भारत की स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल अपने लगभग हर साक्षात्कार में एक बात जरूर कहती हैं, 'मैं अपने माता-पिता अपने कोच और अपने देश के लिए खेलती हूं.' कोर्ट से बाहर भी ये तीन चीजें उनके लिए सबसे ज्यादा महत्व रखती हैं. लेकिन, शायद ही कुछ लोग इस बात को जानते हों कि अगर आज साइना जैसी खिलाड़ी देश को मिली है तो इसका सबसे ज्यादा श्रेय उनकी मां ऊषा रानी को जाता है. किसी बच्चे के जन्म के बाद उसकी मां को उसका प्रथम शिक्षक कहा जाता है. लेकिन, साइना के मामले में उनकी मां उनकी प्रथम शिक्षक के साथ-साथ उनकी पहली कोच भी थीं.
एक साक्षात्कार में अपने शुरूआती दिनों के बारे में बताते हुए साइना कहती हैं कि उनके पिता हरियाणा के कृषि विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक के पद पर काम करते थे जबकि मां राज्य स्तर की बैडमिंटन खिलाड़ी थीं. उनकी मां का नाम हिसार जिला बैडमिंटन संघ में भी दर्ज है और उन्होंने क्लब स्तर पर भी काफी बैडमिंटन खेला है. साइना के मुताबिक उनकी मां ने उनके जन्म के बाद आधिकारिक तौर पर खेलना छोड़ दिया था. फिर भी वे रोज शाम को शौकिया तौर पर कृषि विश्वविद्यालय के क्लब में बैडमिंटन जरूर खेलने जाया करती थीं. इस दौरान साइना और उनकी बड़ी बहन भी उनके साथ होती थीं.
मां के दिमाग में उन्हें एक बड़ा खिलाड़ी बनाने के लक्ष्य के बारे में साइना कुछ भी साफ़ तौर पर नहीं कहतीं. लेकिन, जिस तरह से उनकी मां ने उन्हें लेकर फैसले लिए या जिस तरह की घटनाएं उनके बचपन में हुईं, उनसे साफ़ हो जाता है कि मां ने साइना के लिए कुछ बड़ा सोच रखा था. साइना कहती भी हैं कि उनके जीवन के लगभग सभी बड़े फैसले उनकी मां ने लिए और घर में उनकी मां ही सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी भी रहीं.
साइना को लेकर उनकी मां की महत्वाकांक्षा का एक अंदाजा इससे भी मिलता है कि उनकी मां ने जन्म से पहले ही उनका नाम 'स्टेफी' रखने के बारे में सोच लिया था. स्टेफी ग्राफ उस समय टेनिस की दुनिया में छाई हुई थीं. साइना बताती हैं कि हिसार में आठ साल की उम्र तक सभी लोग उन्हें इसी नाम से बुलाते थे. इसके बाद जब उनके पिता का तबादला हैदराबाद हो गया तब उन्हें उनके आधिकारिक नाम साइना से बुलाया जाने लगा लेकिन, मां आज भी उन्हें स्टेफी ही बुलाती हैं.
1998 में पिता के तबादले के बाद हैदराबाद पहुंचने पर साइना के पिता को पता चला कि आंध्र प्रदेश खेल प्राधिकरण बैडमिंटन का एक समर कैंप आयोजित करने जा रहा है. उन्होंने आठ वर्षीय साइना को करीब एक महीने के इस कैंप में भेजने का निर्णय लिया. साइना के मुताबिक हैदराबाद में यह कैंप लालबहादुर स्टेडियम में आयोजित होता था, जोकि उनके पिता को मिले सरकारी क्वार्टर से करीब 25 किलोमीटर दूर था. अपनी किताब 'मेरा रैकेट मेरी दुनिया' में वे लिखती हैं कि कैंप पहुंचने के लिए उनकी मां सुबह पांच बजे उठा करती थीं और उन्हें लेकर स्टेडियम जाती थीं. कैंप में उन्हें कई तरह के व्यायाम कराये जाते थे. साथ ही हर रोज चार से पांच किलोमीटर दौड़ाया जाता था. उनकी मां इस ट्रेनिग को करीब से देखती थीं. वे उनकी ट्रेंनिग को लेकर इतनी ज्यादा गंभीर थीं कि अक्सर वे उनके कोचों को भी समझाने लगती थीं. साइना की मां ट्रेनिंग के बाद घर पर भी उन्हें जमकर अभ्यास और व्यायाम कराती थीं.
साइना यह भी लिखती हैं कि एक महीने बाद इस समरकैंप की समाप्ति पर इसमें शामिल हुए सभी बच्चों में से एक को आगे की ट्रेंनिग के लिए चुने जाने की बात कही गई. इसके लिए उनका चयन किया गया. उनके मुताबिक कैंप के दौरान उन्हें लगता था कि मम्मी ने सिर्फ गर्मी की छुट्टियों की वजह से उन्हें इस कैंप में भेजा है. लेकिन, उनकी मां उनके खेल को लेकर काफी ज्यादा गंभीर थीं और उन्होंने स्कूल खुलने के बाद भी उनकी ट्रेनिंग को जारी रखने का फैसला किया. साइना के करीबियों की मानें तो समर कैम्प में साइना के शानदार प्रदर्शन से उनकी मां समझ चुकी थीं कि उनकी बेटी लंबी रेस का घोड़ा साबित होने की काबिलियत रखती है.
हालांकि, ट्रेनिंग जारी रखने का फैसला कोई छोटा फैसला नहीं था क्योंकि इसने घर के सभी सदस्यों की जिंदगी बदल कर रख दी थी. 25 किलोमीटर दूर होने वाली ट्रेनिंग पर जाने के लिए साइना की मां सुबह चार बजे उठती थीं. वे उसी समय लंच बनाकर उन्हें और उनके पिता को दिया करती थीं. साइना अपने पिता के साथ छह बजे से शुरू होने वाली ट्रेनिंग में पहुंचती थीं. स्टेडियम से ही सुबह की ट्रेनिंग खत्म होने के बाद वे उलटे पांव स्कूल के लिए भागती थीं. स्कूल खत्म होने पर तीन बजे उनकी मां उन्हें लेने पहुंच जाती थीं. वे स्कूल से सीधे उन्हें फिर स्टेडियम ले जाती थीं. शाम की ट्रेनिंग के बाद करीब नौ बजे रात के ये लोग घर पहुंचते थे. साइना बताती हैं कि कड़ी ट्रेनिंग की वजह से आए-दिन वे रात में पैरों की मांसपेशियों में दर्द की वजह से चिल्ला उठती थीं जिसके बाद उनकी मां रात में कई घंटों तक उनके पैरों की मालिश किया करती थीं. साइना के मुताबिक वे जानती थीं मम्मी-पापा दोनों भी उनके संघर्ष में उनके बराबर के साथी हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी इस चीज को जाहिर नहीं होने दिया.
2015 में विश्व की नंबर एक बैडमिंटन खिलाड़ी बनने का गौरव हासिल कर चुकी साइना नेहवाल मानती हैं कि उनमें सपने देखने और आगे बढ़ने की इच्छा शक्ति भी मां के कारण ही आई. एक घटना का जिक्र करते हुए बताती हैं कि जब वे 10 साल की थीं तब उन्होंने पहली बार अपनी मां से पूछा था कि दुनिया के सबसे अच्छे बैडमिंटन खिलाड़ी और उनमें क्या अंतर है ? तब उनकी मां ने उनकी आंखों में आंखें डालकर उनसे कहा था कि उनकी मेहनती बेटी से कोई कैसे अच्छा हो सकता है. साइना के मुताबिक यह उनके लिए अचंभित करने वाला था क्योंकि उन्होंने 10 वर्ष की उम्र में यह प्रश्न मां से पूछा था और उनकी मां ने इस पर बिना हंसे इसे काफी गंभीरता से लिया था. वे कहती हैं कि इस प्रश्न का जवाब देते हुए मां के हाव-भाव ने उनमें पहली बार एक बड़ा खिलाड़ी बनने का विश्वास जगाया.
साइना की मानें तो जिला स्तर पर खेल की शुरुआत करने से लेकर उनके अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी बनने तक उनकी मां साए की तरह उनके साथ लगी रहीं. वे आधिकारिक कोच मिलने के बावजूद देश-विदेश में लगभग हर टूर्नामेंट में उनके साथ जाती थीं. साइना कहती हैं कि जहां मेरे पिता मेरा लाइव मैच देखने से घबराते रहते थे वहीं उनकी मां दृढ़ता के साथ मैच के दौरान सबसे आगे की पंक्ति में बैठा करती थीं. इस दौरान वे चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें निर्देश दिया करती थीं. वे मैच के दौरान होने वाली गलतियों को देखती और बाद में साइना से इन पर लंबी चर्चा किया करती थीं.
साइना नेहवाल हमेशा कहती हैं कि इस खेल के गुण उन्हें मां से ही मिले. साथ ही दृढ़ता, विश्वास, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य न खोना और एक चैंपियन की तरह सोचने जैसी खूबियां भी उन्हें मां से ही मिली हैं. हालांकि, वे अपनी मां के एक नकारात्मक पहलू का जिक्र करने से भी कभी नहीं हिचकतीं. वे कहती हैं, 'जब मैं हार जाती थी तो मां बहुत नाराज हुआ करती थीं जिस वजह से हार के बाद मैं बहुत डर जाती थी, उन्हें केवल मेरा जीतना ही अच्छा लगता है. लेकिन हमेशा जीतना संभव तो नहीं हो सकता.' उनके मुताबिक उनकी मां में उनकी जीत को लेकर इतना ज्यादा जूनून था कि वे उनसे यह तक कहती थीं, 'ये दिमाग से निकाल दो की जीत और हार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, ऐसा कभी नहीं होता, इन दोनों में से कोई एक ही होता है या तो जीत या हार.'
साइना को करीब से देखने वाले एक खेल पत्रकार कहते हैं कि 'महत्वाकांक्षा' शब्द को हमेशा ही नकारात्मक रूप से देखा जाता है, लेकिन यह सकारात्मक भी हो सकती है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण साइना की मां हैं. अगर उनमें साइना को विश्वस्तरीय खिलाड़ी बनाने की महत्वाकांक्षा न होती तो शायद आज भारत को यह अनमोल रत्न नहीं मिलता.