- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और चीन के रक्षामंत्री वेई फेंगहे की मास्को में दो घंटे बात हुई लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े रहे। फेंगहे कहते रहे कि वे चीन की एक इंच जमीन नहीं छोड़ेंगे और यही बात भारत की जमीन के बारे में राजनाथ भी कहते रहे। दोनों एक-दूसरे पर उत्तेजना फैलाने का आरोप लगाते रहे, फिर भी दोनों सारे मामले को बातचीत से हल करने की इच्छा दोहराते रहे। क्या आपने कभी सोचा कि दोनों देशों के नेता इस मुद्दे पर खोए-खोए- से क्यों लगते हैं?
जहां तक भारत का सवाल है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में चीन का नाम नहीं लिया। उन्होंने गलवान घाटी में शहीद हुए सैनिकों को भावभीनी श्रद्धांजलि दी, उनपर हुए हमले की भर्त्सना की लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि चीन ने हमारी सीमा में कोई घुसपैठ नहीं की और हमारी किसी चौकी पर कब्जा भी नहीं किया। तो फिर उनसे संसद में पूछा जाएगा कि आखिर झगड़ा किस बात का है? उनसे प्रश्न होगा कि क्या उन्होंने अपने सैनिकों को चीन की सीमा में घुसने का आदेश दिया था?
संसद में सरकार को बताना होगा कि गलवान में हुई मुठभेड़ का सच क्या है? क्या चीन ने गलवान घाटी में उसी तरह कब्जा कर लिया था, जैसे हमने चुशूल की टेकरियों पर कर लिया है? हो सकता है कि कब्जे की ये कार्रवाइयां वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ वाले उन इलाकों में हुई हों, जो दोनों तरफ खाली रखे जाते हैं। दूसरे शब्दों में दोनों देशों के बीच जो झंझट चल रहा है, वह नकली है, तात्कालिक है, आकस्मिक है और स्थानीय है। उसे अब दोनों देश बैठकर सुलझा सकते हैं।
जब बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के साथ सीमा-विवादों को कुछ ले-देकर सुलझाया जा सकता है तो चीन के साथ क्यों नहीं सुलझाया जा सकता है? यदि चीनी रक्षामंत्री हमारे रक्षामंत्री से बार-बार मिलने का अनुरोध कर सकता है और उनसे मिलने के लिए उनके होटल में आ सकता है तो सारे विवाद को आसानी से हल भी किया जा सकता है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यक्ष हैं।)