उनके बारे में विशेषज्ञता के साथ लिखने-बोलने का दावा तो आज के दौर में शायद चंद लोग भी न कर पाएं. लेकिन कुछेक छोटे-छोटे किस्से ज़रूर हैं जो उनके बड़े क़द और उनकी विधा में उनके 'सर्वशीर्ष' होने की झलक देते हैं. ये बताते हैं कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के वे 'गंधर्व' सिर्फ़ पदवी से 'कुमार' थे. बाकी कहीं किसी मामले में 'सवाई' (इसका आशय पदवी के बजाय क़द के परिमाण से लगाना चाहिए क्योंकि सवाई गंधर्व की पदवी एक और महान गायक को मिली हुई है.) से कम न थे. निश्चित रूप से यहां शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकाली यानी कुमार गंधर्व की ही बात हो रही है. आज फिर उनकी स्मृतियों को तरोताज़ा करने का दिन है.
कुमार गंधर्व से जुड़े कई किस्से क़िताबों के सफ़ों (पन्नों) में दर्ज़ हो चुके हैं. ऐसी ही एक प्रामाणिक क़िताब है ख़ुद कुमार जी की लिखी 'अनूपरागविलास'. यह क़िताब दो खंड में है. और इसके पहले खंड में अपने जमाने के ख्यात संगीत समालोचक (क्रिटिक), संगीतशास्त्री (म्यूजिकोलॉजिस्ट) और लेखक वामनराव देशपांडे ने 27 पन्नों की भूमिका लिखी है. लेकिन यक़ीन कीजिए जैसे-जैसे आप इस बड़ी सी भूमिका को पढ़ते हुए बढ़ते हैं कुमार जी का क़द और बड़ा लगता जाता है.
वामनराव इस क़िताब में कुमार जी के लालित्य, साहित्य और प्रयोधर्मिता की बात करते-करते जब पहली बार उनसे जुड़ा कोई किस्सा याद करते हैं तो उनकी लिखी भूमिका के 10 पन्ने गुजर चुके होते हैं. यहां फिर पन्नों की संख्या का उल्लेख करने का मतलब और मक़सद सिर्फ़ यह याद रखना और कराना है कि जिस शख़्सियत की बात हो रही है उनके बारे में लिखते-गढ़ते वक़्त अल्फ़ाज़ और सफ़े सब कम पड़ जाया करते हैं. बहरहाल अब यहां वामनराव पहली बार कुमार जी के साथ हुए अपने साक्षात्कार को याद कर रहे हैं. वे लिखते हैं, 'यह 1935 की बात है. उस साल बंबई (मुंबई का पुराना नाम) जिन्ना हॉल में आयोजित संगीत परिषद के सूत्रधार थे मेरे मित्र बीआर देवधर, मोतीराम पै और मैं ख़ुद... परिषद में अनेक जाने-माने गायक-गायिकाओं की महफ़िलें हुईं. कलाकाराें ने अपने जौहर की हद कर दी.... सारा हॉल खचाखच भरा हुआ था. कहीं खड़े रखने की जगह नहीं थी.... रसिकों की भारी भीड़. गुणों को हाथों-हाथ झेल लेने वालों की सभा थी वह.... ऐसी स्थिति में उम्र से बारह किंतु दीखने में नौ वर्ष का बाल कुमार स्टेज पर आ बैठा और उसने सभा पर अपनी आवाज़ का सम्माेहन अस्त्र चला दिया. एक क्षण में वह सारी सभा जैसे उसकी पकड़ में आ गई. हर जगह प्रत्येक हरक़त पर दाद दी जा रही थी. सभा का उत्साह जैसे उबला जा रहा था.... गाना थोड़ी ही देर चला लेकिन हर चेहरे पर विस्मय (बहुत देर तक) अंकित था. हर उपस्थित रसिक एवं कलाकार में इस लड़के की सराहना करने की लहरें उठ रही थीं. लिहाज़ा वहां पुरस्कारों की झड़ी लग गई.... देने वालों में खां साहेबान थे, पंडित जी थे, गायिकाएं थीं. हर एक को यह फ़िक़्र भी थी कि इस लड़के के असामान्य गुणों की देखभाल और विकास कौन करेगा?'
वामनराव के साथ कुमार जी का यह पहला परिचय था. इसके बाद वे थोड़ा आगे बढ़ते हैं और कुमार जी के जीवन का एक पिछला वाक़या सुनाते हैं, 'कुमार जी के पिता सिद्रामप्पा (सिद्धारमैया काेमकाली) अब्दुल क़रीम खां को बहुत चाहते थे. उसी प्रकार वे सुप्रसिद्ध पंचाक्षरी बुआ के मित्र थे और ख़ुद भी गाते थे तथा किसी को सिखाते भी थे. मतलब कुमार जी के घर में उनके जन्म से ही संगीत का वातावरण था और इसीलिए तभी से उन पर संगीत के संस्कार होने लगे. अनजाने ही सुनने की प्रक्रिया निरंतर जारी थी. लेकिन उन्होंने कभी मुंह नहीं खोला. घरभर में किसी को ज़रा भी संदेह तक नहीं था कि इस लड़के के मन में कुछ संस्कार हो रहे हैं या जम रहे हैं. और ऐसी स्थिति में एक दिन उम्र के छठवें वर्ष में जैसे गीली जमीन को फाड़कर अंकुर बाहर आ जाए, कुमार जी एकदम गाने लगे. उस गायन से सबको इतना अचरज हुआ कि कहा नहीं जा सकता. क्योंकि कुमार जी वझेबुआ (उस जमाने के ख्यात शास्त्रीय गायक) का एक ग्रामोफोन रिकॉर्ड सुनकर उसकी हूबहू नक़ल उतार रहे थे.... इस तरह कुमार जी गाने लगे और धीरे-धीरे उनके पिता ने गाना छोड़ दिया.'
वामनराव बताते हैं कि कैसे कुमार जी शुरू-शुरू में तमाम बड़े गायकों की कुछ इस तरह नक़ल उतारा करते थे कि लगता था कि वह असल ही है. इसकी विशेषता यह होती थी कि वे जिस गायक की नक़ल उतारते उसकी गायकी ही वे गाया करते थे. उस गायक के सुर लगाने का तरीका, आलाप का ढंग, तान-पलटों की जाति, लय के न्याय, बोलतानों का तरीका सब उसी का होता था. वह भी कुछ इस अंदाज़ में कि मूल गायक भी उनकी आवाज़ में अपनी गायकी सुनकर भौंचक रह जाते थे. ऐसे भी कुछ वाक़यों का ज़िक्र वे करते हैं, 'अब्दुल करीम खां तथा रामभाऊ सवाई गंधर्व की नक़ल एक के बाद एक उतारकर वे (कुमार जी) इन गुरु-शिष्य (सवाई गंधर्व रामभाऊ कुंडगोलकर, अब्दुल करीम खां के शिष्य थे) का भेद स्पष्ट कर दिखाते थे. एक बार देवधर जी ने केसरबाई (उस दौर की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका) के समक्ष कुमार जी की तारीफ़ की. उस समय केसरबाई को लगा कि वे कुछ यूं ही कह रहे हैं. इससे कुमार जी को गुस्सा आ गया और उन्होंने केसरबाई की 'सुख कर आये' (बंदिश) की नक़ल उतारकर उन्हें विस्मित कर दिया. इसी तरह इलाहाबाद में फ़ैयाज़ खां साहब स्वयं की नक़ल कुमार जी द्वारा सुनकर अचंभित हो गए थे. एक बार सावंतवाडीकर महाराज (महाराष्ट्र की सावंतवाडी रियासत के राजा) ने कुमार जी की क्षमता के प्रति अविश्वास प्रकट किया और कहा- मैं एक रिकॉर्ड सुनवाता हूं वैसा गाकर दिखाओ. उन्होंने जो रिकॉर्ड चुनी वह थी रहिमत खां साहब की. उसे सुनते ही कुमार जी ने तत्काल वैसा ही गा सुनाया. और जिन्ना हॉल में (जहां वामनराव ने पहली बार कुमार जी को देखा) वे अब्दुल करीम खां की नक़ल पेश कर रहे थे.'
वामनराव यह ज़िक्र करना भी नहीं भूलते कि कैसे छोटे से कुमार का 'गायकी के गंधर्व' बनने का सफर शुरू हुआ. यह भी उसी 1935-36 के आसपास की बात रही होगी जब कुमार जी बीआर देवधर के पास संगीत की विधिवत शिक्षा लेने के लिए आए. बाक़लम वामनराव 'देवधर जी का घर या उनकी (संगीत) शाला गायक-वादकों का एक मुकाम ही था. एक भी गायक नहीं था जाे वहां आया-जाया न करता था. और न एक भी गायक-गायकी अथवा संगीत का तत्व ऐसा था जिसकी चर्चा एवं विश्लेषण वहां न हुआ हो....विभिन्न घराने, उनके ख्यातनाम गायक, उनकी अलग-अलग गायकी, देवधर जी की सूक्ष्म दृष्टि से बची नहीं थी. उनके सब गुणों की तथा सब दोषाें की चर्चा वहां खूब होती थी....इस संयोग का कुमार जी के मन पर उनकी किशोर तथा तरुण अवस्था में कितना गहरा असर हुआ होगा इसकी मात्र कल्पना ही की जा सकती है. फ़लां गायक में फ़लां दोष है यह जान पड़ने पर कुमार जी मन ही मन निश्चय करते कि मेरे गायन में यह दोष नहीं आ पाएगा. फलां-फलां बात बहुत अच्छी है किंतु उतनी ही कठिन भी यह तय पाए जाने पर कुमार जी मन ही मन प्रतिज्ञा करते कि मैं उसे कर दिखाऊंगा.... देवधर जी हर किसी के गायन में कुछ न कुछ ख़ामी बतलाते. परिणामस्वरूप कुमार जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं इनमें से किसी की भी तरह नहीं गाऊंगा और न किसी की नक़ल करूंगा.'
और फिर इसके बाद लेखक जिसे अपनी दृष्टि से किसी भी महान शख़्सियत के सफ़र की एक अपरिहार्य मंजिल मानते हैं उस वाक़ये का जि़क्र. कुमार के 'गलित हो जाने' और 'गंधर्व के उद्भव' का क्षण. वामनराव लिखते हैं, 'देवधर की तालीम और संग-साथ के कारण सब बदलता चला गया. ज्यों-ज्यों समझ बढ़ने लगी त्यों-त्यों संदेह सताने लगे. अब गाते समय (कुमार जी को) कुछ संकोच और दबाव महसूस होने लगा. स्वर ठीक लग रहा है या नहीं. राग ठीक से पेश कर रहा हूं या नहीं. आदि....संदेह और असमंजस की इस अवस्था में कई बार मन की व्यथा तीव्र हो जाती. एक बार तो यह व्यथा इतनी नुकीली हो गई कि निराशा, विफ़लता, निरुत्साह और स्वयं को पराभूत अनुभव करने पर रास्ता चलते-चलते ही (पावेल कंपनी के पास) कुमार जी रो पड़े. यह 1941 की एक शाम थी.... इस अवस्था में कुमार जी ने 1941 से 1947 तक कोई छह साल गुजारे. हालांकि इस अरसे में भी उनके संगीत कार्यक्रमों और महफ़िलों का सिलसिला बराबर जारी था.... कीर्ति बढ़ती जा रही थी. पैसा भी आ ही रहा था.... पर अंतर की चिंता भी जला ही रही थी. किसी अन्य की तरह न गाने का निश्चय और इधर नया कुछ बनाता नहीं. इस मनोदशा में घूमते-फिरते वे देवास (मध्यप्रदेश का शहर. कुमार जी फिर हमेशा यहीं रहे) जा पहुंचे. अपने गायक मित्र कृष्णराव मजूमदार के यहां वे ठहरे....लगातार दस दिनों तक सुबह-शाम दोपहर-रात निरंतर गाना चलता रहा. और वहां एक दिन भीमपलासी (राग) कुछ ऐसा जमा कि कुमार जी को स्वयं एकदम साक्षात्कार हुआ- 'मुुझे गाना आ गया.' छह वर्षों की निराशा और अंधकार के पश्चात़ वह दिव्य प्रकाश...'
देवास की धरती पर यह जो अंकुर फूटा इसके पुष्पित-पल्लवित-सुवासित होने का किस्सा और दिलचस्प व ज़्यादा व्यापक है. यक़ीनन इसे एक बार में समेटना मुश्किल है. कोशिश की भी जाए तो न यह व्यावहारिक रहेगा न रुचिकर. इसलिए इससे आगे के किस्सों का जिक्र इस लेख के अगले हिस्से में.