ट्रंप, शी और डॉ. टेडरस ने डब्ल्यूएचओ को बना दिया चीन-अमेरिका का अखाड़ा

Trump, Xi and Dr. Tedros made WHO the Sino-US arena

Who was the first director general of the World Health Organization (WHO)?
डॉ. जार्ज ब्रोक चेसोम ( Dr George Brock Chisholm ) जेनेवा स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के पहले डायरेक्टर जनरल बने थे। 'वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन' नाम भी इन्हीं का दिया हुआ था। उन्होंने स्पष्ट किया था कि यह संगठन पूरे विश्व के स्वास्थ्य से सरोकार रखेगा, सबकी सेवा करेगा।
Biography of Dr George Brock Chisholm | डॉ . जॉर्ज ब्रॉक चिशोल्म की जीवनी
कनाडा के ओन्टारियो में जन्मे डॉ. चेसोम 1948 से 1953 तक डब्ल्यूएचओ के डीजी रहे थे। इनके समय में मिस्र में हैजा, और ग्रीस व सार्डिनिया में मलेरिया ने महामारी का रूप ले लिया था। इन दोनों महामारियों को फैलने से रोकने के कारण विश्व के नेताओं ने डॉ. जार्ज ब्रोक चेसोम की सराहना की थी।
Dr Marcolino Gomes Candau served as WHO's second Director-General from 1953 to 1973.
1953 से 1973 तक ब्राजील के डॉ. मार्कोलिनो गोम्स कांडेऊ विश्व स्वास्थ्य संगठन के दूसरे महानिदेशक बने।
Dr Halfdan Theodor Mahler served 3 successive terms as Director-General of WHO, from 1973 to 1988.
इनके बाद डब्ल्यूएचओ के तीसरे डीजी डॉ. हाफदान मेहलर बने। डेनमार्क में जन्मे डॉ. हाफदान 1973 से 1988 तक तीन टर्म विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक रहे थे।
डॉ. हाफदान मेहलर ने 1951 में भारत में डब्ल्यूएचओ ज्वाइन किया था। दस वर्षों तक टीबी के उन्मूलन वाले कार्यक्रम में वे सक्रिय रहे थे। गरीबों को इलाज मयस्सर हो, शुरू से डॉ. हाफदान मेहलर का यह लक्ष्य रहा था। 1976 में कांगो में इबोला का प्रकोप, डॉ. मेहलर के लिए बड़ी चुनौती थी। उनकी देखरेख में 1977 से 1980 के बीच चेचक को नियंत्रित किया गया। सन् '2000 तक हेल्थ फॉर ऑल' का लोकप्रिय कार्यक्रम की शुरूआत डॉ. हाफदान मेहलर ने की थी। मगर, उसमें अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिल पाई थी।
1988 से 1998 तक डॉ. हीरोशी नाकाजिमा डब्ल्यूएचओ के चौथे डीजी बने, जिन्हें पोलियो से मुक्ति दिलाने का श्रेय जाता है।
1998 से 2003 तक टीबी विश्वव्यापी समस्या थी।
नार्वे में जन्मी डॉ. ग्रो हरलेम ब्रुंड्टलांड पांचवी डीजी थीं, जिन्होंने इसे गंभीरता से लिया।
2003 में दक्षिण कोरिया के डॉ. ली योंग वुक डब्ल्यूएचओ के छठे डीजी नामित हुए। इन्हें टीबी के टीके उपलब्ध कराने का श्रेय दिया जाता है। इन्होंने दुनिया भर में ढाई सौ पार्टनर जुटाये थे।
23 मई 2006 से 3 जनवरी 2007 तक सातवें कार्यकारी डीजी के रूप में स्वीडेन के डॉ. एंडर्स नार्डस्ट्रोम का कार्यभार संभाला। उनके समय तक विश्व एडस, टीबी, और मलेरिया से जूझ रहा था। इनके बाद 9 नवंबर 2006 से 2017 तक चीनी मूल की डॉ. मागर्रेट चन डब्ल्यूएचओ की आठवीं डीजी बनीं।
उससे पहले 2003 में मार्गरेट चन जब हांगकांग में डायरेक्टर हेल्थ थीं, सार्स (जिस परिवार का कोविड-19 है ) का प्रकोप आया, जिसमें हांगकांग सबसे अधिक प्रभावित था।
पहले राउंड में 299 लोगों की मौत के समय डॉ. मागर्रेट चन ने बयान दिया- 'मैं तो रोज चिकन खाती हूं, मुझे कुछ हुआ? खामख्वाह हाहाकार न मचाएं।'
डॉ. चन ऐसी बयानबा जी से सर्वाधिक लापरवाह और अक्खड़ डायरेक्टर घोषित हो चुकी थीं। हांगकांग से पूर्वी एशिया, फिर उत्तरी अमेरिका, यूरोप में सार्स (सीवियर एक्यूट रेसीपिरेटरी सिंड्रोम) फैला। देखते-देखते पूरी दुनिया में 800 लोग सार्स से मर गये। इस नाकारापन के बावज़ूद डॉ. मागर्रेट चन तीन साल बाद 2006 में डब्ल्यूएचओ की डीजी चुनी गईं।
डब्ल्यूएचओ के विवादों का इतिहास | History of WHO disputes
ऐसा नहीं है कि कोरोना के समय ही डब्ल्यूएचओ विवाद के घेरे में आया है। 14 साल पहले की घटनाएं इसकी गवाह हैं।
डब्ल्यूएचओ की डीजी चन अपने एरोगेंस वजह से कई बार मीडिया व सिविल सोसाइटी के निशाने पर आईं। 2007 में थाईलैंड में सिविल सोसाइटी वालों ने जेनेरिक मेडिसिन को लेकर उनके बयान की म जम्मत की थी।
2009 में फ्लू के प्रकोप के समय चन ने बोल दिया था, 'ये लोग बेमतलब स्यार की तरह हुआं-हुआं कर रहे हैं।'
अप्रैल 2010 में चन उत्तर कोरिया गईं। खस्ता हाल उत्तर कोरियाई हेल्थ सिस्टम की प्रशंसा कर सबको चकित कर दिया था। वाल स्ट्रीट जर्नल ने लंबा संपादकीय लिखा - 'या तो डब्ल्यूएचओ की डीजी मिस चन सच्चाई से दूर हैं, या फिर जानबूझ कर बेवकूफ बनी हैं।'
2013 में चन ने सीरिया में पोलियो की वापसी को गंभीरता से नहीं लिया। मैडम चन वहां के शासक बशर अल-असद की मिजाजपुर्सी में लगी रहीं। उन्होंने आलोचना की भी परवाह नहीं की।
2014-15 में पश्चिम अफ्रीकी देशों में इबोला कहर बरपा रहा था, दूसरी ओर, डब्ल्यूएचओ सुस्त पड़ा था। उसी दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन के बजट से एक अरब डॉलर की कटौती की गई। परिणामस्वरूप डब्ल्यूएचओ मुख्यालय से 300 लोगों की नौकरी चली गई।
यह दिलचस्प है कि चन ने जाते-जाते जनवरी 2017 में चीन की महत्वाकांक्षी 'वन बेल्ट वन रोड इनिशियेटिव' को विश्व स्वास्थ्य संगठन से जोड़ दिया। लगे हाथ चन ने अप्रैल 2017 में 'चाइना-अफ्रीका हेल्थ मिनिस्टर्स कांफ्रेंस' भी करा लिया।
डॉ. टेडरस आधानाम ग्रेब्रियेसस डब्ल्यूएचओ का डीजी बनने से पहले इथियोपिया के स्वास्थ्य और विदेशमंत्री थे। उन्हें इस पद पर लाने के वास्ते चीन ने जबरदस्त लॉबीबाजी की थी। उन दिनों जेनेवा स्थित विश्व स्वास्थ्य संगठन के बाबू लोग विरोधियों के ईमेल तक चीनी लॉबी के हवाले कर दिया करते थे। इस तरह के गड़बड़ झाले चुनाव बाद उजागर हुए। डब्ल्यूएचओ में चीन की महत्ता को इसी से समझ सकते हैं कि चुनाव से ठीक पहले डॉ. टेडरस आधानाम ग्रेब्रियेसस को पेइचिंग विश्वविद्यालय में भाषण देने के वास्ते बुलाया गया था।
23 मई 2017 के चुनाव में 185 में 123 वोट डॉ. टेडरस को मिले थे। अब इसे दुर्भाग्य कहें या सौभाग्य, विश्व स्वास्थ्य संगठन के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब एक नॉन मेडिकल प्रोफेशनल को डीजी पद पर आसीन होने का अवसर मिला।
चीन से उपकृत डॉ. टेडरस ने 'वन बेल्ट वन रोड इनिशियेटिव' को पहले ही राउंड में आगे बढ़ाना आरंभ किया। इसका परिणाम यह हुआ कि एचआईवी, टीवी, मलेरिया, सार्स, जीका जैसे महामारी उन्मूलन के वास्ते रिसर्च, ड्रग व मेडिकल सामग्री सप्लाई में चीन की भूमिका अग्रणी हो गई। अमेरिका का मेडिकल कारोबार इससे सीधा प्रभावित हो रहा था। इससे चिढ़े ट्रंप प्रशासन ने ग्लोबल हेल्थ में फंड कटौती की घोषणा 2017 में कर दी थी। इसे ध्यान में रखा करें कि फरवरी 2020 में ग्लोबल हेल्थ प्रोग्राम में 3 अरब डॉलर की कटौती की घोषणा पहली बार नहीं हुई है। इस कतर-ब्यौंत की एक वजह यह भी है कि पिछले तीन वर्षों से डब्ल्यूएचओ , चीन और अमेरिका का अखाड़ा बना हुआ था।
Did the WHO DG, Dr Tedros Adhanom Ghebreyesus, have been negligent in helping the whole world beware and supportive of the outbreak of Corona?
जो बात बहस के केंद्र में है, वह यह कि क्या डब्ल्यूएचओ के डीजी डॉ. टेडरस ने कोरोना के प्रकोप से पूरे विश्व को सावधान व सहयोग करने में लापरवाही बरती थी ? यह अमेरिकी दुष्प्रचार है, या वास्तव में ऐसा हुआ है?
22 जनवरी 2020 को पेइचिंग में प्रेसिडेंट शी से डब्ल्यूएचओ के डीजी डॉ. टेडरस मिले थे। 11 मार्च 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविद-19 वायरस को सर्वव्यापी महामारी (पेन्डेमिक) घोषित किया था। इन 48 दिनों में डब्ल्यूएचओ की क्या भूमिका रही? क्यों कोरोना को पेन्डेमिक घोषित करने में इतना समय लिया, इस सवाल का उत्तर जानने को पूरी दुनिया आतुर रहेगी ही।
हम ऐसा भी नहीं कह सकते कि डब्ल्यूएचओ कोरोना वायरस के पूरी दुनिया में पसर जाने से अनजान रहा है। 31 जनवरी 2020 के डाटा के आधार पर डब्ल्यूएचओ की वेबसाइट जानकारी देती है कि उस समय तक कोरोना वायरस से 213 मौतें चीन में हो चुकी थीं। वुहान समेत पूरे चीन में कोरोना वायरस के 9720 कन्फर्म केस मिले थे। तब तक 19 देशों में कोरोना वायरस से प्रभावित 106 लोग थे, उनमें से अधिकतर की ट्रेवल हिस्ट्री बता रही थी कि वे लोग चीन की यात्रा कर अपने देशों में लौटे थे। उस समय ऑस्ट्रेलिया में नौ, कंबोडिया में एक, कनाडा में तीन, फिनलैंड में एक, फ्रांस में छह, जर्मनी में पांच, इटली में 2, जापान में 14, मलयेशिया में आठ, फिलीपींस में एक, सिंगापुर में 13, दक्षिण कोरिया में 11, वियतनाम में पांच, थाईलैंड में 14, यूएई में चार, अमेरिका में छह, श्रीलंका में एक और भारत में मात्र एक कोरोना के पॉजिटिव केस का पता चला था। सवाल यह है कि 11 मार्च 2020 को इसे पेन्डेमिक होने तक का इंतजार क्यों किया गया?
Does the World Health Organization have no responsibility for this?
दुनियाभर में देखते-देखते डेढ़ लाख लोग मौत के मुंह में समा गये। 22 लाख लोग कोविड-19 की चपेट में हैं। क्या इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है ?
एक ओर अमेरिका डब्ल्यूएचओ पर विफलता का ठीकरा फोड़ रहा है, दूसरी ओर चीन, डॉ. टेडरस को बचाने के अभियान में लगा हुआ है। चीनी मीडिया का रूख उसी के मुताबिक है।
17 अप्रैल को ग्लोबल टाइम्स में लेख आया कि अमेरिका ने चीन का चंपू होने का आरोप लगाते हुए, डब्ल्यूएचओ का फंड जिस तरह से रोकने का प्रयास किया है, वह उसकी बौखलाहट के साथ चौधराहट को भी दर्शाता है।
अखबार के अनुसार, अमेरिकी चौधराहट के दो स्तंभ हैं। एक सैन्य ताकत, दूसरा उसका फाइनेंशियल सिस्टम।
ग्लोबल टाइम्स लिखता है कि यूरोप और अमेरिका दोनों के पास तकनीक और संसाधन थे, जिससे वे कोरोना का विस्तार रोकते, मगर इन देशों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझावों को ताक पर रखा, उसकी अवहेलना की।
देर-सबेर कोरोना के कहर को कमतर हो जाना है। मगर, क्या 194 देशों का प्रतिनिधित्व करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन उस खेमेबाजी से बाहर निकल पायेगा? उसके वास्ते डब्ल्यूएचओ के डीजी डॉ. टेडरस भी कम दोषी नहीं हैं। उदाहरण के लिए 2018-19 में विश्व स्वास्थ्य संगठन का बजट था 4.4 अरब डॉलर। इसका सबसे बड़ा हिस्सा 635 मिलियन डॉलर अफ्रीका को गया है। अमेरिका के हिस्से आया मात्र 67 मिलियन डॉलर, जबकि अमेरिका सबसे बड़ा डोनर देश है। साउथ ईस्ट एशिया जिसमें भारत भी आता है, उसके हिस्से 152 मिलियन डॉलर आया था।
डब्ल्यूएचओ मुख्यालय पर सबसे अधिक,657 मिलियन डॉलर गया है। इसे दुनिया का कोई भी योजनाकार संतुलित हिस्सेदारी कहेगा क्या? चीन को इस बंदरबांट में कोई आपत्ति नहीं है। चीन को पूजते हुए डीजी डॉ. टेडरस को अपना अफ्रीकी अजेंडा चलाए रखना है!
पुष्परंजन
नोट्स - (Source : WHO)
Dr George Brock Chisholm
Dr George Brock Chisholm served as WHO's first Director-General from 1948 to 1953.
Born in Oakville, Ontario (Canada), on 18 May 1896, Dr Chisholm died in Victoria, British Columbia (Canada) on 4 February 1971.
After fighting in the First World War, Dr Chisholm studied medicine at the University of Toronto. He focused his post-graduate work on psychiatry, interning at several hospitals in London, later pursuing further studies on the mental health of children at Yale University. Dr Chisholm also practised psychological medicine in Toronto.
During the Second World War, Dr Chisholm held various military posts, ending as Director of Medical Services and Chief of Personnel Selection, with rank of Major General. He was the first psychiatrist to head the medical services of any army.
The Canadian Government created the position of Deputy Minister of Health in 1944, and Chisholm was first the person to occupy the post until being elected as Executive Secretary of the WHO Interim Commission in July 1946.
Succeeding the League of Nations' Health Organization, the World Health Organization was established in April of 1948, with Chisholm as its Director-General.
It was Chisholm who proposed the name 'World Health Organization', with the intent of emphasizing that the Organization would be truly global, serving all nations.
In 1951, Dr Mahler joined WHO and spent nearly 10 years in India as a Senior Officer attached to the National Tuberculosis Programme. He was appointed as Chief of the Tuberculosis Unit at WHO headquarters in Geneva in 1962, and in 1969 was appointed as Director, Project Systems Analysis.

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