भारतीय सिनेमा की दुनिया में फर्रुख जफर ने सिनेमा में बनाया अपना अलग मुकाम, किरदारों में डाल दी अपनी जान

मैंने सन 2010 में पहली बार फर्रुख जफर के बारे में सुना। मैं गांव की वास्तविकता जानने के लिए मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गांव बड़वई गई थी। यह भोपाल से 70 किलोमीटर की दूरी पर है। इस गांव को अनुषा रिजवी की फिल्म 'पीपली लाइव' में पीपली गांव के रूप में रूपांतरित किया गया था। भारत के गांवों और मीडिया के हालात पर यह व्यंग्यात्मक फिल्म है। फिल्म के टीवी पर चलने वाले प्रोमो और एफएम में बजने वाले गीतों की वजह से सुर्खियों में आए इस गांव के लोग अपने इस अनुभव से बहुत उत्साहित थे। वे फिल्मी सितारों के साथ अपनी मुलाकात की यादों को खुलकर बता रहे थे। खासकर कलाकार रघुबीर यादव के साथ उनकी यादें बहुत ही जीवंत थीं। रघुबीर ने गांववालों के साथ तालाब के किनारे खाना खाया था और उनके संग गीत भी गाए थे। और फिर "अम्मा" के बारे में तो अंतहीन कहानियां थीं। शहादत खान ने एक छोटे से आंगन की ओर इशारा करते हुए बताया, "यहां उनकी चारपाई बिछाई जाती थी।" शहादत का मिट्टी से बना घर फिल्म 'पीपली लाइव' के नायक नत्था का घर था। उस समय तक मैंने फिल्म नहीं देखी थी और मैं थोड़ा कन्फ्यूज थी कि "अम्मा" कौन है? मुझे इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि मैं नत्था के मां के किरदार से मंत्रमुग्ध हो जाऊंगी। यह वह किरदार था जिसे फर्रुख जफर ने पर्दे पर निभाया।

फिल्म में अम्मा अपनी बहू को बिना देर किए हुए मुंहतोड़ जवाब देती है। फिल्म में बहू का अम्मा के साथ झगड़ा चलता रहता है। अम्मा अपने बिस्तर पर पड़ी रहती है लेकिन वह पूरी दुनिया को अपने इर्द-गिर्द घुमाती रहती है। तेजतर्रार जफर ने इस किरदार में अपने स्वयं का साहस भर दिया। इसके बाद उन्होंने 'गुलाबो सिताबो' तक जो भी फिल्में कीं, उनके किरदारों में उन्होंने अपनी तरह से जान डाल दी। 'गुलाबो सिताबो' पिछले वर्ष आई थी जिसमें उन्होंने फातिमा बेगम उर्फ फत्तो का किरदार निभाया था।
15 अक्टूबर को वह हमारे बीच से चली गईं लेकिन ऐसा महसूस होता है कि यह उनका स्थायी प्रस्थान नहीं बल्कि यह अस्थायी उड़ान जैसी है। उनकी तमन्ना थी कि वह पर्दे पर इस्मत चुगताई का किरदार निभाएं। यह उनका ड्रीम रोल था। लेकिन उनका सपना पूरा नहीं हो सका।
सबसे पहले 'पीपली लाइव' फिल्म ने सिनेमा प्रेमियों के मन में उनके प्रति उत्सुकता जगाई, हालांकि यह उनकी पहली फिल्म नहीं थी। बड़े पर्दे पर उनकी पहली फिल्म मुजफ्फर अली की 'उमराव जान' थी। इस फिल्म की शूटिंग उनके ही शहर लखनऊ में हुई थी। इस फिल्म में उन्होंने उमराव की मां का किरदार निभाया था। जब मैं सन 2013 में लखनऊ में उनके घर गई तो साक्षात्कार के दौरान उन्होंने 'उमराव जान' फिल्म का जिक्र कुछ इस तरह से किया- "फिल्मी दुनिया की सैर का पहला जीना।" उन्होंने हाल ही में बुद्धदेव दासगुप्ता की फिल्म 'अनवर का अजीब किस्सा' और प्रवीण मोरछले की 'बेर्फुट टु गोवा' की शूटिंग पूरी की थी। प्रवीण मोरछले की इस दुर्लभ फिल्म में उस बातूनी महिला के लिए कोई संवाद नहीं था। अपने फिल्मी सफर में उन्होंने 'सुलतान', 'फोटोग्राफ', 'चक्रव्यूह', 'सीक्रेट सुपरस्टार', 'तनु वेड्स मनु' आदि फिल्मों में काम किया। इनमें से अधिकतर फिल्मों में वह दिल से जवान थीं या फिर युवाओं की दोस्त।
लेकिन 'गुलाबो सिताबो' में उऩकी भूमिका के बाद से घर-घर में उनकी चर्चा होने लगी। इस फिल्म में उन्हें सहायक अभिनेत्री का फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला। 88 वर्ष की उम्र में यह पुरस्कार हासिल करने वाली वह सबसे उम्रदराज कलाकार थीं। आगे प्रदर्शित होने वाली फिल्म 'मेहरुनिसा' में उन्हें एक ऐसे बुजुर्ग इंसान का किरदार को निभाने का मौका मिला जो कलाकार बनना चाहती है। साफ है कि जफर के लिए उम्र हमेशा मात्र संख्या भर ही रही। आप किसी चीज के लिए कभी बहुत युवा या बूढ़े नहीं हो सकते।
जफर सन 1933 में जौनपुर जिले के चकेसर गांव में पैदा हुई थीं। प्रसिद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी सैयद मुहम्मद जफर के साथ विवाह के बाद वह लखनऊ आ गईं। इस शहर से वह मोहब्बत करने लगीं और इसी शहर ने सिनेमा के प्रति उनके प्रेम को हवा दी जो सिनेमाघरों में जाकर परवान चढ़ा। लखनऊ उनका स्थायी निवास रहा। इस शहर के पुराने जमाने के आकर्षण, शिष्टाचार और मूल्यों ने उन्हें बहुत प्रभावित किया।
वह लखनऊ विश्वविद्यालय में रंगमंच और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पूरे उत्साह के साथ भागीदारी करती थीं। रेडियो में भी उनका कॅरियर बहुत ही सफल रहा। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने बताया था, "मुझे दुर्घटनावश ही रेडियो में नौकरी मिल गई और फिर मुझे अनगिनत लोगों से बातचीत करने का विचार पसंद आया। इनमें से कुछ लोगों को मेरी आवाज से मोहब्बत हो गई।"
किसी इंसान के लिए जिंदगी आधी-अधूरी नहीं होती और जफर ने अपने जीवन को सब कुछ दिया और उसे भरपूर तरीके से जिया। वह फिल्म इंडस्ट्री में बहुत ही वरिष्ठ कलाकार थीं, इसके बावजूद उनमें अंत तक एक बच् की चे तरह जिज्ञासा और उत्साह बना रहा। उन्होंने अपने भीतर से उस बचपन को कभी भी नहीं जाने दिया। उम्र के इस पड़ाव में भी उनमें गजब की ऊर्जा और जीवंतता थी। पिछले वर्ष एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था, "मैं उम्र या आर्थिक स्थिति के बावजूद जीवन में भरपूर आनंद लेने में विश्वास करती हूं।"
बड़वई के ग्रामीण उन्हें अपनों की तरह याद कर रहे थे। जफर ने शूटिंग को एक सामुदायिक अनुभव में बदलने में मदद की थी। कलाकार और क्रू के लोग उनके पेशेवराना तौर- तरीकों के बारे में बातें करते रहे थे। उस वक्त 70 के दशक के उम्र के पड़ाव के बावजूद वह ऑडिशन और वर्कशॉप के थका देने वाले दौर से गुजरीं। 'पीपली लाइव' फिल्म में उनकी साथी कलाकार शालिनी वत्स उनको याद करते हुए कहती हैं कि उऩ्होंने अपनी उम्र को कभी अपने रास्ते में नहीं आने दिया। बहुत वरिष्ठ होने के बावजूद उन्होंने दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया। इस फिल्म में शालिनी वत्स ने अम्मा के बहू का किरदार निभाया था। वत्स कहती हैं कि उनके साथ काम करना बहुत ही मजेदार था। जिस दिन वत्स अनिंदा की चपेट में आ जातीं तो जफर उन्हें वे कहानियां सुनातीं जो उन्होंने रेडियो के लिए लिखी थीं। जफर के निधन के बाद वत्स ने फेसबुक पर लिखा, "मैं कहानियों के बीच में ही सो जाऊंगी। मैं अगले दिन आप से कहूंगी कि 'कल वाली कहानी तो पूरी नहीं हुई' और आप कहेंगी, कहानी को छोड़ो, तुम्हें नींद आ गई, वह ही सबसे जरूरी है'!" वत्स ने लिखा, "जितना मैंने आपके और आपकी जिंदगी के बारे में जाना जिसे आपने बहुत ही उदारता के साथ साझा किया, उतनी ही मैंने आपकी प्रशंसा की। मुझे यह सब याद है और हमेशा रहेगा।" जैसा कि वत्स ने स्ह और सम ने ्मान के साथ कहा, "वह बहुत उदार, प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष थीं। उनकी जैसी महिलाओं ने हम लोगों की पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया है।"

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