बिहार: कोरोना संकट में बढ़ गई हैं मुसहर समाज की मुश्किलें

लॉकडाउन के समय काम न होने से निम्न आर्थिक वर्ग के लोगों के पास न पैसा है न ही कमाई का अन्य कोई साधन. बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले के बासमनपुर पंचायत के मुसहर टोले का हाल भी यही है. यहां के रहवासियों का कहना है कि रोजी-रोटी नहीं है और अब भुखमरी जैसे हालात बन रहे हैं.

कोरोना संक्रमण से जूझ रही अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए केंद्र सरकार ने बहुत जोर-शोर के साथ 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की है. सरकार का दावा है कि वह कोरोना से निपटने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 प्रतिशत खर्च कर रही है.
इधर विपक्ष प्रवासी मजदूरों के पलायन और सड़कों पर चलते उनके काफिलों को लेकर सरकार को घेर रही है. लेकिन इस तमाम उथल-पुथल से अनजान भी एक समुदाय है, जो अभी अपने जीवन का कठिनतम समय काट रहा है.
ये लोग हैं बिहार के महादलित मुसहर बस्ती में रहने वाले लोग. लॉकडाउन के कारण मुसहर बस्ती के लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है और अब उनके सामने भुखमरी जैसी स्थिति बनने लगी है.
पूर्वी चंपारण जिले के बासमनपुर पंचायत के वार्ड नं 16, मुसहरी टोला में मुसहर जाति के तकरीबन 200 परिवार रहते हैं. यहां के ज्यादातर घरों के बच्चे दूसरे राज्यों में मजदूरी करते हैं. जिससे परिवार का खर्च चलता है.
इसके अलावा इन घरों की औरतें कभी-कभार मजदूरी करती हैं. लेकिन लॉकडाउन की वजह से बाहर रहने वाले बच्चे कोई पैसा नहीं भेज पाए हैं और इधर भी सारा कम ठप है. इस टोले के 35 वर्षीय रामाधार मांझी बताते हैं कि यहां के 40 बच्चे आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में फंसे हुए हैं.
वे बताती हैं, 'ये सभी किन्हीं पॉल्ट्री फॉर्म्स में काम करते हैं. पहले वो लोग महीने में एक-दो हजार रुपये घर भेज दिया करते थे, लेकिन पिछले दो महीने से उनका काम बंद है. उनके पास खुद के खाने के लिए भी पैसा नहीं है. ठेकेदार की मदद से वो लोग खा-पी रहे हैं.'
रामाधार मांझी बताते हैं कि गांव में लोगों के पास अब खाने-पीने का सामान उतना नहीं बचा है कि ज्यादा दिन तक गुजारा हो सके.
इस बस्ती की धनुवंती देवी के परिवार में कुल 10 लोग हैं. पूरे परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा उनके पति के ऊपर है. लॉकडाउन की वजह से उनके पति रिक्शा नहीं चला पा रहे हैं, जिससे परिवार भुखमरी की स्थिति में पहुंच रहा है.
गांव में मजदूरी की असलियत बताते हुए वे कहती हैं, 'अब खेती-बाड़ी का सारा काम मशीन से होने के कारण हम ज्यादातर समय बेकार ही पड़े रहते हैं. धान की रोपनी के समय ही थोड़ा-बहुत काम होता है हमारे लिए.'
वे आगे कहती हैं, 'हमारे पास अपना कोई जमीन नहीं है कि खुद का खेती करें. अभी गेहूं कटाई का समय था तो ज्यादातर गृहस्थों ने मशीन से अपना फसल कटवाया. हम लोग चोरी-छिपे पटपरिया, रुपडीह जैसे दूर के गांव के खेतों में गिरा हुआ गेहूं चुन-चुनकर जमा करते थे. चार-पांच दिन चुनने के बाद 25 किलो गेहूं हुआ था, जिसे बेचकर लगभग 400 रुपये मिले जिससे कुछ दिनों तक दाल-सब्जी खरीद पाए.'
आगे वे बताती हैं, 'पैसे की समस्या इतनी हो गई है कि हम लोग राशन का चावल बेचकर सब्जी, तेल, साबुन खरीद रहे हैं. दो-चार दिन में यह अनाज भी खत्म हो जाएगा.'
सरकारी मदद के बारे में पूछने पर उनका कहना है कि बंदी के बाद से सरकार ने 45 किलो चावल और 500 रुपये दिया है. अब दाल-सब्जी के पैसे के लिए हम कहां जाएं?
केंद्र सरकार ने 26 मार्च को कोरोना राहत पैकेज की पहली घोषणा की थी. इसमें गरीबों को मदद के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपये देने का दावा सरकार ने किया था. इसके तहत हर परिवार को 3 महीने मुफ्त राशन, महिलाओं के जनधन खाते में 500 रुपये, वृद्धा-विधवा पेंशन बढ़ाकर 1000-1000 तथा 3 महीने तक मुफ्त गैस सिलिंडर देने का वादा हुआ.
इसके साथ-साथ बिहार सरकार ने हर राशन कार्डधारी के बैंक खाते में 1000 रुपये का ऐलान किया है. हालांकि सच्चाई यह है कि सरकार की ये योजनाएं ज़मीन पर पहुंचते-पहुंचते फेल हो जा रही हैं.
राशन वितरण में कालाबाजारी
मुसहर बस्ती के लोग सरकार की अधिकांश योजनाओं की पहुंच से काफी दूर हैं. इनका कहना है कि सरकार मुफ्त में राशन तो दे रही है, लेकिन इस मुश्किल वक्त में भी उनके साथ अन्याय और घोटाला हो रहा है.
इस बस्ती की 37 वर्षीय मरचिया देवी के घर में आठ लोग हैं. उनका कहना है, 'सरकार 1 आदमी पर 5 किलो राशन दे रही है तो मुझे 40 किलो अनाज मिलना चाहिए था. लेकिन डीलर ने 35 किलो राशन ही हमें दिया. इस बंदी के समय भी डीलर सब लूटने में लगा है.'
इसी टोले की 67 वर्षीय किरींची देवी विधवा हैं. इनका परिवार एकमात्र बेटे की कमाई के सहारे चलता है. लेकिन फिलहाल वह दूसरे राज्य में फंसा हुआ है. परिवार में दो औरतें और एक छोटा-सा बच्चा है.
इनका कहना है कि 4-5 महीने से इन्हें राशन मिलना बंद हो गया है. वे बताती हैं, 'सरकार ने नया सिस्टम लगाया है कि अंगूठा लगाने वाले को ही राशन मिलता है और हमारा अंगूठा मशीन में नहीं लेता है इसलिए डीलर हमको राशन नहीं देता.'
इन शिकायतों पर जब डीलर कालाबासी दास से सवाल पूछा गया तो उनका कहना था, 'अब आधार कार्ड वाले लोगों को ही राशन मिल रहा है, जिन लोगों के पास आधार नहीं है, हम उन्हें किसी भी सूरत में राशन नहीं दे सकते.'
अनाज कम देने के आरोप पर उनका कहना है कि गोदाम से उन्हें बोरियों में कम करके अनाज मिलता है इसलिए वे भी लोगों को राशन देते वक्त कटौती करते हैं.
दरअसल बिहार सरकार दिसंबर 2019 से सरकारी राशन देने के लिए ई पॉश मशीन पर अंगूठा लगवा रही है, लेकिन इस सिस्टम में कई प्रकार की खामियों की शिकायत आती रहती हैं.
बासमनपुर वार्ड 16 के वार्ड सदस्य मनोज कुमार बताते हैं, 'कभी-कभार नाम में मामूली गड़बड़ी होने पर भी राशन रोक दिया जाता है. वैसे तो सरकार ने मशीन पर अंगूठा नहीं लगने वाले को भी राशन देने की वैकल्पिक व्यवस्था की है पर डीलर लोग ऐसा नहीं करते. ऐसा लगता है कि वो लोग इन गरीबों का राशन उठाकर बेच देते होंगे.
नाम न छापने की शर्त पर पूर्वी चंपारण जिले के एक डीलर का कहना है कि हम लोगों को सरकार की तरफ से कोई पैसा नहीं मिलता है इसलिए हर परिवार को राशन देते वक्त हम कुछ कटौती कर लेते हैं.
पूरे प्रदेश में है यही पैटर्न
गया जिले के निवासी और बिहार प्रदेश खेतीहर मजदूर यूनियन के नेता पारस नाथ सिंह बताते हैं कि पूरे बिहार में मुसहर लोगों के शोषण का एक ही पैटर्न है. राशन बांटने वाले दुकानदार इस संकट के समय भी कटौती करके राशन बांट रहे हैं और मामूली कारणों से लोगों का राशन रोका जा रहा है.
उन्होंने बताया कि बंदी के कारण इन गरीब परिवारों को मामूली इलाज के लिए भी ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं. उनका कहना है कि सरकार को मुसहर जाति के लोगों के लिए एक विशेष पैकेज लेकर आना चाहिए, जिससे उन्हें भुखमरी का सामना न करना पड़े.
इस बीच बहुत सारी महिलाओं नेजनधन खाते में पैसे न आने की शिकायत भी की है. बासमनपुर की रजली देवी का कहना है, 'यहां पर बहुत लोगों के खाते में 500-500 रुपये आया, लेकिन मेरे खाते में नहीं. हर रोज बैंक (सीएसपी-कस्टमर सर्विस प्वाइंट) पर जाकर चेक कराती हूं. बैंक वाला डांटकर भगा देता है. पैसा अभी तक नहीं आया.'
मनरेगा का हाल
पूरे बिहार में मनरेगा का काम लगभग ठप है. मोतिहारी के भरौलिया मुसहर टोली के लोगों का कहना है कि यहां 2-3 साल से मनरेगा का काम बंद है. पहले जो काम कराया गया था, उसका भुगतान भी अभी तक नहीं हुआ है.
सूरत मांझी बताते हैं, 'मेरा उनका मनरेगा के काम का 10,000 रुपये बकाया है. बकाये के बारे में पूछने पर मुखिया की ओर से कहा जाता है कि बीडीओ साहब ने पैसे खा लिए.'
इसी तरह गया, पटना सहित तमाम जिलों में भी मनरेगा का काम प्रभावी रूप से नहीं हो रहा है. बाहर के राज्यों से मजदूर लगातार अपने गांवों में लौट रहे हैं और मनरेगा का काम ठप होने की वजह से राज्य में रोजगार का संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है.
सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर का कहना है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. इस समय में मनरेगा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है. सरकार मनरेगा के तहत मजदूरी की राशि और काम के दिनों की संख्या भी बढ़ाए.
कोरोना को लेकर दूसरे राहत पैकेज में मोदी सरकार ने मनरेगा पर 40 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने का ऐलान किया है. इस पर हर्ष मंदर का कहना है, 'सरकार को नए सिरे से मनरेगा पर विचार करना होगा. फिलहाल हर परिवार को एक यूनिट मानकर भुगतान किया जाता है जबकि जरूरत है कि हर व्यक्ति को एक यूनिट मानकर सरकार रोज़गार दे.'
इसके साथ-साथ उनका कहना है कि मनरेगा के पैसे मजदूरों को समय पर मिल जाएं सरकार को इसका ध्यान भी रखना होगा.
जन-प्रतिनिधियों का अता-पता नहीं
मोतिहारी प्रखंड के भरौलिया मुसहरी टोला के इनरदेव मांझी का कहना है कि चुनाव के समय सब नेता हम लोग के घर आकर वोट मांगता है, लेकिन आज जब हम इस बंदी में मर रहे हैं तो कोई पूछने वाला नहीं है.
उनकी शिकायत है कि पंचायत स्तर पर मुखिया से लेकर विधायक और सांसद तक ने उनकी कोई मदद नहीं की.
बासमनपुर मुसहरी टोला के लोगों का कहना है कि बंदी के बाद से कोई नेता नहीं आया. 60 वर्षीय जयलाल राम बताते हैं, 'एक महीने पहले मुखिया और प्रमुख ने आकर हर परिवार को 5 रुपये वाला साबुन दिया था. वो 2 दिन में ही खत्म हो गया. अब हम लोग साफ-सफाई से कैसे रहें?'
प्रशासनिक असंवेदनशीलता
सरकार ने महादलित बस्ती के लोगों के बीच अपनी योजनाएं पहुंचाने के लिए पंचायत स्तर पर विकास मित्र की बहाली की है.
बासमनपुर मुसहर टोली में लोगों को राशन नहीं मिलने पर जब वहां के विकास मित्र संजय कुमार राम से बात की गई तो उनका कहना था कि फिंगर प्रिंट नहीं मिलने की वजह से बहुत सारे लोगों को राशन नहीं मिल रहा है. बाकी इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है.
इस मामले में जानकारी के लिए जिला कल्याण पदाधिकारी सुबोध कुमार राम से फोन पर बात करने की कोशिश की गई, पर संपर्क नहीं हो सका. उनका बयान आने के बाद रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा.
मुसहर जाति के लोगों के उत्थान के लिए लंबे समय से काम कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित सुधा वर्गीज़ बताती हैं कि सरकार ने महादलितों के विकास के लिए जिन विशेष अधिकारियों की बहाली की है, वे सभी असंवेदनशील हैं. न तो ये कभी क्षेत्र का दौरा करते हैं और न ही समस्याएं बताने पर ढंग से कार्रवाई करते हैं.
आगे वे कहती हैं, 'मुसहर बस्ती के लोग लगातार पिछड़ते जा रहे हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है सरकारी अधिकारियों की लापरवाही. अगर कोई मुसहर इन अधिकारियों के पास शिकायत लेकर जाता है तो ये लोग ठीक से बात भी नहीं करते.'
मुसहर जाति की सामाजिक स्थिति
बिहार में मुसहर जाति को महादलित के श्रेणी में रखा गया है. बिहार महादलित विकास मिशन के मुताबिक प्रदेश में इस जाति के लोगों की आबादी 21 लाख से ज्यादा है. गया, चंपारण, कटिहार और पटना जैसे जिलों में इनकी अच्छी-खासी संख्या है. इनकी साक्षरता दर 9.8 प्रतिशत है.
सुधा वर्गीज़ कहती हैं, 'मुसहर समाज रोज कमाने और खाने वाला है. लॉकडाउन ने उनसे उनका काम छीन लिया है. पूरे बिहार में लगभग 40 प्रतिशत मुसहर बिना राशन कार्ड के हैं. अब सरकार ने जीविका के तहत राशन कार्ड बनवाने का काम तेज किया है, लेकिन यह कितना कारगर होगा यह तो समय ही बताएगा.'
उनका कहना है कि मुसहर समाज को आज भी समाज में दुत्कारा जा रहा है. महिलाएं अपने खाते का पैसा जांचने के लिए बैंकों के सामने घंटों तक खड़ी रहती हैं और जब इनकी बारी आती है तो बैंक वाले बिना चेक किए ही डांटकर भगा देते हैं.
वे आगे कहती हैं कि कोरोना के संक्रमण से इस समुदाय को बचाना भी एक चुनौती है. वे बताती हैं, 'मुसहर समाज का तानाबाना ऐसा है कि उन्हें एक-दूसरे से अलग कर पाना मुश्किल है. घर इस तरह के हैं कि एक चौकी पर तीन-चार लोग सिकुड़कर सोते हैं. उनके पास बहुत सारे कमरे नहीं हैं कि सब लोग अलग-अलग रहें या फिर उठे-बैठे.
वर्गीज़ कहती हैं, 'ऐसे में वे सामाजिक दूरी का बिल्कुल भी पालन नहीं कर रहे हैं. अगर इन बस्तियों में से एक भी आदमी कोरोना संक्रमित पाया जाता है तो पूरी बस्ती इस बीमारी की चपेट में आ जाएगी.'
कितना कारगर सरकार का राहत पैकेज
हर्ष मंदर का कहना है कि सरकार ने जिस राहत पैकेज की घोषणा की है, वो इस कठिन समय के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है. प्रधानमंत्री ने आंकड़ों की हेराफेरी करके बता दिया कि जीडीपी का दस फीसदी खर्च किया जा रहा है जबकि असलियत कुछ और ही है.
सुधा वर्गीज़ का कहना है कि सरकार की राहत घोषणाएं अगर कारगर होतीं तो हमारे जैसे लोगों और एनजीओ को आगे आकर मदद करने की जरूरत नहीं पड़ती. वो बताती हैं कि ऑक्सफेम के साथ मिलकर वे लोग पटना जिले की मुसहर बस्ती में राशन किट पहुंचा रहे हैं.
आगे उनका कहना है कि कोई भी एनजीओ या सामाजिक कार्यकर्ता के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वह लंबे समय तक इस समाज का खर्च उठा सके. सरकार को इसके लिए गंभीरता से सोचना होगा.
वर्गीज़ का कहना है कि जब तक मुसहर जाति के लोगों के साथ इंसानों जैसा सलूक नहीं किया जाता तब तक इनके जीवन में सुधार की उम्मीद बेकार है. फिलहाल लॉकडाउन के समय सरकार मुसहर जाति के हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को काम देकर, राशन में कटौती को रोककर तथा अपने अधिकारियों को संवेदनशील बनाकर मुसहर समाज का बहुत भला कर सकती है.
(लेखक कारवां-ए-मोहब्बत की मीडिया टीम से जुड़े कार्यकर्ता हैं.)

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