नई दिल्ली : हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक अति महत्वपूर्ण संस्कार है 'विववाह'। हिंदू विवाह एक संविदा या अस्थाई बंधन नहीं है, अपितु एक धार्मिक संस्कार है जो प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है। विवाह के पश्चात मनुष्य जीवन विस्तृत क्षेत्र में पदार्पण करता है। परिवार व वंश की वृद्धि इसी के माध्यम से होती है। यह वह गुढ़ संबंध है जिसमें पुरुष और स्त्री को संतान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त है।हिंदू धर्मशास्त्रों में विवाह को धार्मिक संस्कार मानते हुए इसे स्वर्ग का द्वार कहा गया है।
इसमें धर्म का प्रधान स्थान होता है। विवाह हिंदू संस्कार का मुख्य अंग है। जिस तरह से शरीर की संरचना को सीधा रखने के लिए रीढ़ की की आवश्यकता होती है। ठीक उसी तरह मानव समजा को सही ढंग से संचालित करने के लिए विवाह की आवश्यकता होती है।यज्ञ, होम, वैदिकमंत्रों का पाठ, देवताओं का आह्वान, माता-पिता की रजामंदी ओर संगे-संबंधियों की उपस्थिति के मध्य वैवाहिक क्रिया सम्पन्न की जाती है। इस क्रिया से जहां दो अंजाने व्यक्तियों का जन्म-जन्मंतर का मिलन होता है।
दो जिस्म एक जान होते हैं और वे जीवन पर्यन्त सुख-दुख में एक दूसरे का साथ निभाने का संकल्प लेते हैं और जीवन रूपी रथ के दो पहिए बन कर अपनी सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों का सफलता पूर्वक संचालन करते हैं। हिंदू समाज में पत्नी के बिना कोई भी धार्मिक कार्य सम्पन्न नहीं हो पता। इसलिए वह धर्मपत्नी भी कही जाती है।
अत: विवाह गृहस्थ जीवन का मूल है।विवाह एक पवित्र यज्ञ है। विवाह न करना अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना है। जो व्यक्ति अविववाहित है उसे धर्म ग्रंथों में अपूर्ण कहा गया है। ववह किसी प्रकार का धार्मिक कार्य संपन्न नहीं कर सकता-रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि पत्नी के बिना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को तत्कालीन पुरोहितों ने अश्वमेघ यज्ञ करने से मना कर दिया था। परित्यक्तता पत्नी की कमी पूरी करने के लिए भगवान श्री राम को सीता की प्रतिमा प्रतिष्ठापित करनी पड़ी थी।
तब जा कर कहीं अश्वमेघ यज्ञ संपन्न हो पाया था।विवाह की पवित्रता का आंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राजा जनक ने पाणिग्रहण के समय सीता का हाथ राम के हाथ में देते हुए कहा था-' इदम् सीमयम धर्म चरितौ ।'वहीं महा भारत में पत्नी को पुरुष का आधा भाग यानि अर्धांगिनी और सच्चा मित्र कहा गया है।पाणिग्रहण के बाद सप्तपदी के समय धान का लावा वर-बधु के हाथ पर डालते समय पोरोि कहता है - जिस प्रकार भड़भूजे की भट्टी में पर भुनने के बाद भी धान की भूसी लावे को छोड़ती नहीं, ठीक उसी प्रकार पति व पत्नी को विपत्ति के समय एक दूसरे का हाथ थामें परिस्थितियों का धैर्य धारण कर सामना करना ।
दो स्थूल शरीरों का नहीं बल्कि दो आत्माओं के पवित्र बंध को विवाह कहते हैं। अत: यह एक महत्वपूर्ण संस्कार है। पति-पत्नी कालांतर में माता-पिता, दादा-दादी और नाना-नानी के रूप में अग्रसारित होते हैं और सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के निर्माण में अपना सक्रिय सहयोग देते हैं।धर्म सूत्रों में पत्नी को धर्म, काम और मोक्ष का मुख्य कारण बताया गया है। पत्नी के अभाव में न तो पितृ ऋण को चुकाया जा सकता है और न ही किसी तरह के धार्मिक कर्तव्यों को पूरा किया जा सकता है।
अविवाहित व्यक्ति का परिवार और समाज में कोई स्थान नहीं होता। साथ ही साथ उसे हमेंशा शंका की दृष्टि से देखा जता है।विवाह मुख्यत: जीवन के लंबे सफर में दो आत्माओं का अटूट सम्मिलन है। हजहां आत्माओं का यह सुंदर मिलन नहीं वह सफल विवाह भी नहीं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैकाइवर एपं पेज ने कहा है- ' हिंदू धर्म में विवाह मनुष्य की सामाजिक स्थितियों का निर्धारण करता है।
'श्री राम चरित मानस के 'बाल कांड' की एक कथा के अनुसार जनकपुर में सीता स्वयंवर के समय आमंत्रित राजा धनुष तोड़ने में असफल रहे तो सीता के विवाह को लेकर चिंतित जनक कहते हैंमर्यादित भारतीय समाज में पाश्चात्य संस्कृति का धब्बेदार लबादा ओढ़ कर चलने के कारण ही आज विवाह संस्कार विकार बनता जा रहा है। आंतरिक गुणों की अनदेखी कर युवा पीढ़ी बाहरी रंग-रूप में उलझ कर रह गया है। यह झुकाव जीवन के लिए अनिष्टकारी है।