'20 साल की उम्र में मैं दूसरी कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था..बाप की तो बिल्कुल भी नहीं'

नसीरुद्दीन शाह की जिंदगी का यह अध्याय उनके अभिनेता बनने के संघर्षों की बंबइया शुरुआत से बहुत पहले की कहानी बयां करता है. तब जब एक 19 वर्षीय नौजवान अभिनय के अपने सपनों को जीने के लिए कसमसा रहा था और पारिवारिक दबावों और अभिनय को बतौर एक करियर न देखने वाले समाज की धक्कामुक्की के बीच लिटरेचर की पढ़ाई करने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचा था. लेकिन यहीं पर पहुंचकर उसने पहली मर्तबा थियेटर को गंभीरता से लेना शुरू किया, नेशनल स्कूल आफ ड्रामा में जाने का सपना संजोया और अपने से 14 साल बड़ी पाकिस्तानी लड़की परवीन मुराद से शादी की. और एनएसडी पहुंचते ही पिता बना.

कम ही आधिकारिक आत्मकथाएं इतनी सच्ची और बेबाक होती हैं - फिल्मों से जुड़ी तो न के ही बराबर - जितनी नसीरुद्दीन शाह की 'एंड देन वन डे- अ मेमॉयर' थी. नसीर साहब के जन्मदिवस पर उसी किताब के तीन अध्यायों के संपादित अंश :
जब हम पहली दफा मिले परवीन 34 साल की थी और डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी. अपने उन्मुक्त ख्यालों और कई सालों से कैंपस में रहने के कारण वो यूनिवर्सिटी के अंदर एक जाना-पहचाना नाम थी. उसने पहले यहीं से बीएससी की, फिर पोस्ट ग्रेजुएशन और अब डॉक्टरी की पढ़ाई के पांचवें और अंतिम साल में ट्रेनिंग कर रही थी. लेकिन इतनी लंबी-चौड़ी पढ़ाई करने की वजह कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ हिंदुस्तान में लंबे समय तक रुके रहना था. परवीन पाकिस्तानी थी और पांच साल की उम्र से अपने पिता संग कराची में रहने के बाद अब अपनी मां के पास हिंदुस्तान आई थी. उसकी मां यूनिवर्सिटी में ही टीचर थीं और यहां उनकी काफी इज्जत थी. स्टूडेंट वीजा पर हिंदुस्तान आई परवीन उनके साथ रहने के मोह में एक के बाद एक डिग्रियां लेती जा रही थी. पिता के साथ ताल्लुकात ठीक नहीं थे और इसीलिए वो वापस लौटना नहीं चाहती थी. लेकिन डॉक्टरी की पढ़ाई खत्म होने को थी, इसके बाद कोई और कोर्स करने को नहीं था, और इसी के साथ उसका स्टूडेंट वीजा भी एक्सपायर होने वाला था.
वो मुझसे उम्र में बड़ी थी (तकरीबन 14 साल) और उस वक्त खुश भी नहीं दिख रही थी लेकिन मैं उसकी तरफ खिंच रहा था क्योंकि जिस तरह उसके बालों पर पड़कर धूप चमक रही थी, मुझे अच्छा लग रहा था
मुझे पहली ही नजर में वो भा गई थी. मैं तस्वीर महल मूवी हाउस के बाहर हमेशा की तरह फिल्मी पोस्टरों को निहार रहा था और वो जाहिर तौर पर किसी के आने का इंतजार कर रही थी. मुझे नहीं पता कि वो क्या था जिसने मुझे उसकी तरफ आकर्षित किया. वो देखने में बहुत खूबसूरत नहीं थी लेकिन उसके कपड़े पहनने का अंदाज मुझे भाया था, मुझसे उम्र में भी बड़ी थी (तकरीबन 14 साल) और उस वक्त खुश भी नहीं दिख रही थी. लेकिन मैं उसकी तरफ खिंच रहा था क्योंकि जिस तरह उसके बालों पर पड़कर धूप चमक रही थी, मुझे अच्छा लग रहा था.
परवीन और मैं जल्द ही दोस्त बन गए. वो 'द चेयर्स' नाम के नाटक की रिहर्सल में आई और पहले से तारूफ न होने के बावजूद हम अजनबियों की तरह नहीं मिले. गुजरते वक्त के साथ उसने मुझे सपने देखने के लिए प्रोत्साहित किया और यकीन दिलाया कि अभिनेता बनने का मेरा सपना सही राह पकड़ चुका है. वो हमेशा कहती कि मेरा व्यक्तित्व ऐसा नहीं है जो असफल हो जाए इसलिए मुझे अच्छा करना ही होगा. वो सिगरेट पीती और खूब हंसती, मुस्कुराती तो उसकी आंखें प्यारे अंदाज में सिकुड़ जातीं. उसे मेरा साथ पसंद था और वो मुझे ढूंढती थी ताकि हम साथ वक्त गुजार सकें. जल्द ही हम हर रोज शाम को मिलने लगे और मेरा इस अजनबी शहर में मौजूद रिश्तेदारों के यहां जाना लगभग बंद हो गया.
इसी दौरान मैंने कई विदेशी साहित्यकारों को पढ़ा और यूनिवर्सिटी के कुछ टीचरों की वजह से कई नाटकों में काम भी किया. इंग्लिश डिपार्टमेंट की जाहिदा जैदी ने खासकर मुझे शिक्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उनके साथ ही दिल्ली जाकर मैंने पहली दफा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में कुछ नाटक देखे. इससे पहले मैंने इस वृहद स्तर पर कभी नाटकों का मंचन नहीं देखा था और मेरे लिए यह एक फर्स्ट-क्लास थियेटर वर्क था, जिसमें उस स्तर की तकनीकी गुणवत्ता और चमक थी जो हिंदुस्तानी थियेटर में सिर्फ यहीं मिल सकती थी. ऐसी जगह पर काम करने का सोचकर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए और यह अविश्वास भी हावी होने लगा कि क्या ऐसी कोई जगह सच में हो सकती है जहां एडमिशन पा जाने के बाद मैं कई नाटकों में लगातार काम कर सकूंगा और 'सिर्फ यही' हमेशा कर पाऊंगा? आंखों देखा सबकुछ अवास्तविकता के करीब लग रहा था लेकिन वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों से बातकर यह बात मेरी समझ में आ गई कि वे सभी खास नहीं बल्कि मेरी ही तरह आम हैं, और सभी अभिनय को लेकर वही सपने देखते हैं जो मैं देखता रहा हूं.
इसी दौरान मैं अलीगढ़ में परवीन की मां के घर ही ज्यादातर रहने लगा और यूनिवर्सिटी के अपने हॉस्टल में जाना कम कर दिया. जिंदगी में पहली बार मुझे लगा कि मैं भी किसी फैमिली का हिस्सा हूं
इसी दौरान मैं अलीगढ़ में परवीन की मां के घर ही ज्यादातर रहने लगा और यूनिवर्सिटी के अपने हॉस्टल में जाना कम कर दिया. जिंदगी में पहली बार मुझे लगा कि मैं भी किसी फैमिली का हिस्सा हूं. ऐसा मुझे इससे पहले कभी नहीं लगा, अपने माता-पिता के घर में तो बिलकुल भी नहीं. मुझे पहली बार परवीन के रूप में वो साथी मिला जिसे मैं चाहता था और जिससे मैं प्रभावित रहता था और आखिरकार ऐसा भी कोई मिला जो मुझे भी चाहता हो. मुझे यहां सराहना मिली, प्यार-सम्मान भी और दोनों ने ही मुझे मेरे सपनों को हासिल करने के लिए प्रेरित किया. अगर उस वक्त इन दोनों महिलाओं को मुझपर विश्वास नहीं होता, तो शायद मैं एनएसडी में भर्ती के लिए अप्लाई करने की हिम्मत जुटा भी नहीं पाता.
लेकिन इसी दौरान वह हुआ जिसने न सिर्फ मेरा जीवन बदल दिया बल्कि पूरी यूनिवर्सिटी को भौंचक करने के अलावा लंबे वक्त के लिए मेरे माता-पिता को भी गहरे अवसाद में झोंक दिया. एक तरफ तो परवीन को लेकर मेरी भावनाएं प्यार की सीमा-रेखा पार करने लगीं थीं तो दूसरी तरफ उसकी ऊर्जा, उसका अनुभव, जिंदगी के प्रति उसका नजरिया और मुझे हमेशा तवज्जो देने की उसकी आदत से मैं इतना ज्यादा प्रभावित था कि न सिर्फ उसकी यह दोस्ती मुझे कृतज्ञता से भर देती बल्कि उसके प्रति मेरा प्यार भी बढ़ता जाता. यह पहली बार था जब मैं किसी की जिंदगी में अहमियत रखता था. उस वक्त मैं अपनी सारी जिंदगी इसी लड़की के साथ बिताना चाहता था और जानता था कि यही लड़की मुझे हमेशा खुश रखेगी. मैं उसे खुश रख पाऊंगा या नहीं, यह ख्याल मेरे मन में कभी आया ही नहीं. आखिर मैं 19 साल का था और उस वक्त मेरे लिए मेरी खुशी ही सबकुछ थी.
इसी बीच, एक सुबह, जब मैंने परवीन के घर का दरवाजा खोला तो बाहर सफेद शर्ट, खाकी पैंट और पुलिसिया भूरे जूतों में दो सज्जनों को खड़े पाया. 'सीआईडी', एक बोला. उन दिनों बांग्लादेश विवाद तेजी पकड़ रहा था और पाकिस्तान से हमारे रिश्ते खट्टे हो चले थे. दोनों मुल्कों में संदेह पसरा था और भारत में रहने वाले पाकिस्तानियों को हर हफ्ते पुलिस स्टेशन जाकर रिपोर्ट करना होता था. दोनों सज्जनों के चले जाने के कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि परवीन की हिंदुस्तान में रहने की मियाद खत्म होने को है और उसे एक महीने के भीतर पाकिस्तान लौटना होगा. नहीं तो वो कभी दोबारा भारत वापस नहीं आ पाएगी और हमेशा के लिए उसपर बैन लगा दिया जाएगा. उसके भारत में रुके रहने का एक ही तरीका था कि वो भारतीय नागरिक बन जाए और ऐसा उन मुश्किल हालातों में सिर्फ एक ही तरीके से मुमकिन था. अगर परवीन किसी भारतीय नागरिक से शादी कर ले. मुझे इसमें कोई अड़चन नजर नहीं आई. मैं एक भारतीय नागरिक था जो उससे बेहद प्यार करता था और आज नहीं तो कल, मशहूर होने के बाद, उससे शादी करने ही वाला था!
परवीन के भारत में रुके रहने का एक ही तरीका था कि वो भारतीय नागरिक बन जाए और ऐसा उन मुश्किल हालातों में सिर्फ एक ही तरीके से मुमकिन था. अगर परवीन किसी भारतीय नागरिक से शादी कर ले
हमने एक नवम्बर, 1969 को निकाह कर लिया. निकाह परवीन के घर पर ही उसकी मां और मेरे एक दोस्त की मां की गवाही में हुआ. मेरे बाबा और अम्मी को इस निकाह के बारे में कोई भनक नहीं थी और हम दोनों ने भी इसे दुनिया से छिपाकर रखा. लेकिन दुनिया को कमतर समझने की गलती हम कर बैठे. कुछ ही दिनों में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में यह खबर फैल गई और फिर अलीगढ़ होते हुए मेरठ पहुंची और वहां से मेरे वालिद के घर. बाबा और अम्मी फिर कई सालों तक नाराज रहे और उस साल मेरा और परवीन का ईद पर घर जाना भी कुछ खास काम न आया.
शादी के कुछ हफ्तों पहले ही परवीन ने ऐलान कर दिया कि वो मां बनने वाली है. ऐसा कुछ होगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. 20 साल की उस उम्र में मेरे अंदर बच्चों को लेकर कोई प्यार नहीं था. असल में सिर्फ खुद से प्यार था. एक नई जिंदगी को संभालने के लिए मैं तैयार नहीं था और बाद में किया किसी भी तरह का पछतावा मेरे उस असंवेदनशील बर्ताव की खामियाजा नहीं भर सकता जो मैंने हीबा के पैदा होने पर दिखाया.
इसी दौरान मेरा दाखिला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में हो गया और मैं शादी के बाद नौ महीने की गर्भवती परवीन को अलीगढ़ छोड़कर अकेला दिल्ली चला आया. मुझे एक नई आजादी मिली और इस तेज रफ्तार जिंदगी में मैं भूलने लगा कि मैं जल्द ही पिता बनने वाला हूं, जबकि न तो मैं आर्थिक रूप से मजबूत हूं और न ही मानसिक रूप से यह जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार.
शादी के कुछ हफ्तों पहले ही परवीन ने ऐलान कर दिया कि वो मां बनने वाली है. ऐसा कुछ होगा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था. 20 साल की उस उम्र में मेरे अंदर बच्चों को लेकर कोई प्यार नहीं था
वास्तविकता का थप्पड़ जल्द ही पड़ा जब हीबा का जन्म हुआ और मैंने उसे पहली बार देखा. मैं उसे छू नहीं पाया और जब वो सोकर उठी तो उसे हाथों में उठा भी नहीं पाया. मुझे बच्चे पसंद नहीं थे, क्योंकि वे शोर करते थे और गंदगी फैलाते थे. हीबा के पैदा होने पर मेरी तरफ से हटकर सबका ध्यान उसकी तरफ हो गया, परवीन का भी, और मैंने जिंदगी में पहली बार उस ईर्ष्या को भोगा जो सिर्फ आदमी के हिस्से में आती है. अपने बच्चे की वजह से उपेक्षित होने पर पैदा होने वाली ईर्ष्या.
हीबा के आने पर मैं और परवीन भी दूर होते गए. परवीन की जिंदगी अब हीबा थी और खुद में डूबे हुए मेरे जैसे इंसान की जिंदगी एक्टिंग. 21 साल की उम्र में मैं बतौर अभिनेता सिर्फ अपनी संतुष्टि तलाशने के प्रति आसक्त था और किसी भी तरह की जिम्मेदारी लेने से किनारा कर चुका था. बाप की तो बिलकुल भी नहीं. पहले हफ्ते दर हफ्ते अलीगढ़ जाना होता था जो धीरे-धीरे महीने में एक बार होता गया और रुकने का वक्त भी हर बार छोटा होता गया. फिर इतनी दूरियां बढ़ीं कि मैंने हीबा को अगले 12 साल तक नहीं देखा. मुझे नहीं पता कि मुझे किस तरह का आदमी समझा जाएगा अगर मैं कहूंगा कि मैं कई सालों तक हीबा के लिए कुछ भी महसूस नहीं कर पाया, लेकिन यह स्वीकार करना मेरे लिए जरूरी है. हीबा मेरी जिंदगी का कभी हिस्सा नहीं रही, जैसे कि वो मौजूद ही न हो.
बाद में परवीन और हीबा लंदन होते हुए ईरान बस गए और मैंने 12 साल बाद अपनी 14 साल की बेटी को तब देखा जब परवीन का फारसी में लिखा खत मिला. खत में लिखा था कि मेरी बेटी मुझसे मिलना चाहती है, अगर मैं इजाजत दूं तो. रत्ना पाठक और मैं तब तक शादी करके साथ रहने लगे थे और वो रत्ना ही थीं जिसने बाप-बेटी के इस टूट चुके रिश्ते को संभालने में मेरी मदद की. अब न सिर्फ हीबा हमारे साथ रहती है बल्कि एक सुलझी हुई अभिनेत्री होने के साथ हमारी थियेटर कंपनी मॉटली का भी अहम हिस्सा बन चुकी है. मुझे पता है कि मेरे दिए पुराने घावों के निशान पूरी तरह कभी नहीं मिटेंगे, लेकिन लगता है कि हीबा के पास इसकी शिकायतें कम हैं और इसका पूरा श्रेय रत्ना को जाता है.
(नसीरुद्दीन शाह की आत्मकथा 'एंड देन वन डे- अ मेमॉयर' 2014 में पेंग्विन इंडिया से प्रकाशित हुई थी)

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