अपने करियर में कई कामयाब औरतों की तरह सिमोन रैमोस को भी लगता है कि उन्हें कामयाबी की बुलंदी पर पहुँचने के लिए मर्दों की तुलना में अधिक मेहनत करनी पड़ी है.
सिमोन एक वैश्विक बीमा कंपनी में बड़े पद पर काम करती हैं. उनका कहना है कि मर्दों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में उन्हें हर रोज "अधिक मज़बूत और खुद से ही आगे निकलना पड़ा."
उन्होंने बीबीसी से कहा, "अपने करियर की शुरुआत में मुझे लगा कि मुझे दफ्तर छोड़ कर और अधिक पढ़ाई करने की जरूरत है. मुझे किसी भी दूसरे मर्द की तुलना में ख़ुद को तीन गुना ज्यादा साबित करने की जरूरत पड़ती थी."
इंश्योरेंस मार्केट में ब्राजील की महिला संघ की वो सलाहकार भी हैं. अक्टूबर में उनकी किताब भी आने वाली है. वो युवा महिलाओं से कहती हैं कि वे "फोकस, संकल्प और स्पष्ट उद्देश्य के साथ" ऊंचाई पर पहुँच सकती हैं.
लेकिन दूसरे विशेषज्ञों की तरह वो कोरोना महामारी के दौरान औरतों पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव और क्या ये उन्हें पीछे धकेल सकता है, इसे लेकर भी चिंतिंत हैं.
'दूसरी शिफ़्ट'
परिवार के साथ रहते हुए घर से काम करना मुश्किल है खास तौर पर जब आपके बच्चों के स्कूल भी घर से ही चल रहे हो और घर के दूसरे लोगों का भी ख्याल रखना पड़ रहा हो.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक अभी भी दो तिहाई देखभाल से जुड़ी जिम्मेवारियाँ महिलाएँ ही उठाती है.
मम्सनेट की सीईओ और संस्थापक जस्टिन रॉबर्ट्स कहती है, "इसमें कोई राज की बात नहीं कि महिलाएँ अभी भी बच्चों की देखभाल और घरेलू कामों की ज्यादातर जिम्मेवारियाँ संभालती हैं."
मम्सनेट पैरेंटिंग को लेकर ब्रिटेन की सबसे बड़ी ऑनलाइन कंपनी है.
जस्टिन कहती हैं कि यह वाकई में 'औरतों के ऊपर दबाव' बढ़ाने वाला और खास तौर पर मांओं पर 'बोझ' डालने वाला है.
वो बीबीसी से कहती हैं, "मांएँ इस बात को लेकर चिंतिंत रहती हैं कि वे ख़ुद को बेकार समझे जाने की जोखिम में डालती है और चूंकि वो ख़ुद को पहले की तरह ठीक से परफॉर्म करने में असमर्थ पाती है, इसलिए अपने आप को काम के दौरान पेरशानी में डालती है."
"अगर औरते ये महसूस करती भी हैं कि उनकी नौकरी और आमदनी सुरक्षित हैं तो भी कइयों को लगता है कि ऐसी स्थिति ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकती है."
सिमोन इस ओर ध्यान दिलाती हैं कि आम तौर पर औरतों को दफ्तर में काम ख़त्म करने के बाद घर में 'दूसरी शिफ़्ट' में काम करना पड़ता है.
अब इस महामारी के दौरान ज्यादातर ये महिलाएँ "एक ही वक्त में ये दोनों ही शिफ्टें करने की कोशिश कर रही हैं." इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है और वो नौकरी छोड़ने को लेकर विचार कर रही है या फिर छोड़ भी रही हैं.
'काम की जगह पुरानी हो चुकी है'
महिलाओं के लिए कार्यस्थलों की स्थिति बेहतर बनाने पर काम करने वाले एक एनजीओ कैटलिस्ट की डायरेक्टर एलिसन ज़िमरमैन कहती है, "हमें वाकई में इस बारे में सोचना होगा कि कार्यस्थलों पर महिलाओं को किन हालातों से गुजरना पड़ता है."
वो बीबीसी से बातचीत में कहती हैं, "मौजूदा सिस्टम पुराना पड़ चुका है. और अगर आप इस पर ध्यान दे तो कोविड के बाद कार्यस्थलों पर नए बदलाव व्यावसायिक संस्थानों के हित में होंगे."
कैटलिस्ट ने सालों तक एशिया, कनाडा, यूरोप और अमरीका में शीर्ष बिजनेस स्कूल के दस हज़ार एमबीए प्राप्त महिलाओं और पुरुषों के करियर पर नज़र रखा है.
इस अनुभव में उन्होंने पाया है कि कैसे मां बनने के बाद औरतों का अपने करियर को लेकर उत्साह प्रभावित होता है. लेकिन ऐसे भी पक्षपातपूर्ण कारण मौजूद हैं जो औरतों की प्रगति को उनके अनुभव के बावजूद धीरे करने की कोशिश करते हैं भले ही वो मां बनी हो या नहीं.
कैटलिस्ट के अध्ययन में आप इसका उदाहरण देख सकते हैं. इस अध्ययन के मुताबिक एमबीए करने के बाद निचले स्तर की पहली नौकरी ज्वाइन करने के मामले में महिलाओं पुरुषों की तुलना में आगे रहती हैं. इसके बाद जब पुरुष अपने करियर को आगे ले जान के लिए ज्यादा घंटों तक काम करते हैं तो यह उनके लिए तो कारगर साबित होता है लेकिन वहीं महिलाएँ ऐसा करती हैं तो उन्हें वो कामयाबी नहीं मिलती है.
पुरुषों को नौकरी बदलते ही सैलरी बढ़ाकर मिल जाती है लेकिन वहीं महिलाओं को अपने मैनेजर की नज़र में ख़ुद को पहले साबित करना पड़ता है.
एलिसन ज़िमरमैन कहती हैं, "महिलाओं को हमेशा अपना प्रदर्शन सुधारना पड़ता है लेकिन पुरुषों को उनकी क्षमता के आधार पर प्रमोशन मिलता रहता है."
वो आगे कहती हैं, "ऐसी धारणा है कि अगर महिलाएँ जो काम कर रही हैं वहीं काम पुरुष करता है, तो वो उसे ज्यादा अच्छे तरीके से करेगा लेकिन सच्चाई ऐसी नहीं है."
"पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अक्सर उच्च मापदंड तय किए जाते हैं. यह अवचेतन में बैठा एक पूर्वाग्रह है."
अर्थव्यवस्था का संकट इसे और मुश्किल बनाता है
एक अमरीकी अध्ययन में यह बात सामने आई है कि आर्थिक संकट के वक्त इस तरह के पूर्वाग्रह नए सिरे से और मज़बूती के साथ सामने आने लगते हैं.
इस अध्ययन के मुताबिक जब कंपनी मुश्किल हालात से गुजर रही हो तो फिर कंपनी के शीर्ष पदों पर जाने के लिए महिलाओं को और मुश्किल घड़ी से गुजरता पड़ेगा.
1100 कंपनियों के 50,000 बोर्ड चयनों के विश्लेषण के आधार पर अध्ययनकर्ताओं ने यह पाया है कि 2003 से लेकर 2015 तक शेयरधारकों को बोर्ड सदस्य के तौर पर महिलाओं को लेने में कोई खास परेशानी नहीं थी लेकिन जैसे ही कंपनी की स्थिति खराब होनी शुरू हुई वैसे ही उन्होंने महिला उम्मीदवारों पर भरोसा जताना छोड़ दिया.
अमरीका के पेनसिल्वानिया के लेहेई यूनिवर्सिटी की कोरिन पोस्ट बीबीसी से कहती हैं, "औरतों को लेकर जो पूर्वाग्रह है, उसे छोड़कर कोई दूसरी वजह इसके लिए ढूढ़नी मुश्किल है क्योंकि जितनी मेहनत से काम करनी चाहिए, उतनी मेहनत से महिलाएँ काम तो करती ही है."
शिकागो के यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलिनोइस के स्टीव सॉर्वल्ड बताते है कि कई अध्ययन इस बात की तस्दीक करते हैं कि विविधता से कंपनी के नतीजों में सुधार आता है. इससे कंपनी में धोखाधड़ी कम होने की संभावना बनती है और अधिक नैतिक व्यवहार अपनाया जाता है. इससे कंपनी को प्रतिस्पर्धी बाज़ार में दूसरी कंपनियों की तुलना में लाभ मिलता है.
कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी के अर्जुन मित्रा कहते हैं कि कंपनिया महिलाओं की प्रतिभा को उस वक्त दबा रही हैं जब महिलाओं के कुशल नेतृत्व में वो फायमें रह सकती हैं.
"इससे यह साफ पता चलता है कि कंपनियां महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिका में लेने को लेकर सकारात्मक रुख नहीं अपनाती हैं."
कम आय वाली महिलाएँ भी प्रभावित
पिछले पचास सालों में दुनिया में लैंगिक समानता को लेकर उल्लेखनीय सुधार हुए हैं लेकिन वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक महिलाओं और पुरुषों के बीच कार्यस्थलों पर जो फासला है, उसे पाटने में एक सदी और लगेगी.
कोविड-19 ने निम्न आय वर्ग की महिलाओं पर असर डाला है. अर्थव्यवस्था में पैदा हुए संकट ने पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरियों को लेकर ज़्यादा बड़ा संकट खड़ा किया है. ऐसा इसलिए है क्योंकि लॉकडाउन ने उन क्षेत्रों को ज्यादा प्रभावित किया जहाँ महिलाओं की भागीदारी अच्छी-खासी थी मसलन होटल, फूड, खुदरा और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर.
इन सेक्टर्स में मध्य अमरीका में जहाँ 59 फ़ीसद महिलाएं काम करती हैं तो वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया में 49 फ़ीसद महिलाएँ काम करती हैं. दक्षिण अमरीका में यह आंकड़ा 45 फीसद का है.
अमरीका के प्यू रिसर्ट सेंटर की ओर से जून में प्रकाशित एक सर्वे में यह बात कही गई है कि कई देशों में यह एक मजबूत धारणा है कि औरतें मर्दों की तुलना में नौकरी की कम हक़दार होती हैं.
लोगों से जब पूछा गया कि आर्थिक संकट के वक्त क्या पुरुषों को नौकरी पर महिलाओं की तुलना में ज्यादा हक होना चाहिए तो भारत और ट्यूनीशिया में 80 फ़ीसद लोगों ने इससे सहमति जताई.
जबकि तुर्की, फिलीपींस, इंडोनेशिया और नाइजीरिया में 70 फ़ीसद लोग इस बात से सहमत थे.
कीनिया, दक्षिण अफ्रीका, लेबनान और दक्षिण कोरिया में 50 फ़ीसद से अधिक लोगों की यह राय थी तो वहीं ब्राज़ील, अर्जेंटीना, रूस, उक्रेन और मैक्सिको में यह आंकड़ा वैश्विक औसत 40 फ़ीसद के करीब था.
प्यू में सामाजिक और जनसांख्यिकीय ट्रेंड की एसोसिएट डायरेक्टर जुलियाना होरोविट्ज़ कहती हैं, उन देशों में तनाव की स्थिति लगती है जहाँ लोग लैंगिक समानता की तो बात करते हैं लेकिन मानते हैं कि पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी पाने का हक़ ज्यादा है.
वो कहती हैं, "महामारी की वजह से आर्थिक संकट का सामना कर रहे देशों में महिलाओं को मिलने वाले अवसर पर बुरा असर पड़ सकता है."
'एक कदम पीछे और दो कदम आगे'
लेकिन जो कुछ भी प्रभाव पड़े लेकिन महामारी तो एक दिन गुजर ही जाएगा. सिमोन रैमोस मानती हैं कि इसके बाद हमें नई वास्तविकता का सामना करना पड़ेगा. इसके बारे में सोचना तो शुरू कर ही दिया गया है.
वो मानती है कि कंपनियों ने अधिक उदार कदम उठाने शुरू कर दिए हैं और आने वाले समय में वो कर्मचारियों को उनके व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुकूल विकल्प मुहैया कराएंगी.
संपत्ति के कारोबार से जुड़ी एक प्रबंधन कंपनी की सीईओ लूसियाना बहेतॉस बीबीसी से कहती हैं, "मैं मानती हूँ कि हम एक कदम पीछे लेंगे और दो कदम आगे."
उनका कहना है कि महिलाएँ अपने करियर को लेकर सजग हो रही हैं इसलिए "लैंगिक समानता को लेकर उनका संघर्ष यहीं नहीं ख़त्म होने जा रहा है."
लेकिन वो यह मानती है कि कोरोना के बाद बाज़ार में महिलाओं के लिए नौकरी को लेकर हालात कठिन होने जा रहे हैं.
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source: bbc.com/hindi