ऐसा बोला जा रहा है कि 2020 का सबसे नेगेटिव शब्द है - पॉजिटिव। कोरोना वायरस से जोड़ कर इस शब्द को देखें तो ये बात बेहतर समझ में आती है।
कोरोना वायरस पॉजिटिव रिजल्ट सुनते ही लोग नेगेटिविटी, भय व डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। जनवरी 2020 की आरंभ कोरोना वायरस की बीमारी के साथ हुई व जुलाई 2020 में भी आप कोरोना से जुड़ी हुई तमाम खबरों को हेडलाइंस में बना हुआ देख रहे हैं। आपके सोशल मीडिया पेज पर कोरोना वायरस से जुड़े अपडेट्स की भरमार है। ज्यादातर खबरें नेगेटिव हैं- चाहे वो कोरोना के बढ़ते मुद्दे हों, किसी जानकार को कोरोना होने की समाचार या किसी की कोरोना से मृत्यु की खबर। जानकारियों के तूफान information bombardment ने हमें एक नयी बीमारी दे दी है - Disaster Fatigue. जब कोई एक्सीडेंट लंबे समय तक चले व उसका प्रभाव भी लंबा हो। जब सब तरफ से उसी हादसे की खबरें आप तक आ रही हों, तो आप Disaster Fatigue के शिकार हो सकते हैं।
क्या होता है Disaster Fatigue Disaster Fatigue यानी आप मानसिक तौर पर इतना थक जाएं कि ये आपके दिमाग पर हावी होकर आपको डिप्रेशन तक ले जाए। आमतौर पर ये माना जाता है कि हेल्थ केयर वर्कर यानी डॉक्टर, नर्स व दूसरे मेडिकल स्टाफ कोरोना के मरीज या ऐसे लोग जिन्होंने कोरोना की बीमारी से परिवार में किसी को खो दिया हो, उनमें डिजास्टर फैटिग का खतरा ज्यादा रहता है लेकिन information bombardment यानी जानकारियों की भरमार के इस दौर में ये किसी के साथ भी होने कि सम्भावना है। इसके अतिरिक्त ऐसे लोग जो पहले से ही डिप्रेशन या किसी मानसिक बीमारी के शिकार हों उनके लिए कोरोना वायरस का नेगेटिव दौर व कठिन भरा होने कि सम्भावना है।
कैसे होती है ये बीमारी क्राइसिस की हालत में हमारा दिमाग स्ट्रेस हार्मोन कोर्टिसोल रिलीज करता है। इंसान जब मुश्किलों से लड़ रहा होता है तब ये हार्मोन रिलीज होता है लेकिन सोचिए, आप रोज इस भय के साथ अपना दिन प्रारम्भ करते हों कि कहीं मुझे कोरोना ना हो जाए, आप रोज उससे बचाव के ढंग खोजते हों तो ये स्ट्रेस हार्मोन प्रतिदिन रिलीज होगा व यही धीरे धीरे आपको डिप्रेशन की ओर ले जा सकता है। 6 महीने तक आपदा का दौर चले, ये कोई आम बात नहीं है। इतने लंबे कठिन दौर से लड़ने की हमें आदत भी नहीं है।
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आंकड़े क्या कहते हैं 2003 में जब संसार में सार्स यानी बर्ड फ्लू महामारी की शक्ल में फैला था तब हांगकांग में हुई एक रिसर्च में पाया गया था कि इस बीमारी के शिकार 40 फीसदी लोगों को डिप्रेशन व दूसरी मानसिक बीमारियां हुईं।
अमेरिका की एक फैमिली फाउंडेशन ने एक सर्वे में पाया कि 56 फीसदी अमेरिकन कोरोना वायरस की वजह से नकारात्मकता के शिकार हैं।
ये आंकड़े आपको डराने के लिए नहीं हैं। हम ये भी नहीं कह रहे कि ऐसा हर किसी के साथ होगा ही लेकिन पहले से मानसिक बीमारियों के खतरे पर जी रहे लोगों को सावधान रहना होगा।
आईसीएमआर व लैंसेट की दिसंबर 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक हर सात में से एक भारतीय किसी ना किसी मानसिक बीमारी का शिकार है। 19 करोड़ से ज्यादा भारतीय किसी ना किसी मानसिक बीमारी से घिरे हैं। इनमें से साढ़े चार करोड़ डिप्रेशन व तकरीबन 4 करोड़ एंग्जाइटी यानी तनाव के शिकार हैं।
क्या करना चाहिए कोरोना वयरस महामारी का एक ऐसा दौर है जिसके साथ जीना अभी हम सीख ही रहे हैं तो सबसे पहले ये समझिए कि आप इस महामारी की मुश्किलों से जूझने वाले अकेले आदमी नहीं हैं। रिसर्च के मुताबिक, इंसान अपने दिन का एक तिहाई भाग Smart Phone पर बिता रहा है। ये आदत कई बीमारियों को दावत देने का कार्य कर रही है।
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सोशल मीडिया से जितना दूर हो सके, रहिए। सोशल मीडिया पर लोग इंस्टेंट इमोशन पोस्ट करते हैं लेकिन आपके लिए हर इंस्टेंट इमोशन यानी हर किसी की कहानी जानने से ज्यादा महत्वपूर्ण है अपने मन मस्तिष्क की शांति। कुछ लोगों का ये भी मानना है कि खबरों में केवल नेगेटिविटी ही दिखाई जाती है व उसकी वजह से भी डिप्रेशन हो रहा है। हम आपसे ये तो नहीं कह सकते कि आप न्यूज ना देखें लेकिन न्यूज देखने के वक्त को सीमित जरूर कर लें। ये आपके ऊपर है कि आप दिन भर में एक डीएनए देखें या अपनी पसंद का कोई व प्रोग्राम। लेकिन सूचनाओं की भरमार को लिमिटेड करें. ज़ी न्यूज़ पर हम भी ये प्रयास करते रहते हैं कि आपको सकारात्मकता से भरी खबरें दिखाते रहें - ये प्रयास हम जारी रखेंगे।
तो अगर आप भी मास्क पहनते पहनते थक चुके हैं। हाथ धोने की आदत घटती जा रही है। सोशल डिस्टेंसिंग के निशान अब आपको अच्छे नहीं लगते तो ये आपको कोरोना के खतरे के व करीब ले जा सकता है। वहीं इस थकान से ज्यादा खतरनाक है डिजास्टर फैटिग। आपको इससे बचने की आवश्यकता है।