सफेद दाग, ल्यूकोडर्मा या विटिलिगो एक ऐसी बीमारी है जिससे संक्रमित आदमी को कोई शारीरिक नुकसान नहीं होता है सिर्फ सामाजिक परेशानियों का सामना करना पड़ता था.
लेकिन अब समाज में इस बीमारी को लेकर सोच बदल रही है. इस बीच इलाज के तौर-तरीके भी बढ़े हैं जिससे बीमारी का प्रबंधन बेहतर होने लगा है.
25 जून को दुनिया विटिलिगो दिवस मनाया जाता है लेकिन इस बार कोरोना के चलते कोई खास प्रोग्राम नहीं हो रहे. पिग्मेंट्री डिसआर्डर सोसायटी आफ इंडिया की अध्यक्ष एवं लेडी हार्डिग मेडिकल कालेज की प्रोफेसर रश्मि सरकार ने हिन्दुस्तान से बोला कि पहले लोग इसे छुआछूत की बीमारी या कुष्ठ रोग समझते थे. लेकिन अब लोगों की जानकारी बढ़ी है. अब लोग मानते हैं कि यह कोई फैलने वाली बीमारी नहीं है. न ही इससे शरीर को कोई नुकसान है. इससे सफेद दाग के मरीजों के साथ होने वाला भेदभाव अब करीब-करीब समाप्त हो चुका है.
शल्य क्रिया से भी उपचार
लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल के तत्वा रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर के। डी बर्मन कहते हैं कि इस बीमारी का लगातार उपचार किया जाए तो ज्यादातर मामलों में अच्छा हो जाती है. दवाओं से अतिरिक्त स्कीन की ग्राफ्टिंग एवं अन्य शल्य क्रियाओं के जरिये भी इलाज होता है. कई ऐसी क्रीमें भी आ गई हैं जिन्हें लगाने से इस दाग को छुपाया जा सकता है. चूंकि यह बीमारी शरीर को कोई नुकसान हीं पहुंचाती है तथा यह महज सौदंर्य से जुड़ी है, इसलिए जो लोग उपचार नहीं कराते या जिनका मर्ज अच्छा नहीं होता, उनके लिए ये क्रीमें भी एक विकल्प होती है.
डीआरडीओ की दवा
कुछ समय पूर्व डीआरडीओ ने इस बीमारी के इलाज के लिए एक दवा ल्यूकोस्किन विकसित की थी. जो दस हजार फुट की ऊंचाई पर पाए जाने वाले एक औषधीय पौधे विषनाग से बनाई गई थी. यह दवा भी बेहद पास साबित हुई है. यह खाने व लगाने वाली, दोनों स्वरूपों में उपलब्ध है. अब तक डेढ़ लाख लोगों का इस दवा से इलाज किया जा चुका है.
चार से छह प्रतिशत मरीज
विश्व में वैसे तो एक से दो प्रतिशत लोग इससे प्रभावित हैं लेकिन हिंदुस्तान में यह तीन से चार प्रतिशत होने का अनुमान है. इस हिसाब से यह संख्या पांच करोड़ बैठती है. यह आटो इम्यून डिसआर्डर है जिसमें स्कीन के रंग के लिए जिम्मेदार कुछ सूक्ष्म कोशिकाएं निष्क्रिय हो जाती हैं. हालांकि इसका शरीर की क्षमता पर किसी प्रकार का असर नहीं पड़ता है. इसलिए रोजगार आदि के लिए इस बीमारी नहीं माना जाता. डा। बर्मन बताते हैं कि कई बार हम रोजगार आदि मामलों में बाकायदा सार्टिफिकेट जारी करते हैं कि इससे किसी प्रकार का शारीरिक नुकसान नहीं होता है.