श्रीनिवास रामानुजन विश्व के महानतम गणितज्ञों में गिने जाते हैं. अगर विश्लेषण किया जाये तो हम पायेंगे कि वे अल्बर्ट आइन्सटीन के स्तर के, अपने समय के सबसे अधिक प्रतिभावान लोगों में से एक थे.
सामान्यतः महान लोग दो प्रकार के माने जा सकते हैं - एक तो ऐसे महान लोग कि अगर कोई व्यक्ति सामान्य से सौ गुना मेहनत करे, तो उन लोगों जैसा महान व्यक्तित्व बन सकता है. लेकिन कुछ महान लोग जादूगरों की तरह होते हैं, उनके काम की आप प्रशंसा तो कर सकते हैं मगर उन जैसा काम आप मेहनत के बल पर नहीं कर सकते. श्रीनिवास रामानुजन दूसरे तरह के महानतम व्यक्तित्वों में से ही एक थे. उनके लिखे कई सूत्र या प्रमेय आज भी हल नहीं किये जा सके है, या कहें कि उनकी उपपत्ति (हल) आज भी उपलब्ध नहीं है. लेकिन उन सूत्रों का उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सफ़लता के साथ हो रहा है. पूरी दुनिया के तमाम महान वैज्ञानिक और गणितज्ञ रामानुजन के द्वारा लिखे गये सूत्रों पर आज भी गहन शोध कार्य कर रहे हैं.
प्रोफ़ेसर जीएच हार्डी का रामानुजन की प्रतिभा को निखारने में और उन्हें मौके देने में अभूतपूर्व योगदान था. रामानुजन उनके पास इंग्लैण्ड में मात्र पांच साल ही रहे. इन पांच वर्षों में उन्हें हार्डी ने हर प्रकार से सुविधाएं दीं और उनका व्यक्तिगत तौर पर ख्याल रखा. रामानुजन को "रॉयल सोसाइटी के फैलो" के रूप में चयन करवाने के लिए भी उन्होंने अनगिनत कोशिशें कीं. प्रोफ़ेसर हार्डी रामानुजन के गुरु और मित्र दोनों थे.
सन 1919 में कैम्ब्रिज में पांच वर्ष गुज़ारने के बाद रामानुजन गिरते स्वास्थ्य के कारण वापस भारत आ गए थे. 26 अप्रैल, 1920 को वे लम्बे समय तक खराब स्वास्थ्य के कारण सुबह ही अचेत हो गये और कुछ घंटों बाद चिर निद्रा में सो गये.
रामानुजन की मृत्यु की खबर जब प्रोफ़ेसर हार्डी तक पहुंची तो उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय समेत रॉयल सोसाइटी आदि संस्थानों में रामानुजन की याद में शोक-सभाएं आयोजित करवायीं.
जीएच हार्डी स्वयं भी बहुत ही ऊंचे दर्जे के गणितज्ञ थे, लेकिन वे हमेशा कहते थे कि उनके जीवन की सबसे बड़ी खोज रामानुजन हैं. बर्ट्रेंड रसेल को एक बार उन्होंने उत्साहित होकर कहा था, "तुम नहीं जानते, मैंने दूसरा न्यूटन खोज लिया है."
श्रीनिवास रामानुजन के महाप्रयाण पर प्रसिद्ध जर्नल 'नेचर' (वॉल्यूम 105, जून, 1920) में प्रोफ़ेसर जीएच हार्डी द्वारा लिखा यह शोक सन्देश प्रकाशित हुआ था:
श्रीनिवास रामानुजन, जिनकी मृत्यु की घोषणा "नेचर जर्नल" ने 03 जून को की थी. वे सन 1988 में मद्रास के पास पैदा हुये थे. वे बेहद गरीब माता-पिता की संतान और जाति से ब्राह्मण थे. मैं उनकी शुरूआती शिक्षा और अतीत के बारे में ज्यादा नहीं जानता, लेकिन वे मद्रास विश्वविद्यालय के छात्र रहे और उन्होंने कुछ परीक्षाएं भी पास कीं. हालांकि वे डिग्री पाने के लिए जरूरी कोर्स पूरा नहीं कर सके. बाद में वे मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में 25 पाउंड प्रति वर्ष के बराबर के वेतन पर क्लर्क रहे. उस समय तक उनकी असाधारण योग्यताओं के बारे में बातें फ़ैलने लगी थीं और मुझे लगता है कि डॉ जीटी वाकर के हस्तक्षेप के कारण, उन्हें एक छोटी सी छात्रवृत्ति मिल गई थी जिसने उन्हें (मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के) दफ्तर के कामकाज से निवृत्त करके शोध करने के लिए मुक्त कर दिया था.
मैंने रामानुजन के बारे में पहली बार 1913 में सुना था. उनका पहला पत्र जो उन्होंने मुझे भेजा था, वह निश्चित रूप से उल्लेखनीय है, ऐसा पत्र मुझे कभी नहीं मिला था. शुरुआत में बहुत संक्षिप्त परिचय लिखा हुआ था. जैसा कि उन्होंने मुझे बाद में एक दोस्त के रूप में भी बताया था, पत्र के मुख्य भाग में सौ से भी अधिक गणितीय प्रमेयों की स्थापना यानी कथन लिखे हुए थे. कुछ सूत्र जाने-पहचाने थे, और बाकी ऐसे थे कि जिन पर बहुत कठिनाई से भी विश्वास कर पाना संभव नहीं था. कुछ (जो कि अभाज्य संख्याओं के वितरण सम्बन्धी थे) निश्चित रूप से गलत कहे जा सकते थे. उन (प्रमेयों) की उपपत्तियां नहीं दी गयीं थी और जो भी स्पष्टीकरण थे वे अक्सर पर्याप्त नहीं थे. तमाम मामलों में एक स्थिरांक (कॉन्स्टंट) अथवा प्राचल (पैरामीटर) का विचित्र प्रयोग सूत्र का अर्थ समझने में कठिनाई पैदा कर रहा था. स्वाभाविक ही था कि रामानुजन को अपने गणितीय रहस्य किसी विदेशी गणितज्ञ को सौंप देने में थोड़ा झिझक हो रही थी. पत्र लिखने में उनके जो भी संदेह रहे हों, मगर (पत्र से) यह बहुत साफ़ था कि पत्र का लेखक बहुत ही ऊंचे दर्जे का गणितज्ञ था, कोई बहुत असाधारण मौलिकता और क्षमताओं वाला इंसान.
यह समझ पाना मुश्किल नहीं था कि रामानुजन को इंग्लैण्ड ज़रूर आना चाहिए. इसके लिए आर्थिक-संसाधन जुटाने में कोई समस्या नहीं थी. उनका खुद के मद्रास विश्वविद्यालय और ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज ने इस असामान्य परिस्थिति में प्रशंसनीय दयालुता और कल्पनाशीलता का परिचय दिया. जाति और धर्म की समस्या अत्यधिक गंभीर थी, लेकिन प्रोफ़ेसर ईएच नेविल के प्रयासों के कारण, जो कि सौभाग्य से इसी दौरान सन 1913-14 की सर्दियों में मद्रास में भाषण देने गए थे, अंततः इन कठिनाइयों से पार पा लिया गया और रामानुजन अप्रैल, 1914 में इंग्लैण्ड पहुंच गए.
इस प्रयोग का अंत एक आपदा में बदल गया, इंग्लैण्ड में लगभग तीन साल बाद ही रामानुजन बीमार हो गए और वह कभी ठीक न हो सकी. लेकिन इन तीन सालों में (रामानुजन नें) बहुत ही बुलंद सफलता हासिल की थी. जीवन में पहली बार हासिल हुई एक बहुत ही सुखद परिस्थिति में, काम करने की पूरी स्वतंत्रता के साथ, आधुनिक स्कूल के बेहतरीन गणितज्ञों के संपर्क में रहकर रामानुजन ने बहुत ही तेजी से विकास किया. उन्होंने कुछ बीस शोधपत्र प्रकाशित किये जिन्होंने युद्ध के समय में भी बड़ी मात्रा में लोगों का ध्यान आकर्षित किया.
सन 1918 के बसंत में वे रॉयल सोसाइटी के पहले भारतीय फेलो चुने गए और अगले ही पतझड़ में वे ट्रिनिटी के भी पहले भारतीय फेलो चुन लिए गए. इसके अलावा मद्रास विश्वविद्यालय ने भी उन्हें अपना शोध-छात्र बना दिया और सन 1919 की शुरुआत में, तबियत ख़राब होने के बावजूद, हालांकि उस समय उनकी स्थिति कुछ बेहतर थी, वे भारत वापस लौट गए. वहां से उनके बारे में जानकारी पाना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन थोड़े-थोड़े अंतराल पर उनके बारे में खबरें मिलती रहीं. उन्होंने दोबारा से अपना काम शुरू करने के लिए फिर खुद को तैयार कर लिया था और मैं उनकी मृत्यु की खबर सुनने के लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था.
रामानुजन का कार्यक्षेत्र ऐसा है कि गणितज्ञों में भी बहुत कम लोग ही उसे समझ पाते हैं- जैसे 'एलिप्टिक फंक्शंस' का 'थियरी ऑफ नंबर्स' में इस्तेमाल, थियरी ऑफ कंटीन्यूड फ्रैक्शंस और शायद इन सबसे ऊपर 'थियरी ऑफ पार्टीशंस'. उनकी गणितीय सूत्रों के सम्बन्ध में अंतर्दृष्टि आश्चर्यजनक थी और कुल मिलाकर उससे परे जो यूरोप के उन गणितज्ञों में थी जिनसे मैं मिला हूं. शायद उनके अतीत के बारे में यह अनुमान लगाना बेकार है कि यदि आधुनिक (गणितीय) विचारों और पद्धतियों से उनका परिचय छब्बीस की उम्र के बजाय सोलह साल में करा दिया जाया तो क्या होता. यह सोचना बहुत ज्यादा नहीं है कि वे अपने दौर के सबसे महानतम गणितज्ञ बन सकते थे. लेकिन उन्होंने जो किया वह भी कम चमत्कारिक नहीं है. आज से बीस साल बाद, जब वे शोध कार्य पूरे होंगे, जो आज रामानुजन के काम ने सुझाए हैं, तब शायद ये उससे ज्यादा चमत्कारिक लगेगा जितना आज प्रतीत होता है.
साभार: नेचर
डॉ मेहेर वान पेशे से एक वैज्ञानिक हैं और विज्ञान के इतिहास में गहरी रूचि रखते हैं.