जहां आरा: शाहजहां की बेटी जो दुनिया की 'सबसे अमीर' शहज़ादी थी

वर्षों के निर्वासन के बाद मुग़ल शहज़ादी जहां आरा और उनके परिवार के दिन पलटे और उनके पिता बादशाह बन गए.

ये शहज़ादे ख़ुर्रम की ताजपोशी का दिन है और महल में तैयारियों की धूम है.
जहां आरा उस दिन के बारे में अपनी डायरी में लिखती हैं, "हम सब ने नए कपड़े पहने हैं. मैंने रेशमी अंगरखा पहना और गहरे नीले रंग का चुस्त पजामा जिस पर चांदी की ज़रदोज़ी का काम है.चांदी के काम वाला जालीदार दुपट्टा लिया है. रोशन आरा ने इसी डिज़ाइन का लिबास पहना है, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि,उनके लिबास का रंग चमकीला पीला और सुनहरा है. सती अल-निसा बेगम बैंगनी लिबास और सुनहरे पश्वाज में शानदार लग रही हैं."
"दारा, शुजा, औरंगज़ेब और मुराद ने लाला पजामे के साथ सुनहरे अस्तर वाले जैकेट पहन रखे हैं और उनके अलग-अलग रंग के कमरबंद हैं."
"सती अल-निसा ने गहने के बक्से खोले और हमें और रोशन आरा को गले के हार, चूड़ियां, कान के झुमके और पायलें दीं. लड़कों को मोतियों के हार, बाज़ूबंद, जोशन और अंगूठिया दी गई."
"माँ तो घंटों से तैयार हो रही थी और जब हमने उन्हें देखा, तो देखते ही रह गए क्योंकि वो कभी इससे अधिक राजसी और सुंदर पहले नहीं दिखी थीं."
"मुग़ल साम्राज्य के सभी महान बुजुर्ग दीवान-ए-आम में मौजूद हैं. महिलाओं के लिए पर्दे लगा दिए गए हैं. हम परदे के पास बैठ गए ताकि दरबार को देख सकें. जिनको मैं पहचान सकती थी, उन्हें पहचानने की कोशिश की. नाना आसिफ़ ख़ान सुनहरे पिश्वाज और कंधे पर लाल शॉल डाले नज़र आ रहे थे. अब्दुल रहीम ख़ान ख़ाना मेवाड़ के नौ जवान शहज़ादे अर्जुन सिंह के साथ बातचीत में व्यस्त थे. महाबत ख़ान अपनी सफ़ेद मूछों में अलग ही नज़र आ रहे थे."
"फिर मैंने ढोल की आवाज सुनी तो समझ गई कि अब मेरे पिता जी आ रहे हैं. उनका नाम इतनी उपाधियों और शिष्टाचारों के साथ लिया गया कि रोशन आरा बोल पड़ी, "मुझे नहीं पता था कि अब्बू के पास इतनी अधिक सारी उपाधि हैं." मैंने फुसफुसा कर कहा, "क्या आपको ऐसा लगता है कि उन्हें ये याद भी रहेंगे?"
जहां आरा आगे लिखती हैं , "पिता जी ने मुग़ल साम्राज्य के बेहतरीन जेवरातों से सजे गहने पहने हुए थे. उनके पिश्वाज सुनहरे रेशमी थे, जिस पर मोतियों और चांदी के धागों से काम किया गया था. हीरे वाले सरपेच थे (पगड़ी पर दो पंखों वाला एक आभूषण), गले में मोतियों की छह लड़ियों वाला हार और मोती कबूतर के अंडों के बराबर थे. बाज़ू पर उन्होंने बाजूबंद और जोशान पहन रखे थे और उंगलियों में अंगूठियां थीं.
वो लिखती हैं कि ताजपोशी की रस्म बहुत ही सादा थी. शाही इमाम ने उपदेश दिया और उन्हें दुआएं दी. फिर, एक के बाद एक, अपने पद के हिसाब से सभी अमीर (सरदार) आते रहे और उन्हें बधाई के साथ तोहफ़े देते रहे.
"वहां सोने की मुहरें, गहनों के बक्से, दुर्लभ और नायाब हीरे, मोती, चीन के कीमती रेशमी कपड़ों के थान, यूरोपीय इत्र और विभिन्न प्रकार के गहने रखे थे क्योंकि सरदारों को पता था कि पिता जी (बादशाह शाहजहां) को गहने पसंद हैं."
14 साल की उम्र में छह लाख का सालाना वजीफ़ा
"पिता जी ने बादशाह की हैसियत से पहला एलान किया. उन्होंने वहां मौजूद लोगों से कहा कि मां(शाहजहां की पत्नी) का ख़िताब (उपाधी) आज से 'मुमताज महल' होगा और उन्हें 10 लाख रुपये का वार्षिक वजीफ़ा दिया जाएगा. बेगम नूरजहां को दो लाख रुपये का वार्षिक वजीफ़ा दिया जाए, नाना आसिफ़ ख़ान अब पिता जी के प्रधान मंत्री बन चुके थे. उन्हें शाही लिबास दिया गया. महाबत ख़ान को अजमेर की जागीर दी गई. अर्जुन सिंह को सोने की मुहरें, जवाहरात और घोड़े दिए गए."
जिस चीज़ का जहां आरा ने उल्लेख नहीं किया है वो उनका अपना वज़ीफ़ा है. शायद ये एलान उस दिन न हुआ हो, क्योंकि ताजपोशी के साथ ही एक महीने के जश्न का भी एलान किया गया था. लेकिन उनके पिता और बादशाह शाहजहां ने उनके लिए छह लाख रुपये वार्षिक का वजीफ़ा तय किया था. इस तरह वो मुग़ल दौर की सबसे अमीर शहज़ादी हो गई थी जबकि उनकी उम्र सिर्फ़ 14 साल थी.
ध्यान रहे कि मुग़ल शासन के दौर में महिलाओं के बहुत कम नाम सामने आए हैं, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहां, मुमताज महल, जहां आरा, रोशन आरा और ज़ेबुन्निसा का नाम लिया जा सकता है.
उनमें भी दो, यानी नूरजहां और मुमताज महल तो मल्लिका रहीं और बाक़ियों की हैसियत जहां आरा के बराबर नहीं पहुंचती है क्योंकि रोशन आरा, किसी हरम की प्रमुख यानी बेगम साहिबा या पादशाह बेगम न बन सकीं.
जब जहां आरा की माँ की मृत्यु हुई तो वो उस समय सिर्फ़ 17 वर्ष की थी, और उसी समय से उनके कंधों पर मुग़ल साम्राज्य के हरम का भार आ गया. बादशाह शाहजहां अपनी पत्नी की मौत से इतने दुखी हुए कि उन्होंने एक तरह से एकांत का जीवन गुज़ारना शुरू कर दिया.
महबूब-उर-रहमान कलीम अपनी किताब 'जहां आरा' में लिखते हैं कि मुमताज महल की मौत के बाद, बादशाह ने शोक वाला काला लिबास पहन लिया था, लेकिन कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि उन्होंने बहुत ही सादगी को अपना लिया था और सिर्फ़ सफ़ेद लिबास में ही नज़र आते थे. हालांकि, उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद, उनकी दाढ़ी के बाल भी सफ़ेद हो गए थे.
शाहजहां ने ऐसी स्थिति में अपनी किसी दूसरी मल्लिका को महल के मामलों की ज़िम्मेदारी सौंपने के बजाय,अपनी बेटी जहां आरा को पादशाह बेगम बनाया और उनके वार्षिक वजीफ़े में चार लाख रूपये और बढ़ा दिए जिससे उनका वार्षिक वजीफ़ा दस लाख हो गया.
दिल्ली की जामिया मिलिया में इतिहास और संस्कृति विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉक्टर रोहमा जावेद राशिद ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि मुग़ल काल की दो महत्वपूर्ण महिलाएं नूरजहां और जहां आरा बेगम थीं.
वो मल्लिका ए हिन्दुस्तान तो नहीं थी, लेकिन अपनी माँ मुमताज़ बेगम की मौत के बाद से, वो पूरी ज़िन्दगी मुग़ल साम्राज्य की सबसे अधिक शक्तिशाली महिला रही हैं. उन्हें अपनी माँ की मृत्यु के बाद, पादशाह बेगम का ख़िताब (उपाधि) दी गई और हरम की पूरी ज़िम्मेदारी 17 साल के इन जवान कंधों पर आ गई.
दुनिया की सबसे अमीर महिला
उन्होंने बताया "जहां आरा अपने समय की भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सबसे अमीर महिला थीं और क्यों न हो, उनके पिता भारत के सबसे अमीर बादशाह थे. जिनके काल को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है."
मशहूर इतिहासकार 'डॉटर ऑफ़ द सन' की लेखिका, एरा मख़ोती बताती हैं: "जब पश्चिमी पर्यटक भारत आते, तो उन्हें ये देख कर आश्चर्य होता कि मुग़ल महिलाऐं कितनी प्रभावशाली हैं. इसके विपरीत, उस समय में ब्रिटिश महिलाओं के पास ऐसे अधिकार नहीं थे. वो इस बात पर हैरान थे कि महिलाएं व्यापार कर रही हैं और वो उन्हें निर्देश दे रही हैं कि किस चीज़ का व्यापार करना है और किस चीज़ का नहीं करना है.
जहां आरा की दौलत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके पास बहुत सी जागीरें थीं, जिस दिन उनके पिता की ताजपोशी हुई थी, उस दिन उन्हें एक लाख अशर्फियां और चार लाख रुपये दिए गए थे, जबकि छह लाख वार्षिक वजीफ़े का एलान किया गया था.
और उनकी माँ की मौत के बाद, उनकी सारी संपत्ति का आधा हिस्सा जहां आरा को दे दिया गया और बाकी का आधा हिस्सा दूसरे बच्चों में बांट दिया गया.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर एम.वसीम राजा उनकी दौलत के बारे में बताते हैं: "जब उन्हें पादशाह बेगम बनाया गया था,तो उस दिन उन्हें एक लाख अशर्फियां,चार लाख रुपये और इसके अलावा चार लाख रुपये वार्षिक की ग्रांट दी गई. उन्हें जो बाग़ दिए गए उनमे बाग़ जहां आरा, बाग़ नूर और बाग़ सफा अहम हैं. उनकी जागीर में अछल, फरजहरा और बाछोल, सफापुर, दोहारा की सरकारें और पानीपत का परगना दिया गया था. उन्हें सूरत का शहर भी दिया गया था जहां उनके जहाज़ चलते थे और अंग्रेजों के साथ उनका व्यापार होता था."
पंजाब हिस्टोरिकल सोसाइटी के सामने 12 अप्रैल, 1913 को पढ़े जाने वाले अपने शोधपत्र में, निज़ाम हैदराबाद की सल्तनत में पुरातत्व के निदेशक जी. यज़दानी ने लिखा है कि "इसी साल नवरोज़ के अवसर पर जहां आरा को 20 लाख के आभूषण और जवाहरात तोहफ़े में दिए गए."
उन्होंने आगे लिखा है कि 'जहां आरा सदन के समारोहों की भी ज़िम्मेदार होती थी, जैसे कि बादशाह के जन्मदिन और नवरोज़ आदि के अवसर पर,वही मुख्य कार्यवाहक होती. वसंत ऋतु में ईद-ए-गुलाबी मनाई जाती थी. इस अवसर पर, शहज़ादे और पदाधिकारी उत्तम जवाहरात वाली सुराही में बादशाह को अर्क़-ए-गुलाब पेश करते थे. एतदाल शबो रोज़ (यानी जब दिन और रात बराबर होते हैं) का जश्न शुक्रवार को मनाया जाता था. उस अवसर पर जहां आरा ने 19 मार्च 1637 को बादशाह को ढाई लाख का एक अष्टकोणीय सिंहासन दिया था."
इन सबसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके पास कितनी दौलत रही होगी.
आग से जलने की वो घटना
जहां आरा के जीवन में एक बड़ी घटना उस समय घटी जब वो जल गयी और लगभग आठ महीने तक बिस्तर में रहने के बाद, जब स्वस्थ हुईं तो बादशाह ने ख़ुशी से सल्तनत के ख़ज़ाने के मुँह खोल दिए.
6 अप्रैल 1644 को जब वो आग की चपेट में आई थीं, तो उनके ठीक होने के लिए एक सार्वजनिक उद्घोषणा की गई. ग़रीबों को प्रतिदिन पैसे बांटे जाते और बड़ी संख्या में कैदियों को रिहा किया गया.
शोधकर्ता ज़िया-उद-दीन अहमद अपनी किताब 'जहां आरा' में मोहम्मद सालेह के हवाले से लिखते है कि "बादशाह ने तीन दिनों में 15 हज़ार अशर्फियां और लगभग इतने ही रुपये ग़रीबों में बांट दिए. रोज़ाना एक हजार रुपये इस तरह से दान किए जाते थे कि रात में एक हजार रुपये जहां आरा के तकिये के नीचे रख दिए जाते थे और सुबह को ग़रीबों में बांट दिए जाते थे. वरिष्ठ अधिकारी जो घोटालों के आरोप में क़ैद थे उनको रिहा कर दिया गया और उनके 7 लाख रुपये तक के क़र्ज़ माफ़ कर दिए गए."
जबकि जी. यज़दानी लिखते हैं कि "जहां आरा के स्वस्थ होने पर आठ दिनों का जश्न मनाया गया था, उन्हें सोने में तोला गया और वो सोना ग़रीबों में बांटा गया. पहले दिन, शाहजहां ने शहज़ादी को 130 मोती और पांच लाख रुपये के कंगन तोहफ़े में दिए. दूसरे दिन सरपेच दिया गया जिसमें हीरे और मोती जड़े हुए थे.सूरत की बंदरगाह भी इसी अवसर पर दी गई जिसकी वार्षिक आमदनी पांच लाख रुपये थी."
जी. यज़दानी ने लिखा है कि न सिर्फ़ जहां आरा को बल्कि उनका इलाज करने वाले हकीम को भी माल और दौलत से भर दिया गया.
उनके अनुसार: "हकीम मोहम्मद दाउद को दो हज़ार पैदल और दो सौ घोड़ों की सरदारी मिली, पोशाक और हाथी के अलावा, एक सोने की काठी वाला घोड़ा, 500 तोले की सोने की मुहर और उसी वज़न का उस अवसर पर विशेष रूप से बनाया गया सिक्का भी दिया गया. एक ग़ुलाम आरिफ़ को उसके वज़न के बराबर सोना और पोशाक,घोड़े,हाथी और सात हज़ार रुपये दिए गए."
उनकी दौलत का उल्लेख करते हुए, महबूब-उर-रहमान कलीम लिखते हैं कि "शाहजहां ने अपनी प्यारी बेटी को बहुत बड़ी जागीर दी थी. इसके अलावा,जहां आरा को जो इनाम छोटे छोटे समारोह में मिलते थे उनकी कोई सीमा नहीं. जहां आरा बेगम की जागीर में उन्हें जो क्षेत्र दिए गए वो बहुत उपजाऊ थे. मलिक सूरत, जो एक बहुत समृद्ध प्रांत था, शाहजहां ने जागीर के रूप में उन्हें दिया था. उस समय उसकी वार्षिक आय साढ़े सात लाख थी. उसी के साथ उन्हें सूरत की बंदरगाह भी दी गई थी, जहां हमेशा विभिन्न देशों के व्यापारियों का आना जाना लगा रहता था. और इस वजह से उनके टैक्स में पांच लाख से कुछ अधिक रुपये आते थे. इसके अलावा, आजमगढ़, अंबाला, आदि जैसे उपजाऊ स्थान भी उनकी जागीर में शामिल थे."
लेकिन जहां आरा खुद को फ़क़ीर कहती थी. उनके जीवन में सादगी थी और परदे का बहुत ध्यान रखती थी. इसलिए कई इतिहासकारों के हवाले से डॉक्टर रोहमा बताती हैं कि जिस दिन वो जली थीं वो नवरोज़ के जश्न की रात थी (कुछ ने इसे उनका जन्मदिन कहा है) और जब आग लगी तो उन्होंने चीख़ पुकार नहीं की कहीं कोई मर्द उनको बचाने के लिए न दौड़ आये और वो दौड़ती हुई जनान ख़ाने में आई और बेहोश हो गईं.
उनकी आग को बुझाने में दो नौकरानियां भी घायल हो गईं, जिनमें से एक की मौत हो गई और जहां आरा के बीमार पड़ने से महल की दुनिया में अंधेरा सा छा गया.
महल की दुनिया,महिलाओं की दुनिया
जहां आरा की डायरी से पता चलता है कि उनसे बड़ी एक सौतेली बहन थी, लेकिन दूसरे सभी बच्चे शाहजहां को अर्जुमंद आरा यानी मुमताज महल के गर्भ से हुए.
महल का जिक्र करते हुए जहां आरा लिखती हैं, "महल के अंदर महिलाओं की दुनिया है. शहजादियां, रानियां ,दासियां, प्रशिक्षु, नौकरानियां, बावर्चिन, धोबिन, गायिकाएं, नर्तकियां, चित्रकार और दासियां स्थितियों पर नज़र रखती हैं और बादशाह को वहां की स्थिति से अवगत कराती रहती हैं.
"कुछ महिलाऐं शाही परिवार से शादी करके आई हैं. कुछ को उनकी सुंदरता के कारण शहज़ादों की पसंद पर हरम में लाया गया है, कई का जन्म हरम की चार दीवारों के भीतर हुआ है. कुछ महिलाओं का कहना है कि एक बार जब आप हरम में प्रवेश करते हैं, तो कोई भी आपका चेहरा नहीं देख सकता है. आप एक जिन्न की तरह गायब हो जाते हैं और कुछ दिनों के बाद आपके घर वाले भी आपकी सूरत भूल जाते हैं."
लेकिन जहां आरा के रूप और चरित्र को मुग़ल इतिहास में भुलाया नहीं जा सका और उनकी सुंदरता का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है. जहां आरा खुद ही बताती हैं कि एक दिन वो आलस में थी तो उनकी माँ ने उन्हें डांट कर कहा था कि कुछ करो क्या धोबिन की तरह गंदी पड़ी हुई हो. इस पर, उनके पिता शाहजहां ने कहा था, "अगर यह धोबिन होगी तो दुनिया की सबसे खूबसूरत धोबिन होगी."
जहां आरा एक जगह नूरजहां और अपनी माँ की सुंदरता की तुलना करते हुए लिखती हैं कि नूरजहां अपनी ऊँचाई और चेहरे की लंबाई के कारण माँ से अधिक आकर्षक और सुंदर दिखती थी. लेकिन वो कहती है कि उनकी माँ भी बहुत खूबसूरत थी और फूल की तरह खिलती थी जिसे हर कोई चाहे.
महबूब-उर-रहमान कलीम, बेगम साहिबा की सुंदरता के बारे में लिखते हैं कि :"जहां आरा बेगम मुग़लिया वंश में रूप और चरित्र के लिहाज़ से एक बेमिसाल बेगम थीं.वो बहुत ही खूबसूरत थीं."
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि रोशन आरा बेगम उस समय अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थीं, लेकिन डॉक्टर बर्नियर ने लिखा है कि "हालांकि रोशन आरा बेगम, उनकी छोटी बहन बहुत ही सुंदर है, लेकिन जहां आरा बेगम की सुंदरता इससे कहीं ज्यादा है. "
जहां आरा का वो स्थान था कि उनका अपना अलग एक महल था जहां वो रहती थी.
अनुवादक और इतिहासकार मौलवी ज़काउल्लाह देहलवी ने 'शाहजहां नामा' में लिखा है कि "जहां आरा बेगम का महल शाह शाहजहां के महल से सटा कर बनाया गया था. बेगम साहिबा का आकर्षक और आलीशान मकान आरामगाह से जुड़ा हुआ था और बहुत ही आकर्षक चित्रों से सजा हुआ था. इसके दरवाज़ों और दीवार पर उच्च कोटि की कारीगरी की गई थी. और जगह जगह कीमती जवाहरात ख़ूबसूरती से जड़े हुए थे. उसके आंगन के बंगले में जो यमुना के तट पर स्थित था दो कक्ष थे,और उन्हें बहुत अच्छी तरह नक़्शो निगार से सजाया गया था. ये इमारत तीन मंजिला ऊंची थी और उस पर सोने का काम किया हुआ था.
सूफ़ीवाद की ओर झुकाव
डॉक्टर रोहमा बताती हैं कि वो अपनी जवानी में ही सूफ़ीवाद के प्रति आकर्षित हो गई थीं, लेकिन जलने की घटना के बाद उनका जीवन और अधिक फ़क़ीराना हो गया था.
लेकिन उससे पहले, महबूब-उर-रहमान ने लिखा है कि पहले उनका जीवन जीने का तरीक़ा बहुत शाही था. डॉक्टर बर्नियर के हवाले से लिखते हैं कि 'उनकी सवारी बहुत ही शानदार तरीक़े से निकलती थी. वो अक्सर जूडोल पर निकलती थी, जो सिंहासन से मिलता जुलता था, और इसे कहार उठाते थे. इसके चारों तरफ़ चित्रकारी का काम किया गया था. और इस पर रेशमी परदे पड़े होते थे,और उनमे ज़री की झालरें और सुंदर फुंदने टंगे होते थे, जिससे इसकी ख़ूबसूरती दोगुना बढ़ जाती थी.'
'कभी-कभी जहां आरा बेगम ऐक लंबे और सुंदर हाथी पर सवार होकर निकलती थीं. लेकिन परदे की सख़्त पाबंद थी तो वो अक्सर मनोरंजन के लिए बहुत धूमधाम के साथ सैर बाग जाती थी.इसके अलावा उन्होंने शाहजहां के साथ कई बार दक्कन, पंजाब, कश्मीर और काबुल की सैर की. लेकिन हर परिस्थिति और हर मौके पर उन्होंने परदे का पूरा ध्यान रखा.ये सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं किया बल्कि मुग़ल वंश की सभी बेगम बहुत ही परदे वाली होती थीं.'
पर्यटक और इतिहासकार बर्नियर ने लिखा है कि: "किसी के लिए भी इन बेगमों के पास जाना संभव नहीं था.और ये लगभग असंभव है कि वो किसी इंसान को नज़र आ सकें, सिवाय उस सवार को छोड़कर जो ग़लती से इन बेगमों की सवारी के पास चला जाये. क्योंकि वो व्यक्ति कितने भी ऊंचे पद पर क्यों न हो,किन्नरों के हाथों से पिटे बिना नहीं रह सकता.
डॉक्टर रोहमा का कहना है कि इतिहास की किताबों में जहां आरा के जलने की घटना का विवरण तो मिलता है, लेकिन उनकी अन्य सेवाओं के बारे में खुलकर व्यक्त नहीं किया जाता है, जबकि वो मुग़ल साम्राज्य की बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली शख्सियत थीं.
उनकी ज्ञान मित्रता, सूफियों के प्रति उनका समर्पण, उनकी उदारता,दरबार में उनकी रणनीति और बागानों और वास्तुकला के प्रति उनका लगाव उनके विविध व्यक्तित्व की पहचान है.
जहां आरा ने दो किताबें लिखी हैं और दोनों ही फ़ारसी भाषा में हैं. उन्होंने 12 वीं और 13 वीं सदी के सूफ़ी हज़रत मोइनुद्दीन चिश्ती पर 'मोनिस अल-अरवाह' के नाम से एक किताब लिखी है.
सूफियों और संतों की बातों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. वो अपने शुरुआती दिनों में ही उन्हें समझ रही थी. वो शुरू में दारा और बाद में अपने पिता के साथ इससे विषय पर डिबेट करती थीं.
उन्होंने लिखा है कि एक बार जब वो दारा के साथ किताब वापस करने के बहाने हिंदुस्तान की मल्लिका नूरजहां से मिलने गई, तो वो ये जानकर हैरान रह गई कि नूरजहां ने उन्हें जो किताबें पढ़ने के लिए दी थी उनका नाम उन्हें याद था.
नूरजहां ने पूछा कि उन्हें फ़ैज़ी की किताब पसंद आई या हारून रशीद की कहानियां . जहां आरा ने जवाब दिया हारून रशीद की कहानियां. नूरजहां ने कहा कि वो उम्र के साथ शायरी का आनंद लेना शुरू कर देगी.
जहां आरा की शिक्षा घर में ही हुई थी और उनकी माँ की सहेली सती अल-निसा बेगम,(जिन्हें सदर अल-निसा के नाम से भी जाना जाता है) ने उन्हें शिक्षा दी. सती अल-निसा बेगम एक शिक्षित परिवार से थी और उनके भाई तालिब आमली जहांगीर के समय में मलिकुश्शुअरा (राष्ट्र कवि) की उपाधि से सम्मानित किये गए थे.
जब जहां आरा कुछ दिनों के लिए दक्कन में थी,तो उन्हें एक और महिला शिक्षक पढ़ाने के लिए आती थी. उनकी दूसरी किताब 16 वीं और 17 वीं सदी के कश्मीर के सूफ़ी मुल्ला शाह बदख्शी पर 'रिसाला साहिबिया' है.
डॉक्टर रोहमा बताती हैं कि जहां आरा से मुल्ला शाह बदख्शी इतने प्रभावित थे कि वो कहते थे कि, "अगर जहां आरा एक महिला न होती, तो वो उन्हें अपने ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) के रूप में नामित कर देते."
जहां आरा को औपचारिक रूप से मुरीद (शिष्य) बनने और अपने पीर (गुरु) के अनुसार जीवन जीने वाली पहली मुग़ल महिला होने पर गर्व था.
जहां आरा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पूरे शाहजहांनाबाद यानी दिल्ली का नक़्शा अपनी देख रेख में बनवाया था. कुछ इतिहासकारों का इस पर मतभेद है, लेकिन चांदनी चौक के बारे में किसी को आपत्ति नहीं है. यह बाज़ार उनके अच्छे शौक़ और शहर की ज़रूरतों की पहचान की निशानी है.
जहां आरा ने जो काम किए
इसके अलावा उन्होंने कई मस्जिदें बनवाईं और अजमेर में हज़रत मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर एक बारादरी का भी निर्माण कराया.
डॉक्टर रोहमा बताती हैं कि जब वो दरगाह पर आई, तब उन्हें ये बारादरी (बारह द्वारों वाला महल) बनाने का ख्याल आया था.और उसी समय उन्होंने सेवा भाव से इस बारादरी के निर्माण का संकल्प लिया. उन्होंने बहुत से बाग़ों का भी निर्माण कराया.
आगरा की जामा मस्जिद के बारे में, डॉक्टर रोहमा का कहना है कि ,"इसके बारे में विशेष बात यह है कि इसमें इबादत के लिए महिलाओं के लिए एक कमरा है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य दरवाज़े पर फारसी में एक शिलालेख है, जिसमें किसी मुग़ल बादशाह की तरह 'जहां आरा' की, उनकी आध्यात्मिकता और उनकी पवित्रता की प्रशंसा की गई है. यह एक तरह का क़सीदा पढ़ना है."
उन्होंने बताया कि "जहां आरा महिलाओं के लिए एक सार्वजनिक स्थान बनाने वाली पहली मुग़ल शहज़ादी है." उन्होंने कहा कि उन्होंने दिल्ली से सटे यमुना पार साहिबाबाद में बेगम का बाग़ बनावाया था.
इसमें महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित था बल्कि दिन भी आरक्षित थे ताकि वो स्वतंत्रता के साथ बाग़ की सैर कर सकें और वहां की ख़ूबसूरती का आनंद ले सकें.
डॉक्टर रोहमा कहती हैं कि मुग़ल काल में, महिलाएं, अपने सभी गुणों के बावजूद, इतिहास के पन्नों से ग़ायब हो गई हैं और इन पर अकबर के समय से ज़्यादा सख़्ती से अमल किया जा रहा है. यहां तक कि उनके नाम भी ज़ाहिर नहीं किये जाते.
इसका अहसास शायद जहां आरा को भी था. इसलिए जब वो अपनी परदादी, यानी जहांगीर की माँ और अकबर की पत्नी का उल्लेख करती हैं, तो कहती हैं कि वो एक हिंदू परिवार से आती है.
मुझे नहीं पता कि उनका असली नाम क्या है, लेकिन उनकी उपाधि से हम उन्हें जानते हैं और फिर वो कहती हैं कि वो हरम की सबसे सम्मानित महिला है.
इसलिए इतिहास में हम बेगम की सराय, बेगम के बाग, बेगम के महल, बेगम के स्नानागार, इस तरह के नाम देखते हैं. डॉक्टर रहीमा ने आगे कहा कि अजमेर में बेगम का दालान भी इसी की एक कड़ी है.
वो कहती हैं कि "जहां जहां बादशाह अपनी छाप छोड़ रहे थे, वहीं जहां आरा भी अपनी छाप छोड़ रही थी, चाहे वो अजमेर हो,आगरा हो या दिल्ली."
डॉक्टर एम. वसीम राजा ने बताया कि वो कश्मीर के सूफ़ी संत मुल्ला बदख्शी की निष्ठा में थी और कादरिया के साथ-साथ चिश्ती में भी विश्वास करती थी. एक समय में, वो चाहती थी कि उसका परिवार कादरी सिलसिले से संबंध जोड़े.
जहां आरा की राजनीति
जहां आरा को राजनीति की समझ उसी दौरान हो गई थी जब उसने महल में नूरजहां को देखा. वो उनसे बहुत प्रभावित थी.
इसलिए वो बताती है कि जब नूरजहां लेखागार में बैठी थी, तो उसने पूछा, 'क्या आप यह सब पढ़ोगी? यह तो बहुत ज्यादा है. ' नूरजहां ने जवाब दिया. हम इतने रोज़ाना पढ़ते हैं. नहीं पढ़ेंगे तो हम कैसे जानेंगे कि राज्य में क्या हो रहा है. ज़िल्ले इलाही चाहते हैं कि मैं सब कुछ ध्यान से पढ़ूं और अगर कुछ ग़लत हो तो उन्हें बता दूं.
दारा और मैं उत्साह में थोड़ा और आगे झुक गए. दारा ने पूछा कि क्या ग़लत हो सकता है. तो उन्होंने मेरी ओर देखा और कहा, 'तुम्हारे लिए यह जानने का समय आ गया है कि राज्य के मामले कैसे चलाये जाते हैं.'
उन्होंने एक रोल उठाया और खोला जिसमें बंगाल के गवर्नर की रिपोर्ट थी. उन्होंने लिखा था कि परगनों में अकाल के कारण किसानों से कोई कर नहीं वसूला जा सका. हम हैरान थे कि इसमें ग़लत क्या है.
"उन्होंने एक दूसरा रोल उठाया और कहा कि यह बंगाल में हमारे जासूस की रिपोर्ट है. जिसमें कहा गया है कि गवर्नर ने किसानों से कर एकत्र किया है और वो अकाल के बहाने राजस्व को अपने पास रखना चाहता है."
इससे पहले, जहां आरा बताती है कि किस तरह नूरजहां के पास शाही मुहर होती थी और जिस काग़ज पर वो उसे लगा दे वो बादशाह का फ़रमान हो जाता था.
इसलिए हम देखते हैं कि जब जहां आरा की माँ की मौत हो गई, तो उनका दर्जा इतना ऊँचा हो गया था कि उन्हें शाही मुहर भी दी गई थी.
बादशाह नामा के हवाले से जिया-उद-दीन अहमद ने लिखा है कि : "सन 1631-32 में जब यमीनुद्दौला आसिफ़ ख़ान,मोहम्मद आदिल ख़ान की बेदारी के लिए बाला घाट की मुहीम पर गए तो उन्होंने अपने जाने से पहले शाही मुहर बादशाह के सामने पेश की और जब तक प्रधानमंत्री नहीं आये वो जहां आरा के पास थी और वही शाही फ़रमानों पर मुहर लगाती रही."
उन्होंने नूरजहां के बाद अपनी माँ को भी ये काम करते हुए देखा था, लेकिन 17-18 साल की उम्र में इतनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी किसी प्रधानमंत्री के पद से कम नहीं है.
यद्यपि वो शहज़ादा दारा का समर्थन कर रही थी,लेकिन फिर भी औरंगज़ेब की नज़रों में उनकी प्रतिष्ठा कम नहीं हुई.
हालांकि, उनकी बहन रोशन आरा उनसे चिढ़ी रहती थीं.और उन्होंने उनके ख़िलाफ़ औरंगज़ेब के पास जाकर उनकी बुराई की, लेकिन जब उनके पिता शाहजहां का निधन हुआ, तो उन्होंने जहां आरा को अपने पास बुलाया और उन्हें फिर से पादशाह बेगम की उपाधि दी. जिस पर रोशन आरा और भी ज़्यादा चिढ गई. हालांकि, 1681 में उनकी मृत्यु तक ये पद उनके ही पास रहा.
जब वो बीमार हो गई और मौत के बिस्तर पर थीं, तो उन्होंने कहा कि उनकी क़ब्र सूफ़ी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास हो और अपने मज़ार के लिए उन्होंने जो शेर कहा, वो उनके मज़ार पर लिखा है और वो इस प्रकार है:
बग़ैर सब्ज़ा न पोशद किसे मज़ार मिरा
कि क़ब्र पोश ग़रीबां हमीं गयाह वो बस अस्त
यानी, मेरे मज़ार को सब्ज़े के अलावा किसी चीज़ से न ढको क्योंकि ग़रीबों के मज़ार के लिए यही घास काफी है.
और इस तरह मुग़ल साम्राज्य की सबसे अमीर शहज़ादी जो खुद को ग़रीब कहती थी, बिना मक़बरे के दुनिया से चली गई.
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source: bbc.com/hindi

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