मेरे प्रिय,
आज खेत गई थी तो देखा आम और लीची में बौर आ गए हैं. ढेरों मधुमक्खियां अपने लिए खाना जोड़ने बौर पर मंडरा रही थीं. कुछ भंवरे भी बीच-बीच में अपनी जगह बना रहे थे. खेत में इस समय ढेरों तितलियां घूमती रहती हैं. इस विषाणु ने मनुष्य को अपना ग्रास बनाया है प्रकृति को नहीं. कितना आश्चर्यजनक है ना यह. प्रकृति अपने चरमसुख के दिन जी रही है इस लॉकडाउन के दौरान. ना जाने कितनी जगह की तस्वीरें देख लीं जहां जानवर सड़कों पर उतर आए हैं. हवा इतनी साफ़ हो गई है कि मीलों दूर बर्फ से ढंके पहाड़ दिखने लगे हैं. शहरों में भी लोग अब जब अपनी बालकनी से आसमान देखते हैं तो उन्हें तारे दिख जाते हैं.
जैसे-जैसे लॉक डाउन के दिन बीत रहे हैं इंसान प्रकृति के ज्यादा करीब हो रहा है
यह सब देखकर तुम्हें आश्चर्य नहीं होता? मुझे होता है. अपने अब तक के जीवनकाल में, अपने माता-पिता, दादा-दादी आदि द्वारा सुनी गई कहानियों में भी मैंने ऐसा कभी नहीं सुना जब पूरी धरती के मनुष्यों को किसी रोग ने एक साथ चपेट में लिया हो और उन्हें अपने-अपने घोसलों में कैद होने के लिए मजबूर कर दिया हो. हालांकि विज्ञान और चिकित्सकों की बातें जानते बूझते इस पर भरोसा तो नहीं होता फिर भी दिल से एक हूंक उठती है जो कहती है कि यह सब प्रकृति का बदला है ख़ुद को स्वच्छ करने के लिए.
वरना मनुष्य ख़ुद कहां करने वाला था यह? वह तो कहता है आज में जिओ, कल की फ़िक्र क्यों करना? ख़ुश रहने के लिए आज में जीना ज़रूरी है. सोचती हूं इंसान ईश्वर के नाम पर इंसान को मार रहा है, और तरक्की के नाम पर प्रकृति को. लेकिन कल जब कुछ बचेगा ही नहीं सिवाय कंकाल और अकाल के तो जिएंगे कहां? क्या इसलिए ही कहते हैं कि आज में ही जी लो? वैसे वर्तमान हालात देखकर तो मुझे भी यही लगता है अब.
कौन जाने कल किस बीमारी या आपदा की चपेट में आ जाऊं. फिर आज जब प्रकृति दसकों बाद अपने सुन्दरतम और निर्मल रूप में आ ही रही है तो क्यों ना तुम्हारे साथ इसका लुत्फ़ उठाऊं. ऐसे में जब हर तरफ प्रकृति अपनी सुन्दरता बिखेर रही है. अपने रंगों से नित नए चित्र बना रही है. कोई प्रदूषण, कोई दोष उसे ख़राब नहीं कर रहा, मैं चाहती हूं कि इन दिनों में तुम्हारे साथ नंगे पैर खेत की मेढ़ पर चलूं. महसूस करूं मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू जब कोई किसान खेत में उगी फसल को पानी दे.
खेत की छोटी सी नहर में पैर डुबोए हम-तुम बैठे रहें और एक-दूजे पर पानी के छींटे डाल अठखेलियां करें. मैं थामे चलूं तुम्हारा हाथ और सहलाऊं आम-लीची के बौर, जिन्हें बदलते देखें हम रसीले आम और लीचियों में. मैं भी सर पर रखकर घड़ा चल पडूं नदी-कुंए तक. मेरी नरम हथेलियों में ठट्ठे ना पड़ जाएं कहीं यह सोचकर तुम कुंए से पानी खींच लो और मैं कमर पर रखकर उसे घर ले आऊं.
इस समय मैं जीना चाहती हूं वह ग्रामीण जीवन प्रकृति के मध्य रहकर जिसे कभी जिया हो मेरी नानी-दादी ने. क्योंकि मुझे लगता है कि वही सबसे विशुद्ध तरीका था, जिसमें हम प्रकृति को नुक्सान पहुंचाए बिना उसके साथ तालमेल बैठाकर जी सकते हैं. तभी तो देखो उस पीढ़ी के शरीर कितने मजबूत होते थे, और आज की पीढ़ी कितने रोग लेकर जन्म लेती है.
क्या पता लॉकडाउन के ये इक्कीस दिन हमें प्रकृति से प्रेम करना, सुविधाओं के बिना प्राकृतिक उपलब्धताओं में रहना सिखा दे. क्या पता मनुष्य आवश्यक वस्तुओं और विलासिता में फ़र्क करना सीख जाए. वह सीख जाए कि हमें प्रकृति से उतना ही लेना है जितना कि बेहद आवश्यकता है, न कि उसे तहस-नहस करना है. अन्यथा फिर कोई रोग, फिर कोई महामारी फैलेगी और प्रकृति अपने आपको निर्मल करने के लिए फिर काल चक्र घुमाएगी.
मैं नहीं जानती इसके पीछे के वैज्ञानिक कारणों को, मगर इसमें विश्वास है कि प्रकृति से अगर बात करो, उससे प्रेम करो तो वह भी तुमसे बात करेगी, अपनी प्रतिक्रिया देगी. चाहे पेड़-पौधे हों, नदी-झरने, जंगल हों, समंदर हों या पहाड़. पिछले पांच वर्षों से प्रकृति के इतने करीब रहते-रहते अब यह विश्वास और दृढ़ हो चला है. और इसी की बुनियाद पर मैं चाहती हूं कि दुनिया का हर व्यक्ति जब इस कैद से निकले तो प्रकृति प्रेम में डूबकर निकले. इसके अलावा भी चाहने को बहुत कुछ है, लेकिन अब अगले ख़त में लिखूंगी.
तुम्हारी
प्रेमिका
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