुन हजारों किसान उमड़ पड़े। रो-रोकर अपनी समस्या गांधी जी को बताने लगे। उधर, अंग्रेज अफसर हरकत में आ गए। तुरंत पुलिस को भेजा। पुलिस सुप्रिटेंडेंट ने गांधी को जिला छोड़ने का आदेश ​दे दिया, लेकिन गांधी किसानों को इंसाफ दिलाने की ठान चुके थे। ​गांधी जी ने जिला छोड़ने से मना कर दिया। फिर क्या था गांधी को जेल में डाल दिया गया।

18 अप्रैल को कोर्ट में उनकी पेशी हुई। गांधी जी ने मजिस्ट्रेट के सामने बेहद निडर व विनम्र सुर में कहा कि वह चंपारण में किसानों की हालत जानने आए हैं, जब तक हालत से वाकिफ नहीं हो जाते, वे चंपारण नहीं छोड़ेंगे। अगर इस बात की उन्हें सजा भी मिले तो वो भुगतने को तैयार हैं। गांधी की सच्चाई और निडरता देख मजिस्ट्रेट चकरा गया। कुछ समझ नहीं आया तो उसने तारीख आगे बढ़ा दी गई। यह घटना कुछ अखबारों में सुर्खियां बन गई।
अंग्रेज हुकूमत तक मामला पहुंचा। विश्व युद्ध चल रहा था और रूस में लेनिन बोल्शेविक क्रांति आखिरी दौर में पहुंच चुकी थी। अंग्रेजी हुकूमत किसी तरह का जोखिम लेना नहीं चाहती थी। ऐसे में उसने गांधी के आगे झुकते हुए मुकदमा वापस ले लिया और जांच में सहयोग करने का आदेश दिया। सत्य की पहली जीत थी। गांधी खुलकर गांव-गांव जाने लगे। पांच हजार से ज्यादा किसानों के बयान दर्ज ​हुए।
चंपारण सत्याग्रह की दूसरी सबसे बड़ी जीत तब हुई, जब प्रांतीय सरकार ने भी किसानों पर अत्याचार के खिलाफ जांच के लिए एक समिति बना दी। गांधी जी को समिति में जगह मिली। बाद में समिति की अनुशंसा पर करीब सौ साल पुराना 'तिनकठिया' यानी तीन कठिया प्रथा कानूनी तौर पर खत्म की गई। किसानों से अवैध रूप से वसूल गए धन का 25 प्रतिशत भी लौटाया गया। शर्मसार कई भूरे अधिकारी अपना सामान बांधकर अपने देश लौट गए।
सत्य के प्रयोग में महात्मा गांधी ने लिखा है, परेशानी किसानों की थी तो मैं चाहता था कि वे ही बोलें। अपनी आवाज बुलंद करें। इस सत्याग्रह को मैं राजनीति से दूर रखना चाहता था, इसलिए सभी अखबारों के संपादकों को चिट्ठी लिखकर किसी भी संवाददाता को चंपारण न भेजने की दरख्वास्त की थी।
चंपारण सत्याग्रह से सौ साल से भी पुरानी प्रथा समाप्त हुई। नील के खेतों में बदन जलाती औरतों और बच्चों को उनका हक मिल गया। वहीं गांधी का देश की राजनीति में धमाकेदार उदय हुआ। इसके साथ ही देश को एक नया नेता मिला तो नई तरह की अहिंसक राजनीति भी मिली। जैसे गंगा का उद्गम गंगोत्री से हुआ है, ठीक वैसे ही गांधी से बापू और महात्मा बनने के सफर का पहला स्टेशन ही चंपारण है।

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