विशेषज्ञों ने कोविड-19 संक्रमण (Covid-19 infection) के मद्देनजर इस साल सर्दियों में वायु प्रदूषण के स्तरों में संभावित बढ़ोत्तरी को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा चिंताजनक करार दिया है। उन्होंने आगाह किया है कि वायु प्रदूषण के उच्च स्तर का असर कोरोना से होने वाली मौतों की संख्या में और इजाफे (Higher levels of air pollution further increase the number of deaths from corona) के तौर पर सामने आ सकता है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो डॉक्टर संतोष हरीश का कहना है '' कोविड-19 संक्रमण के हालात बदतर होने के खतरे के मद्देनजर इस साल सर्दियों में वायु प्रदूषण के स्तरों में संभावित बढ़ोत्तरी पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा चिंता का सबब है। केंद्र तथा राज्य सरकारों को अगले दो महीने के दौरान इस मसले का प्राथमिकता के आधार पर समाधान करना होगा।''
भारत के नामी डॉक्टर्स के संगठन 'द डॉक्टर्स फॉर क्लीन एयर' के मुताबिक जहां वायु प्रदूषण की समस्या (Air pollution problem) गम्भीर होती है, वहां खासकर बच्चों और बुजुर्गों के फेफड़े कमजोर हो जाते हैं। उनके लिये कोविड-19 जानलेवा हो सकता है। ऐसे में सरकार को हर साल सर्दियों में विकराल रूप लेने वाली वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिये ठोस कदम उठाने ही होंगे, वरना इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ में कम्युनिटी मेडिसिन एंड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में एडिशनल प्रोफेसर डॉक्टर रवींद्र खैवाल के मुताबिक चीन और इटली में किए गए अध्ययनों से यह जाहिर होता है कि वायु प्रदूषण के उच्च स्तर का असर कोविड-19 से होने वाली मौतों में वृद्धि के रूप में सामने आ सकता है।
उन्होंने कहा कि पंजाब के किसानों ने चेतावनी दी है कि वह पिछले दिनों संसद में विवादास्पद तरीके से कृषि विधेयक पारित कराए जाने के विरोध में इस साल पराली जलाएंगे। इससे पहले से ही खराब हालात और भी बदतर हो जाएंगे। इससे किसानों समेत हर किसी की सेहत को नुकसान होगा।
सीईईडब्ल्यू और आईएआरआई के अध्ययन में भले ही वर्ष 2016 से 2019 के बीच खेतों में कृषि अवशेष या पराली जलाये जाने की दर में साल-दर-साल गिरावट दिख रही हो, मगर एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2018 और 2019 में सितम्बर और अक्टूबर के महीनों में पंजाब के 10 में से 5 जिलों में प्रदूषण के स्तर पिछले साल के मुकाबले अधिक ही रहे हैं। हरियाणा में इसकी तुलना करना मुश्किल है क्योंकि ज्यादातर कंटीनुअस एम्बिएंट एयर क्वालिटी मॉनीटरिंग सिस्टम (सीएएक्यूएमएस) तो वर्ष 2019 में ऑनलाइन हुए हैं। पीएम10 के लिये गुरुग्राम और पीएम2.5 के लिये फरीदाबाद, गुरुग्राम, पंचकुला और रोहतक को छोड़ दें तो वर्ष 2018 में हरियाणा के अन्य जिलों में वायु प्रदूषण के स्तर सम्बन्धी आंकड़े (Air pollution level data) मौजूद नहीं हैं। यह अध्ययन अरबन साइंस ने कराया है।
भारत में खेती का शुद्ध रकबा ( Net area of cultivation in India ) 141.4 मिलियन हेक्टेयर है। विभिन्न फसलों की कटाई से खेत के अंदर और उनके बाहर भारी मात्रा में कृषि अवशेष (पराली) निकलते हैं। भारत में निकलने वाली पराली की सालाना अनुमानित मात्रा ( Estimated annual quantity of straws originating in India ) लगभग 60 करोड़ टन है। इसमें उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है। यहां कुल बायोमास का 17.9% हिस्सा निकलता है। इसके बाद महाराष्ट्र (10.52%), पंजाब (8.15%), और गुजरात (6.4) प्रतिशत की बारी आती है।
एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर साल 14 करोड़ टन कृषि अवशेष (Agricultural waste) जलाए जाते हैं। यह पराली खरीफ की फसल की कटाई के दौरान निकलती है। इसे जलाए जाने से उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में जबरदस्त वायु प्रदूषण (air pollution) फैलता है।
एक अनुमान के मुताबिक हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में हर साल तीन करोड़ 90 लाख टन भूसा जलाया जाता है।
1980 के दशक के शुरू में फसल उगाने की तर्ज में व्यापक बदलाव और भूगर्भीय जलस्तर में खतरनाक दर से गिरावट साफ नजर आने लगी थी। हालांकि पंजाब ने सूरजमुखी और मक्का की फसलों की खेती को बढ़ावा देकर विविधता लाने की कोशिश की, लेकिन किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा के चलन के मद्देनजर धान की रोपाई को तरजीह दी। उसी समय खेती के लिए मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने की नीति ( Policy to provide free electricity for farming ) की भी खासी आलोचना की गई क्योंकि मुफ्त बिजली मिलने से भूगर्भीय जल का और ज्यादा दोहन होने लगा। पंजाब में एक किलोग्राम चावल पैदा करने के लिए 5337 लीटर पानी की जरूरत होती है। जाहिर है कि पंजाब भूगर्भीय जल का जबरदस्त दोहन कर रहा है।
भूगर्भीय जलस्तर में खासी गिरावट के मद्देनजर राज्य सरकार ने अत्यधिक दोहन में कमी लाने और धान की रोपाई में देर करने के लिए एक प्रशंसनीय नीति लागू करके अप्रैल-मई की छोटी अवधि में उगाई जाने वाली साथी फसल पर रोक लगा दी। पानी बचाने की फौरी जरूरत के मद्देनजर पंजाब और हरियाणा सरकार ने वर्ष 2009 में 'पंजाब प्रिजर्वेशन ऑफ़ सबसॉयल वॉटर एक्ट' ( Punjab Preservation of Subsoil Water Act ) और 'हरियाणा प्रिजर्वेशन ऑफ सबसॉयल वाटर एक्ट' ( Haryana Preservation of Subsoil Water Act ) लागू किया। इसके जरिए मानसून की शुरुआत से पहले धान की रोपाई पर प्रतिबंध लगाया गया ताकि भूगर्भीय जल को बचाया जा सके। इन नीतियों की वजह से धान की रोपाई का समय 1 जून से आगे बढ़कर 20 जून हो गया (प्रदेश में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो यह घटकर 13 जून हो गया)। धान की रोपाई में की गई इस करीब एक पखवाड़े की देर से पंजाब ने 2000 अरब लीटर पानी बचाया। धान की रोपाई में एक पखवाड़े की देर से फसल कटाई में निश्चित रूप से विलंब हुआ है लेकिन इससे ऐसे समय में पराली जलाने पर भी रोक लगी है जब दिल्ली एनसीआर के इलाकों में हवा की रफ्तार मद्धिम हो जाती है।
इस बीच, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-कानपुर ( Indian Institute of Technology-Kanpur) की अगुवाई में सेटेलाइट डाटा के इस्तेमाल से किए गए एक अध्ययन से यह जाहिर होता है कि पराली जलाने के समय में करीब 10 दिन की देर होने से वर्ष 2016 में मॉनसून के बाद के मौसम में (दिल्ली के ऊपर 3%) हवा की गुणवत्ता को बदतर होने से रोकने में कुछ मदद जरूर मिली (दिल्ली के ऊपर 3%)। हालांकि अगर पराली जलाने के काम को और ज्यादा टाला जाएगा तो दहन स्रोत क्षेत्र (जैसे कि लुधियाना) और दिल्ली के लिए हवा की गुणवत्ता क्रमशः 30% और 4.4% और खराब हो सकती है। पूर्व के वर्षों के हालात, पराली जलाने के समय में बदलाव के पड़ने वाले असर में खासी अंतर वार्षिक परिवर्तनशीलता को उजागर करते हैं। साथ ही पीएम 2.5 के संकेंद्रण की तीव्रता और दिशा ( The intensity and direction of concentration of PM 2.5) भी मौसम संबंधी खास हालात पर निर्भर करते हैं, इसलिए मॉनसून के बाद सिंधु गंगा के मैदानों में वायु की गुणवत्ता ( Air quality in Indus Ganga plains after monsoon ), मौसम विज्ञान और उत्तर-पश्चिमी भारत के खेतों में जलाई जाने वाली पराली की मात्रा के लिहाज से कहीं ज़्यादा संवेदनशील हो जाती है।
आईआईटीके ने यह अध्ययन यूनिवर्सिटी आफ लीसेस्टर, किंग्स कॉलेज लंदन पंजाब विश्वविद्यालय और पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ के सहयोग से कराया है। इस अध्ययन से यह जाहिर होता है कि मौसमी चक्र से इतर जलाई जाने वाली पराली की मात्रा और उसे जलाने के इलाके में पिछले करीब दो दशक के दौरान उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है। खेती का रकबा बढ़ने के सरकारी आंकड़ों में इसका अक्स नजर आता है। वर्ष 2009 में भूगर्भीय जल संरक्षण नीति ( Geological Water Conservation Policy ) लागू होने के बाद से कृषि अवशेष या पराली जलाए जाने के काम में देर संभव हुई है और इसकी वजह से भूजल स्तरों पर सकारात्मक असर भी पड़ा है लेकिन जलाई जाने वाली पराली की मात्रा में भी वृद्धि हुई है और मानसून के बाद वायुमंडलीय गतिशीलता से बहुत ज्यादा प्रभावित होने की वजह से इसमें साल दर साल अतिरिक्त बदलाव हो रहा है। हवा की गति बहुत धीमी हो जाने की वजह से मौसमी वायु संचार की रफ्तार बहुत कम हो जाती है जिसकी वजह से वायु को प्रदूषित करने वाले तत्व ( Air pollutants ) हवा की सतह पर ठहर से जाते हैं और इसी बीच पराली जलाए जाने की वजह से निकलने वाले प्रदूषणकारी तत्व पूरे सिंधु गंगा के मैदान की फिजा में पीएम2.5 की परत चढ़ा देते हैं।
वर्ष 2014 में कृषि मंत्रालय ने नेशनल पॉलिसी फॉर मैनेजमेंट ऑफ क्रॉप रेसिड्यू (-National Policy for Management of Crop Residue- एनपीएमसीआर) नामक नीति बनाई थी और इससे सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों को भेजा था।
नेशनल पॉलिसी फॉर मैनेजमेंट ऑफ क्रॉप रेसिड्यू के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं-
1)- कृषि अवशेषों के अनुकूलतम इस्तेमाल और खेत में ही उनके निस्तारण की प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना, 2)- कृषि पद्धतियों के लिए समुचित मशीनरी के उपयोग को बढ़ावा देना, 3)- राष्ट्रीय दूर संवेदी एजेंसी (एनआरएसए) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की मदद से पराली के निस्तारण पर नजर रखने के लिए सेटेलाइट आधारित प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल करना और 4)- इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए नए विचारों और परियोजना प्रस्तावों के लिए विभिन्न मंत्रालयों में बहु विषयक दृष्टिकोण और फंड जुटाकर वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना।
आर्थिक मामलों से जुड़ी एक कैबिनेट समिति ने मार्च 2018 में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में कृषि अवशेषों के खेत में ही निस्तारण संबंधी कृषि मशीनीकरण को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय सेक्टर स्कीम (Central sector scheme) के तहत 1151.80 करोड रुपए मंजूर किए थे, ताकि वायु प्रदूषण पर नियंत्रण हो और कृषि मशीनरी पर अनुदान (Grant on Agricultural Machinery) दिया जा सके। इसके परिणामस्वरूप जनवरी 2020 में 16000 'हैप्पी सीडर्स' सामने आए हैं।
हालांकि काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट एंड वाटर - Council on Energy, Environment and Water (CEEW) द्वारा कराए गए एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि हर साल 5683000 एकड़ क्षेत्र में पराली जलाई जाती है और इस रकबे में इस नुकसानदेह गतिविधि को रोकने के लिए करीब 35000 हैप्पी सीडर्स की जरूरत होगी। बहरहाल, कृषि अवशेषों के खेत में ही निस्तारण के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीन के निर्माण का कार्य वर्ष 2018 में मांग के मुकाबले काफी पीछे था। इन मशीनों की कोई मानक किराया दर नहीं है। इसके अलावा ऐसी प्रौद्योगिकियों की किराया दरें भी कुछ किसानों के लिये बहुत ऊंची हैं। विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि किसानों के लिए ऐसी मशीनों पर धन खर्च करना काफी महंगा साबित होता है जिन्हें साल के कुछ ही दिनों में इस्तेमाल किया जाता है और बाकी महीनों में वे बेकार खड़ी रहती हैं।
हालांकि वर्ष 2019 में सरकार की सोच बदली और उसने माना कि सिर्फ प्रौद्योगिकी उपायों से ही पराली जलाए जाने की समस्या से नहीं निपटा जा सकता। पंजाब और हरियाणा में सरकार ने एक नीति बनाई जिसके तहत किसानों को पराली नहीं जलाने और उसका वैकल्पिक तरीके से निस्तारण करने के लिए ढाई हजार रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशि उपलब्ध कराने की पेशकश की गई, मगर दुर्भाग्य से यह घोषणा नवंबर के आखिरी हफ्ते में की गई। उस वक्त तक काफी मात्रा में पराली जलाई जा चुकी थी। अनेक पंचायतों ने इसके दुरुपयोग की शिकायत की जिसके बाद इस साल इस योजना को पूरी तरह रद्द कर दिया गया।
हैप्पी सीडर्स क्या है - The Happy Seeder is a tractor-mounted machine that cuts and lifts rice straw, sows wheat into the bare soil, and deposits the straw over the sown area as mulch.
नीति विशेषज्ञों द्वारा बार-बार सुझाए जाने वाले दीर्घकालिक समाधान
विशेषज्ञों ने खेती के तौर-तरीके और तर्ज में विविधता लाने और बेतहाशा पानी की जरूरत वाली धान की फसल को छोड़कर मक्का अन्य फसलें उगाने को तरजीह देने की जरूरत पर जोर दिया है। पंजाब ने धान की जगह सूरजमुखी और मक्का की खेती करने की कोशिश की थी मगर यह प्रयोग बेहद अनमने ढंग से किया गया था, लिहाजा नाकाम साबित हुआ। द एनर्जी रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट (टेरी) के एक अध्ययन पत्र में कहा गया है कि सिंधु गंगा के क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों में रोटेशन का पुनर्मूल्यांकन ( Revaluation of rotation in crops ) करने की जरूरत है। इसके लिए किसानों को धान गेहूं फसल प्रणाली के अलावा अन्य फसल चक्र अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पंजाब और हरियाणा में भूगर्भीय जल संकट (Geological water crisis in Punjab and Haryana) को देखते हुए कृषि विविधीकरण की दिशा में प्रयास जारी हैं। यहां तक कि पंजाब के मुख्यमंत्री ने कहा है कि उनके राज्य में धान की फसल का कोई भविष्य नहीं है। विविधीकरण की इस कोशिश में कोविड-19 महामारी से पैदा हुई अव्यवस्था (Disorganization caused by COVID-19 epidemic) के कारण और तेजी आई है। जून-जुलाई में धान की रोपाई के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूर उपलब्ध न होने की वजह से मक्का और कपास जैसी वैकल्पिक फसलों की खेती के रकबे में और ज्यादा इजाफा हुआ है। इस रूपांतरण को बनाए रखना और इन फसलों को बाजार में न सिर्फ जगह दिलाना बल्कि उनके वाजिब दाम दिलाना भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। धान की फसल से दूरी बनाने का पैमाना, दायरा और टिकाऊपन भविष्य में पराली जलाए जाने के कारण होने वाले वायु प्रदूषण के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण निर्धारक हैं।
टेरी के एक अन्य अध्ययन पत्र 'अ फिसकली रिस्पांसिबल ग्रीन स्टिमुलस' में कृषि अवशेषों को बिजली बनाने में इस्तेमाल ( Agricultural residues used to make electricity ) किए जाने का सुझाव दिया गया है। इससे कृषि अवशेष के रूप में निकलने वाला कचरा एक वस्तु के तौर पर इस्तेमाल होगा और इसे बेचने से मिलने वाली कीमत से किसानों को खेत से पराली निकालने में होने वाले खर्च की भरपाई करने और कुछ पैसे बचाने में भी मदद मिलेगी। इससे खेत में पराली जलाए जाने से छुटकारा मिलेगा। उच्चतम न्यायालय ने भी पिछले वर्ष वायु प्रदूषण संकट से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए कुछ ऐसा ही सुझाव दिया था। कृषि अवशेषों को बिजली बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले कोयले के साथ मिलाकर उसके मूल्यवर्धन में प्रयोग किया जा सकता है। इनसे बनने वाली टिकिया (पैलेट) को औद्योगिक बॉयलर ( Industrial boiler ) में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा इन पैलेट को बिजली उत्पादन के लिए कोयले (ब्रिकेट) के साथ मिलाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है। नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) ने बताया है कि 10% से ज्यादा कृषि अवशेषों के ब्रिकेट को कोयले के साथ सफलतापूर्वक मिलाकर बिजली घरों में इस्तेमाल किया जा सकता है। ओपन टेंडर के जरिए पैलेट खरीदने वाले एनटीपीसी ( NTPC ) ने यह पाया है कि कैलोरीफिक वैल्यू के लिहाज से इन पेलेट्स की कीमत उस कोयले के बराबर ही है जिसे वह बिजली बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। यही वजह है कि कोयले की 10% मात्रा घटाकर उसके स्थान पर कृषि अवशेष से बनने वाले पेलेट्स जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत ( Renewable energy source ) का इस्तेमाल करने पर उनकी बिजली उत्पादन लागत ( Power generation cost ) में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई।
इसके अलावा तीसरा सुझाव भी बार बार दिया जाता है, जिसमें ईट भट्ठे जैसी कोयला आधारित औद्योगिक गतिविधियों में कृषि अवशेषों के विकेंद्रीकृत इस्तेमाल ( Decentralized use of agricultural residues in coal based industrial activities ) की बात कही गई है। भारत में ईंट-भट्ठा उद्योग कोयले का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसमें सालाना 6 करोड़ 20 लाख टन कोयले का इस्तेमाल होता है। आमतौर पर ईंट-भट्टे ऐसे स्थानों पर स्थित हैं जहां पराली जलाए जाने का चलन सबसे ज्यादा (असम, बिहार, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में देश के 65% हिस्से के बराबर ईंटें बनाई जाती हैं) है। ऐसे में अगर ईंट बनाने में कोयले के स्थान पर बायोमास ब्रिकेट का इस्तेमाल किया जाए तो कृषि अवशेषों की बहुत बड़ी मात्रा का सदुपयोग हो सकता है।
कृषि अवशेषों का इस्तेमाल ( Use of agricultural residues ) बिजली कृषि प्रसंस्करण और ग्रामीण स्तर पर विकेंद्रित कोल्ड स्टोरेज संचालन जैसी ट्रीजनरेशन एप्लीकेशंस के लिए बायोमास गैसीफायर को चलाने में भी किया जा सकता है। इससे किसानों को औद्यानिकी संबंधी फसलों को उगाने का विकल्प भी मिलेगा। अभी तक स्थानीय स्तर पर कोल्ड स्टोरेज की सीमित क्षमता की वजह से किसान ऐसी फसलें उगाने से बचते हैं। हालांकि बायोमास आधारित बिजली घरों ( Biomass-based power houses ) के लिए इस वक्त बाजार टुकड़ों में ही उपलब्ध है। पंजाब में इस वक्त बायोमास पावर प्लांट्स में 10 लाख मैट्रिक टन धान का भूसा इस्तेमाल किया जाता है। यह मात्रा हर साल निकलने वाले एक करोड़ 97 लाख मैट्रिक टन भूसे के मुकाबले काफी कम है।
कागज तथा कार्ड बोर्ड की फैक्ट्रियों में भी धान के भूसे का इस्तेमाल किया जा सकता है।
विशेषज्ञों की राय
काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरनमेंट वाटर में रिसर्च एनालिस्ट (Research Analyst in Council on Energy Environment Water) कुरिंजी के मुताबिक - पंजाब को पराली जलाने के चलन पर रोक लगाने के लिए बहुआयामी प्रयासों की जरूरत है। सरकार के रिकॉर्ड यह बताते हैं कि वर्ष 2018 में कुल दो करोड़ टन में से सिर्फ 11 लाख टन पराली का ही खेत के अंदर या फिर उसके बाहर निस्तारण किया जा सका था। वर्ष 2019 में सिर्फ 29.2 लाख हेक्टेयर रकबे में ही धान की फसल बोई गई जबकि वर्ष 2018 में यह रकबा 30.42 लाख हेक्टेयर था। पराली जलाने का चलन रोकने के साथ-साथ धान की फसल को छोड़कर अन्य फसलें उगाए जाने से पंजाब में भूगर्भीय जल स्तर में गिरावट की समस्या से निपटा जा सकता है। ऐसे में किसानों को कृषि अवशेषों के निस्तारण में आसानी पैदा करने के लिए अधिक कस्टम हायरिंग सेंटर स्थापित करने के साथ-साथ रेंटल मॉडल्स को भी प्रोत्साहित करना होगा। इसके अलावा दीर्घकाल में राज्य सरकार को फसल विविधीकरण पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा।
आईआईटी कानपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के मुखिया और एनसीएपी स्टीयरिंग कमेटी के सदस्य प्रोफेसर एसएन त्रिपाठी (Professor SN Tripathi, Head of Civil Engineering Department and Member of NCAP Steering Committee at IIT Kanpur) के मुताबिक
''उत्तर भारत खासकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पराली जलाए जाने के कारण वायु की गुणवत्ता पर पढ़ने वाले दुष्प्रभाव को कम करने के लिए एक बहुआयामी रणनीति की जरूरत है। इसमें किसानों को वैकल्पिक फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहन देने और बायोमास के कारोबार में फौरी सुधार लाने की जरूरत है। इसके अलावा गांव के स्तर पर विकेंद्रीकृत बायोमास आधारित ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि करने और वायु प्रदूषण के कारण सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में किसानों को बताने के लिए मुस्तैदी से कदम उठाने की जरूरत है। साथ ही साथ पराली जलाए जाने के खिलाफ कानून भी लागू किया जाना चाहिए। यह कोई विशिष्ट कदम नहीं है और अगर इन्हें साथ-साथ लागू किया जाए तो इनके सकारात्मक नतीजे निश्चित रूप से सामने आएंगे।''
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के फेलो डॉक्टर संतोष हरीश ( Fellow Dr. Santosh Harish of Center for Policy Research ) के मुताबिक -
''कोविड-19 संक्रमण के हालात बदतर होने के खतरे के मद्देनजर इस साल सर्दियों में वायु प्रदूषण के स्तरों में संभावित बढ़ोत्तरी पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा चिंता का सबब है केंद्र तथा राज्य सरकारों को अगले दो महीने के दौरान इस मसले का प्राथमिकता के आधार पर समाधान करना होगा। पंजाब और हरियाणा में हैप्पी सीडर्स जैसे प्रौद्योगिकी उपाय पहले से ही लागू किए जाने के मद्देनजर मुझे उम्मीद है कि इन उपकरणों का पराली जलाने की घटनाओं को न्यूनतम करने में प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा।''
द डॉक्टर्स फॉर क्लीन एयर (The doctors for clean air) में भारत के नामी डॉक्टर्स के संगठन के मुताबिक जहांवायु प्रदूषण की समस्या गम्भीर होती है वहां फेफड़ों खासकर बच्चों और बूढ़ों के फेफड़े कमजोर हो जाते है, उनके लिये कोविड-19 जानलेवा हो सकता है।
पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ में कम्युनिटी मेडिसिन एंड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ में एडिशनल प्रोफेसर डॉक्टर रवींद्र खैवाल (Dr. Ravindra Khaival, Additional Professor in Community Medicine and School of Public Health at PGIMER Chandigarh) के मुताबिक -
''कृषि अवशेषों को थर्मल पावर प्लांट में इस्तेमाल होने वाले कोयले के साथ मिलाया जाए तो यह ऊर्जा मांगों के 10% के बराबर का योगदान कर सकते हैं। चूंकि सरकार द्वारा लिए जाने वाले निर्णय जमीनी स्तर पर नहीं पहुंच पाते इसलिए किसानों को इस समाधान के बारे में जानकारी देने के लिए बहु-हितधारकों के जुड़ाव की जरूरत होगी। पंजाब और हरियाणा की सरकारें हैप्पी सीडर्स को सब्सिडी उपलब्ध कराती हैं लेकिन इससे इन मशीनों की कीमतों में भी साथ ही साथ बढ़ोत्तरी होती है, नतीजतन किसानों को सब्सिडी का लाभ कभी नहीं मिल पाता। पंजाब के किसानों ने चेतावनी दी है कि वह पिछले दिनों संसद में विवादास्पद तरीके से कृषि विधेयक पारित कराए जाने के विरोध में इस साल पराली जलाएंगे, लेकिन इससे किसानों समेत हर किसी की सेहत को नुकसान होगा। चीन और इटली में किए गए अध्ययनों से यह जाहिर होता है कि वायु प्रदूषण के उच्च स्तर का असर कोविड-19 से होने वाली मौतों में वृद्धि के रूप में सामने आ सकता है।