आज 66 साल की हो रहीं रेखा की पहली हिंदी फिल्म 'सावन-भादों' देखना कैसा अनुभव है?

बात एक किस्से से शुरू करते हैं. भानुरेखा गणेशन नाम की एक 12 साल की लड़की ने परिवार के तंग हालात से पार पाने के लिए फिल्मों में काम करना शुरू किया और उसकी पहली तेलुगु फिल्म 'रंगुला रत्नम' साल 1966 में रिलीज हुई. इसके बाद साल 1969 में, इस नन्ही अभिनेत्री को कन्नड़ फिल्म 'ऑपरेशन जैकपॉट नल्ली सीआईडी-999' में उस समय के टॉप हीरो राजकुमार के साथ लीड रोल करने का मौका मिला और यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही.

1969 में ही उसे हिंदी फिल्मों में भी ब्रेक मिला, फिल्म थी - 'अनजाना सफर'. इस फिल्म में लीड एक्टर बिस्वजीत के साथ भानुरेखा के किसिंग सीन ने खासा विवाद खड़ा कर दिया, जिसके बाद सेंसरशिप के पेंचों में उलझी 'अनजाना सफर' बॉक्स ऑफिस तक पहुंचने का अपना सफर दस सालों में पूरा कर पाई. और वह भी तब जब फिल्म का टाइटल बदलकर 'दो शिकारी' रखा गया. इधर तब तक भानुरेखा गणेशन, रेखा बन चुकी थीं और नवीन निश्चल के साथ 'सावन-भादों' में बतौर लीड एक्ट्रेस शानदार डेब्यू कर चुकी थीं. इसी के साथ भानुरेखा गणेशन की कहानी खत्म और बॉलीवुड की स्टाइल दीवा, वर्तमान में राज्यसभा सांसद, पद्मश्री रेखा की कहानी शुरू हो चुकी थी.
'सावन-भादों' में रेखा का एंट्री सीन उस जमाने के हिसाब से भी घिसा-पिटा यानी क्लीशे और क्रांतिकारी दोनों कहा जा सकता है. क्लीशे इसलिए कि पहले ही दृश्य में वे मटका लेकर पानी भरने जाती दिखाई पड़ती हैं और क्रांतिकारी इसलिए कि अगले ही पल इसी मटके से वे हीरो पर हमला कर चुके गुंडों को पीट-पीटकर मार भगाती हैं. ठुमक-ठुमक चाल के बाद धमक-धमक एक्शन करने वाली रेखा को देखते हुए, आपके अगले पंद्रह मिनट इस बात की तस्दीक करने में गुजरते हैं कि क्या ये सच में रेखा हैं! हो सकता है, आप उन्हें पहचानने के लिए होठों के ऊपर नजर आने वाला तिल भी ढूंढ़ने की कोशिश करें जो इस फिल्म में नदारद दिखता है.
पलकें भर-भर के आई-लाइनर और ढेर सारा ब्लश गालों पर लगाए रेखा, जब 'सुन सुन सुन, ओ गुलाबी कली' पर थिरकती हैं, तो पता चलता है कि क्यों उनकी पहली ही फिल्म के बाद केवल और केवल उनकी सेंशुअसनेस के चर्चे थे. आज के जमाने के हिसाब से भले ही यह वेशभूषा और मेकअप जरा ओवर लगे, लेकिन उस समय इसी ने उनका सेक्सी-सेंशुअस-दीवा का तमगा पक्का करने की शुरूआत की थी.
हालांकि यह बात पूरे यकीन से कही जा सकती है कि उस समय यह तमगा मिलने का भरोसा किसी और को तो क्या खुद रेखा को भी नहीं रहा होगा और इसकी एक वजह यह भी है कि वे उन दिनों अपनी गोरी बहन से अपनी तुलना करते हुए खुद को 'काली और बदसूरत' मानती थीं. लेकिन इसके बावजूद 'सावन-भादों' की चंदा को देखते हुए आपको जरा भी एहसास नहीं होता कि वे किसी तरह के एहसास-ए-कमतरी की शिकार हैं, शायद यह भी उनके कमाल की अभिनेत्री होने का एक इशारा था. आज इसे देखते हुए भले ही एक बार को आप रेखा को न पहचान पाएं, लेकिन यह बात जरूर कह सकते हैं कि इस सेक्सी बाला को तो सालों बॉलीवुड पर राज करना ही था.
आज एनिग्मैटिक ऑइकन कहकर संबोधित की जाने वाली रेखा 'सावन-भादों' में सीधी-सादी गांव की गोरी बनी नजर आती हैं. उनमें रहस्य-सुंदरी होने वाली कोई बात होगी, इसका जरा भी अंदेशा नहीं होता. हां, पटर-पटर बोलने वाली लड़की के इस किरदार में वह अभिनेत्री जरा-जरा नजर आती है जो बड़ी अदा से आहें भरकर, ठहर-ठहर बोलती है. खासकर संवाद खत्म करते हुए, झटका देने वाला 'उमराव जान' मार्का अंदाज आप उनके बोलने में महसूस कर सकते हैं. यह क्यों खास है, इसका तब अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता था क्योंकि इसके लिए उनकी 'इजाजत', 'सिलसिला', 'खून भरी मांग' जैसी फिल्मों का आना जरूरी थी.
बहुत कमाल का अभिनय ना करने के बावजूद रेखा 'सावन-भादों' में इतना प्रभावित कर जाती हैं कि इस बात पर आश्चर्य नहीं होता कि उन्हें इंडस्ट्री में एक से एक बढ़िया काम कैसे मिलता गया. फिर भी यह कहना बिल्कुल ज्यादा नहीं होगा कि 'सावन-भादों' की रेखा को देखकर इस बात का यकीन करना मुश्किल होता है कि वे भविष्य में कई फिल्मफेयर पुरस्कारों समेत राष्ट्रीय पुरस्कार कैसे जीत गईं. इसे देखते हुए आपको समझ में आता है कि बाद के सालों में उन्होंने कैसे अपने आपको अंदर-बाहर दोनों तरह से बदल लिया है. शायद यही वो बदलाव है जिसका क्रेडिट वे अमिताभ बच्चन को दिया करती हैं, जिनसे प्यार करने का दम वे ताजिंदगी भरती रही हैं. और इन्हीं की बदौलत वे स्टाइल दीवा या एनिग्मा जैसे संबोधन की हकदार बन पाई हैं.
चलते-चलते रेखा से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा. लेखक और पत्रकार दिनेश रहेजा एक आलेख में बताते हैं कि जब भी रेखा को फोन किया जाए, फोन रिसीव जरूर होता है और बात भले ना हो, अलग-अलग तरह के जवाब जरूर मिलते हैं. कई बार फोन पर 'छुटकी' मिलती है जो कहती है कि 'मेमसाब घर में नहीं है...' छुटकी के बारे में रहेजा को अंदेशा है कि वे खुद रेखा ही हैं जो फोन कॉल्स से बचने के लिए ऐसा करती हैं. 'सावन-भादों' देखते हुए रेखा में जो शोखी नजर आती है, उससे उनके असल जिंदगी में ऐसा कर सकने का यकीन होता है. और शायद यह भी एक खूबी है जिसके बूते वे हिंदी सिनेमा की सबसे रहस्यमयी सुंदरी बन पाई हैं.

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