छोटी होती रोटी को चोखे का धोखा

जागरण संवाददाता, सुपौल : देर शाम बाद सर्द होती जा रही रात सुबह होने तक शरद ऋतु का एहसास कराने लगी है। उबासी आने पर गाहे-बेगाहे मुंह से भाप भी निकलने लगा है। मॉर्निंग वॉक पर निकले बुजुर्गों के गले से लिपटा गमछा भले ही नाक तक चढ़कर मास्क का रूप अख्तियार किए हो लेकिन कान को भी बांधे होने के कारण यह जल्द ही ठंड के आने के संकेत भी देने लगा है। इसके बाद जब दिन निकलता है तो पूछिए मत। अक्टूबर की यह गर्मी बुजुर्गों में भी चर्चा का विषय है। मॉर्निंग वॉक पर निकले सिंह साहब ने जब गुप्ताजी से यह सवाल दागा कि भला अक्टूबर में इतनी गर्मी हो। आपने देखा था कभी। तो इसका जवाब देने के बदले गुप्ताजी ने भी सवाल दाग दिया कि चुनाव का समय चल रहा है आलू 40 रुपये और प्याज 50 रुपये किलो हो और चुनाव में इसपर चर्चा नहीं हो, यह मुद्दा नहीं हो आपने कभी देखा था। अरे अब तो छोटी होती रोटी को चोखा भी धोखा दे रहा है और इसपर कोई कुछ नहीं बोलता। छोटी होती रोटी को चोखे का धोखा की बात सिंह साहब के दिमाग से बाहर हो रहा है यह उनके चेहरे का अंदाज से बयां करता देख गुप्ताजी ने इसे क्लियर किया। बोले कोरोना संक्रमण को लेकर उनके बेटे का दिल्ली में रोजगार बंद हो गया। वह घर बैठ गया है। अब मेरे पेंशन के पैसे से घर चल रहा है। सिंह साहब को छोटी होती रोटी का गणित तो समझ में आने लगा था। बातचीत चल रही थी और दोनों गांधी मैदान से टहलते-टहलते स्टेशन चौक पहुंच चुके थे। यहां सब्जीवालों की दुकान खुल गई थी। घर के लिए सब्जी भी लेनी थी सो दोनों सब्जी के तोल-मोल करने लगे। सब्जी वाले ने आलू-प्याज के साथ बैंगन का भी रेट बताया। यह तो आलू-प्याज से भी अधिक था। सब्जी वाले 60 रुपये किलो बताया। छोटी रोटी का गणित समझा चुके गुप्ताजी अब उन्हें चोखे का धोखा समझाने लगे। बोले चोखा या तो आलू या बैंगन का बनता है। कभी समय था जब चोखा गरीब परिवारों की मुख्य सब्जी होता था। इसे बनाने में खर्च भी काफी कम है बस आलू या बैंगन को आग में पकाया, थोड़ा नमक-तेल के साथ प्याज काटकर डाल दिया और चोखा तैयार हो गया। कहिए आज के समय में रोटी-चोखा खाना भी आसान है क्या। यह खाना खाने के लिए भी जेब में पैसे और मजबूत जिगर होना चाहिए। अब धूप की गर्मी बढ़ने लगी थी। दोनों साहब ने झोले में किलो आधा किलो आलू-प्याज लिया और घर की ओर रवाना हुए। उसी वक्त स्टेशन परिसर में किसी पार्टी के चुनाव प्रचार का भोंपू बज रहा था, जिसमें महंगाई की बात कहीं नहीं थी।

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