आज जब पूरे देश में धार्मिक स्थलों को खोला जा रहा है, तब बीते दिनों 'सांप्रदायिक' होने का इल्ज़ाम झेलने वाले केरल के मलप्पुरम ज़िले ने अपनी अलग राह चुनी है. कोरोना के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र वहां की पांच हज़ार मस्जिदों को अनिश्चितकाल तक बंद रखने समेत कई धार्मिक स्थलों को न खोलने का फ़ैसला लिया गया है.
मलप्पुरम, केरल के एकमात्र मुस्लिम बहुल जिले, जहां उनकी आबादी 75 फीसदी है, ने एक इतिहास रचा. तय किया गया है कि जिले की 5,000 मस्जिदें अनिश्चितकाल के लिए बंद रहेंगी.
इस निर्णय के पीछे का तर्क समझने लायक है. क्योंकि राज्य में कोरोना वायरस संक्रमण के मामले बढ़ते दिख रहे हैं, इसलिए यह तय करना मुनासिब समझा गया कि उसके दरवाजे श्रद्धालुओं के लिए बंद ही रहें.
जाने-माने इस्लामिक विद्वान पनक्कड सययद सादिक अली शिहाब थंगल, जो इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के जिला अध्यक्ष हैं, उन्होंने इस खबर को मीडिया के एक हिस्से में साझा किया.
इस तरह जबकि बाकी मुल्क में प्रार्थनास्थल, धार्मिक स्थलों को खोला जा रहा है, मलप्पुरम ने अपनी अलग राह चुनी है.
इस बात पर जोर देना जरूरी है कि आठ मुस्लिम संप्रदायों (denomination) की उस बैठक में, जहां 9 जून के बाद प्रार्थनास्थलों को खोलने के सरकारी निर्णय पर विचार करना था, यह फैसला एकमत से लिया गया.
सभी इस बात पर सहमत थे कि उन्हें इस छूट का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. एक ऐसे वक्त में जबकि कोविड-19 के मामले सूबे में बढ़ रहे हों, मस्जिद कमेटियों और धार्मिक नेताओं ने यह जरूरत महसूस की कि उन्हें सतर्कता बरतनी चाहिए.
खबरें यह भी आ रही हैं कि न केवल मस्जिदें बल्कि इलाके के कई मंदिरों और चर्च ने भी उन्हें तत्काल खोलना नहीं तय किया है.
मिसाल के तौर पर, श्री कदमपुजा भगवती मंदिर जो मलप्पुरम में है तथा श्री तिरूनेल्ली मंदिर जो वायनाड में है, वह बंद रहेंगे.
नायर सर्विस सोसायटी से संबंधित मंदिर भी 30 जून तक नहीं खुलेंगे. एर्नाकुलम-अंगमाली आर्चडाओसिस ऑफ सिरो मलबार चर्च ने भी तय किया है कि उसके मातहत चर्च 30 जून तक बंद रहेंगे.
निस्संदेह इस बात को लेकर इलाके के लोगों में गहरा एहसास दिख रहा है कि राज्य ने जिन भी सावधानियों को बरतने की बात की हो, स्पेशल ऑपरेटिंग प्रोसिजर्स का ऐलान किया है, हकीकत में उन पर अमल करना नामुमकिन होगा लिहाजा कोविड-19 के समुदाय आधारित संक्रमण की संभावना बनी रहेगी.
ध्यान रहे इसके पहले कि समूची दुनिया ने कोविड के संक्रमण को रोकने के लिए किसी न किसी किस्म के लॉकडाउन का सहारा लिया था.
अध्ययनों के जरिए यही बात सामने आई थी कि इस वायरस का संक्रमण धार्मिक जुटानों से कितनी तेजी से फैल सकता है 'किस तरह मलेशिया से लेकर इरान तक, आस्था आधारित समूह और श्रद्धालुओं के जत्थे संक्रमण के वाहक के तौर पर उभरे हैं, जो इस बीमारी को इस तरह फैला रहे हैं जिसे समझना और जिसे काबू करना बेहद मुश्किल साबित हो रहा है.
जैसे कि उम्मीद की जा सकती है कि मुख्यधारा का मीडिया- जो कुछ दिन पहले ही इस बात की प्रतियोगिता में मुब्तिला था कि इस जिले को किस तरह बदनाम किया जाए, पड़ोस के जिले पलक्कड़ में हुई एक गर्भवती हथिनी की दर्दनाक मौत को इस जिले से जोड़कर इस मुस्लिम बहुल जिले को लांछना लगायी जाए- इस नए घटनाक्रम पर बिल्कुल खामोश रहा.
आखिर अचानक वे अपनी धुन कैसे बदल सकते हैं, जो दो माह पहले ही कोरोना को लेकर दक्षिणपंथी हुकूमत के शरारती तर्क को आगे बढ़ाने में मुब्तिला थे.
इस तर्क के तहत हुकमती जमातों ने यह कहना शुरू किया था कि किस तरह मुल्क में कोरोना के प्रसार के लिए तबलीगी जमात का दिल्ली के मरकज़ में हुए सम्मेलन जिम्मेदार है और किस तरह एक समूचे समुदाय को कटघरे में खड़ा किया गया था.
आखिर वे सभी मीडियाकर्मी जिन्होंने 'कोरोना जिहाद' जैसे बेहद शरारती शब्दों को गढ़ा, जिन्होंने संविधान के बुनियादी मूल्यों को ताक पर रखते हुए समुदाय विशेष को निशाना बनाने की मुहिम में सुर मिलाए, वह यह कहने का साहस कैसे जुटा सकते थे कि मलप्पुरम में धार्मिक प्रतिष्ठान- जिनका बहुलांश अल्पसंख्यक समुदाय का है- तालाबंदी रखेंगे.
दक्षिणपंथी जमातों के अक्सर निशाने पर आए इस जिले की सभी मस्जिदें और कई मंदिर एवं चर्च श्रद्धालुओं के लिए अपने दरवाजे नहीं खोलेंगे.
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मीडिया के कर्णधारों को इस बात का बखूबी अंदाज है कि यह खबर जो न केवल जिले को लेकर वर्चस्वशाली हिंदुत्व आख्यान को न केवल चुनौती देती है, बल्कि प्रश्नांकित भी करती है.
साथ ही वे समझते हैं कि ये खबर जो एक सकारात्मक तस्वीर पेश करती है, उसे सत्ता के गलियारों में कतई पसंद नहीं किया जाएगा और बेहतर हो, ऐसी ही कई खबरों की तरह यह भी दफन हो.
यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह एक पूर्व कैबिनेट मंत्री-जानबूझकर या गलती से- गर्भवती हथिनी की मौत से उद्वेलित हो उठी थीं, जिन्होंने यह दावा किया था कि मलप्पुरम में यह घटना हुई है जबकि यह घटना पलक्कड़ की थी.
मलप्पुरम के बारे में तमाम गलत तथ्य भी पूर्व कैबिनेट मंत्री ने साझा किए थे. उनका कहना था कि मलप्पुरम मुल्क का 'सबसे हिंसक' जिला है, जहां 'स्त्रियों और बच्चों को राह चलते मार दिया जाता है' और वह 'सांप्रदायिक विवादों का केंद्र है.'
गौरतलब था कि कैबिनेट मंत्री महोदया के दावों को पंक्चर होने में अधिक वक्त नहीं लगा. एक पत्रिका ने नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट 'क्राइम इन इंडिया 2018' - जिसे खुद गृह मंत्रालय ने तैयार किया है ' को उद्धृत करते हुए बताया कि मंत्री महोदया के दावे गलते हैं.
उनके इस कथन के विपरीत कि 'मलप्पुरम सबसे डिस्टर्ब जिला है,' रिपोर्ट यह बता रही थी कि जहां तक हत्या, हत्या की कोशिश, दहेज हत्या, चोरी, बलात्कार की कोशिश, लूटपाट, अपहरण और फिरौती के आंकड़ों का सवाल है और पूरे देश में बनी उनकी फेहरिस्त है, तो मलप्पुरम जिले का नाम ऊपरी 300 जिलों में भी शुमार नहीं होता.
अब तक जो स्थितियां हैं, उसमें इक्का दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें- जैसे मेघालय राज्य- पूरे मुल्क में इस बात को लेकर एकराय है कि प्रार्थनास्थल खोलने चाहिए और खुले भी हैं.
इस बात को नोट किया जा सकता है कि मेघालय ने पिछले दिनों स्थिति की समीक्षा करते हुए प्रार्थनास्थल खोलने के अपने आदेश को वापस लिया है.
मेघालय को यह बात समझ में आई कि जहां तक आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने की बात है, सभी सावधानियां बरतते हुए, तो वह वाजिब है, लेकिन यह बात समझ से परे है कि जब हम इस संक्रमण को काबू नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसे कदम क्यों उठाए जाएं कि मुख्यतः आत्मिक शांति हासिल करने के लिए हजारों या सैकड़ों की तादाद में लोगों के एकत्र होने के रास्ते को सुगम किया जाए.
मुल्क के अलग-अलग हिस्सों से यह रिपोर्ट आ रही हैं कि अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं और इलाज करने के लिए स्वास्थ्यकर्मियों- डॉक्टरों, नर्सों- की जबरदस्त कमी देखने में आ रही है.
अब हुकुमत की बागडोर संभालने वालों से भले ही यह दावे किए जा रहे हों कि कोविड-19 के खिलाफ लंबे संघर्ष में हम 'जीत' के रास्ते पर हैं, मगर जमीनी स्थिति कतई उत्साहित करने वाली नहीं है.
जैसे कि यह बात पहले भी चर्चा में आ चुकी है कि इतने केस के चलते भारत एशिया-पैसिफिक क्षेत्र में सबसे अव्वल बन गया है और उसने चीन को बहुत पहले ही पछाड़ दिया है, जबकि इस आसन्न महामारी की सूचना उसे पहले मिल चुकी थी.
विशेषज्ञों की बात पर गौर करें, तो हम पाते हैं कि आने वाले महीनों, खासकर जून-जुलाई में आंकड़ों में जबरदस्त तेजी आनेवाली है.
मिसाल के तौर प्रोफेसर रणदीप गुलेरिया, जो एम्स, दिल्ली के निदेशक हैं और भारत की कोविड विरोधी रणनीति बनाने वालों में अग्रणी हैं, उन्होंने आकलन करके इस बात की ताईद की है.
देश के कुछ हिस्सों में चीजें निश्चित ही सामान्य नहीं हैं, यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि मुंबई में कोविड अस्पताल बनाने के लिए केरल से 50 डॉक्टरों और 100 नर्सों की एक बड़ी टीम पहुंच रही है.
बृहन्मुंबई महानगरपालिका ने उनसे संपर्क किया कि कोरोना महामारी को रोकने में हमारी मदद करें. केरल से दो वरिष्ठ डॉक्टर मुंबई पहुंच गए हैं और बाकी दल भी जल्द ही पहुंचने वाला है.
हम गुजरात की स्थिति से भी वाकिफ हैं जो महाराष्ट्र्र की तरह कोविड संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित राज्य दिखता है और किस तरह गुजरात उच्च अदालत ने कोविड नियंत्रण में असफलता के लिए, उसके अपने कुप्रबंधन के लिए गुजरात सरकार की जबरदस्त आलोचना की है.
धार्मिक स्थलों में पहुंचने पर लगी रोक हटाने के हिमायती लोगों/सरकार की तरफ से यह भी दलील दी जा रही है कि वह कोविड-19 से बचने के लिए जरूरी एहतियात बरतने के लिए लोगोें को प्रेरित कर सकते हैं, वह इस बात को सुनिश्चित कर सकते हैं कि दस से अधिक लोग एकत्र न पहुंचे या धार्मिक स्थलों पर किसी भी किस्म का जमावड़ा न लगे.
लेकिन भारत जैसे विशाल मुल्क की उतनी ही विशाल आबादी को देखते हुए इन सुझावों पर अमल करना नामुमकिन होगा. पड़ोसी पाकिस्तान इस मामले में एक ऐसे अनुभव का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, जिससे सीखा जा सकता है.
याद रहे कि रूढ़िवादी तत्वों और उलेमाओं के दबाव से झुकते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति अल्वी ने उलेमाओं के साथ बैठ कर एक 20 सूत्री योजना तैयार की कि अगर श्रद्धालु मस्जिदों में, इबादतगाहों में पहुंचते हैं तो क्या-क्या सावधानी बरती जा सकती हैं.
इसमें मास्क पहनना, हाथ मिलाने या गले मिलने पर पाबंदी, श्रद्धालुओं द्वारा अपना मुंह छूने पर पाबंदी ऐसे तमाम नियम बनाए गए थे, मगर जब इन स्पेशल ऑपरेटिंग प्रोसिजर्स के अमल का वक्त आया, तो वह सभी हवाई साबित हुए.
तमाम जगहों पर पुलिसवाले श्रद्धालुओं के कोप का निशाना बने. देश के अस्सी फीसदी मस्जिदों से यही खबरें आईं कि इस आचार संहिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन हुआ.
अगर विगत दो माह से अधिक वक्त से अलग-अलग महाद्वीपों में निवास कर रहे इन विभिन्न आस्थाओं से संबद्ध लोगों ने कोरोना महामारी के संकट के मद्देनज़र अपने सियासी लीडरों की बातों का पालन किया था, तो फिर क्या उन्हें यह नहीं समझाया जा सकता था कि कुछ और सप्ताहों के लिए वह अपने निजी दायरों में ही अपने आस्था से जुड़े आचारों को निभाएं, जैसा कि मार्च के आखिर से वह करते आए थे.
क्या उन्हें यह नहीं कहा जा सकता था कि एक आस्तिक, जो खुदा की सर्वशक्तिमानता और सब जगह मौजूदगी की बात को मानता है, सभी को 'ईश्वर की संतान' ही मानता है, तो फिर इन बाकी जनों की भलाई के लिए वह आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन से कुछ समय बचे.
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च आदि स्थान पर जाने की जिद न करे. आज जबकि अंततः यह तय किया गया है कि धार्मिक स्थल खोले जाएंगे तो इस बात को याद करना सुकूनदेह हो सकता है कि किस तरह अप्रैल और मई ऐसे दो महीने थे, जब वेटिकन से लेकर मक्का तक, मुंबई से लेकर मिनीपोलिस तक, सब जगह छोटे तथा बड़े धार्मिक स्थलों को जनता के लिए बंद कर दिया गया था.
वह एक ऐसा दौर था जब आस्था ने विज्ञान के लिए रास्ता सुगम किया था. इस पूरे मसले पर एक विचारपरक लेख में प्रोफेसर परवेज हुदभॉय, जो पाकिस्तान के अग्रणी भौतिकीविद हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, उन्होंने लिखा था:
'…अधिकतर शिक्षित लोग अब इस बात को समझ रहे हैं कि क्यों वैज्ञानिक दृष्टिकोण काम करता है और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं करता है. इतना ही नहीं, बेहद अतिरूढ़िवादी और विज्ञान को खारिज करने वाले विश्व नेता भी वैज्ञानिकों से अपील कर रहे हैं कि वह राहत कार्य में तेजी लाएं. आस्था की उनकी तमाम बातें और अपने बर्तन पीटने या बालकनी से ताली पीटने के आवाह्न, अंततः यही समाप्त होते हैं कि जल्द से जल्द कोरोना वायरस के लिए मारक वैक्सीन और दवाइयों का आविष्कार हो. झांसेबाजी, शेखी और शब्दाडंबर की एक सीमा होती है.'
आम तौर पर जो एकांगी धारणा हमारे समाजों में मौजूद रहती है, इससे विपरीत हम सभी ने यही पाया था कि मुस्लिम बहुल मुल्क संयुक्त राज्य अमीरात, सउदी अरब, इरान, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, जॉर्डन, कुवैत, फिलिस्तीन, तुर्की, सीरिया, लेबनान और मिस्त्र सभी ने समूहों में प्रार्थनाओं को स्थगित किया था.
और जब मस्जिदों की तालाबंदी को लेकर पाकिस्तान के अन्दर रूढ़िवादी मुल्लाओं की तरफ से विरोध होने लगा तो मिस्त्र की अल अजहर मस्जिद के प्रमुख ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति की विशेष गुजारिश पर फतवा जारी किया था, जिसमें खतरनाक कोविड वायरस पर रोकथाम के लिए जुम्मे की नमाज को स्थगित करने का आदेश दिया गया था.
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मलप्पुरम इस मामले में अनोखा है कि यहां लोगों ने खुद तय किया है कि मानवता के हक में वह प्रार्थनास्थलों को बंद रखेंगे और इसमें जहां अल्पसंख्यक समुदाय ने पहल ली है, लेकिन बाकी धार्मिक समूहों/संप्रदाय भी जुड़े हैं.
आप माने न ना मानें उनके इस कदम ने उस हकीकत को लेकर बहस नए सिरे से खड़ी हो रही है जो बताती रही है कि किस तरह प्रार्थनास्थल कोविड संक्रमण के केंद्र बन सकते हैं.
हमें बताया जाता रहा है कि ऐसे स्थानों पर किस तरह संक्रमण फैलता है किस तरह 'मनुष्य जब खांसता, छींकता, गाता या जोर से बोलता है तब हवा में उड़ने वाली छोटी-छोटी बूंदों के जरिए संक्रमण फैलता है.
ऐसी बूंदें किन्हीं सतहों पर चिपकती है, जो हाथ के स्पर्श से लोगों के मुंह, नाक या आंखों तक भी पहुंच सकती है. फिलवक्त यह नहीं बताया जा सकता कि मलप्पुरम के इस ऐतिहासिक निर्णय की खबर अमेरिका में बसे लेखक और सर्जन अतुल गावंडे तक पहुंची है या नहीं.
मशहूर सर्जन और चिकित्सा से संबंधित सामाजिक मामलों को आम जन तक पहुंचाने के लिए विख्यात प्रोफेसर अतुल गावंडे ने पिछले दिनों न्यूयॉर्कर पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में वह कोविड-19 के संक्रमण से लॉकडाउन जैसी स्थितियों से गुजर रहे मुल्कों के लिए- जो अब अनलॉक करने की दिशा में मुड़ रहे हैं - कुछ सलाहें पेश की थीं.
तमाम किस्म के मरीजों का इलाज करने वाले अस्पताल खुद संक्रमण के केंद्र न बन जाए इसके लिए उनके द्वारा बरती जाने वाली सावधानियों के मददेनज़र वह बात करते हैं, जिसके चार तत्व होते हैं: हाथ के आरोग्य का प्रश्न, स्क्रीनिंग, देह से दूरी और मास्क.
डाक्टर गावंडे के मुताबिक यह चारों तत्व एक किस्म की मिश्रित थेरेपी के समान कहे जा सकते हैं. और आप इनमें से एक हटा दीजिए और पाएंगे कि सुरक्षा कड़ी कमजोर हो गयी और फिर वायरस का फैलाव सुगम हो गया.
वह एक पांचवे तत्व का भी जिक्र करते हैं, जो निश्चित ही अस्पताल के अन्दर बहुत मौजूं नहीं दिखता और वह है संस्कृति.
अब जबकि भारत सरकार ने धार्मिक स्थलों को खोलने का निर्णय लिया है, उस संबंध में उनकी बात काबिलेगौर लगती है. इस बात का आकलन करना मुश्किल नहीं कि किस तरह 'संस्कृति, आस्था और मूल्यों के मुददे, जो मानवीय व्यवहार को संचालित करते हैं वह किसी बीमारी के फैलाव को लेकर स्थापित किए गए महामारी विज्ञान के स्थापित मॉडल में नहीं समा पाते.
न केवल मानवीय व्यवहार संश्लिष्ट है बल्कि धर्म जिस तरह उसे प्रभावित करता है, वह बात भी बहुत संश्लिष्ट होती है.
मलप्पुरम, जहां केरल सूबे के सबसे अधिक स्कूल हैं या जिसने सूबे की सांस्कृतिक परंपराओं में जबरदस्त योगदान दिया है, जो महाकवियों थुंनचाथ एजुजाच्चन, पूंथानम नम्बुद्री, मोयिनकुटटी वैदयार की जन्मभूमि रहा है, जहां केरल के पहले कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री नम्बूदरीपाद भी पैदा हुए थे, उसने अपनी शोहरत में आज एक नया पन्ना जोड़ा है.
कोविड संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए उसने एक तरह से नई जमीन तोड़ी है. प्रश्न उठता है कि क्या शेष भारत भी मानवता के हक को फोकस में रखते हुए 'लांछना' लगाए इस जिले के नक्शेकदम पर चलेगा.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)