चारों तरफ़ अंधेरा छा चुका था. उसने लाइट बंद कर ली थी. बग़ल के कमरे में मां-बाप टीवी देख रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे मां-बाप के बोलने की ही आवाज़ टीवी से आ रही हो. उसने खिड़की से बाहर देखा. दूर कहीं एक लाइट जलती हुई नज़र आई. ज़्यादा ध्यान देने पर वो लाइट भी कई रंग बदलती बुझती हुई-सी लगी. स्टूल पर खड़े होकर उसने सिर फंदे में दे दिया और गर्दन पर कसकर गिरह बांध ली. फिर पैरों से झटका दे स्टूल को गिरा दिया. अब उसका पूरा शरीर हवा में लटक चुका था. गर्दन पर दबाव बढ़ने लगा. उसे एक पल को ख़याल आया कि अब जीवन का अंत हो रहा है. मन थोड़ा-सा उदास हुआ, फिर उसने सोचा कि होने दो अब. तभी रस्सी टूट गई और वो धम्म की आवाज़ के साथ ज़मीन पर आ गिरा.
बग़ल के कमरे से उसके मां-बाप भागते हुए आए. आवाज़ ही इतनी ज़ोर की आई थी. पहले दोनों ने कमरे की बत्ती जलाई और सारा इंतज़ाम देखा. बाप बिना कुछ कहे स्टूल लगाकर फंदा उतारने लगा. मां बेटे के पास बैठ गई और उसका सिर अपनी गोद में ले लिया. फिर अपनी जांघ पर हाथ टिकाकर अपने माथे पर ले गई और सांय-सांय कराहने की आवाज़ में बोलने लगी- 'आस-पास वालों को पता चलेगा तो लोग क्या कहेंगे? छोटे मामा क्या कहेंगे कि इन लोगों के लिए मैंने इतनी मेहनत की, जिस लड़के के लिए मैं हमेशा चिंतित रहता था, उस लड़के ने क्या कर लिया. जल्दी-जल्दी समेटो सारा सामान, ये लड़का हमारी इज़्ज़त का नाश करने के लिए ही पैदा हुआ है.'
फिर मां के सिसकने की आवाज़ आई. अविनाश के कान के ठीक ऊपर मां का चेहरा था. सिसकने से पहले मां के शरीर में जो क्रिया हो रही थी, उससे अविनाश को पता चल रहा था कि दो सेकेंड बाद हिचककर मां फिर सिसकेगी. पहले मां का पेट खिंच जाता, फिर नाक सुड़कने की आवाज़ आती. फिर हिचकने की आवाज़ें. वह लगातार अपने आंचल से अपनी आंखें पोछ रही थी. चूड़ियों की आवाज़ और कुहनी के बार-बार आंखों के पास टकराने से अविनाश की झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी. कुछ देर बाद उसने उठकर कहा- 'जाइए आप लोग अपने कमरे में. बहुत हो गया!'
बाप भड़क उठा- 'इतनी देर से बर्दाश्त कर रहे हैं, थोड़ी तमीज़ सीख लो. ये ज़रूरी नहीं कि एक बदतमीज़ी बर्दाश्त कर लिए तो लगातार करते ही जाओगे. हम किसी के टुकड़े पर नहीं पल रहे, जो ये ताव दिखा रहे हो. किसी और को दिखाना ये ताव.'
अविनाश चुपचाप पड़ा रहा. कुछ देर में मां-बाप दूसरे कमरे में चले गए. अब मां-बाप भी टीवी बंद कर पड़े हुए थे. अविनाश ने सोचा- 'क्या वो सो रहे हैं या सोने का अभिनय कर रहे हैं. कहीं इस बात का अंदाज़ा तो नहीं लगा रहे कि मैं दुबारा फांसी लगा रहा हूं. सांस रोक के सुन रहे होंगे.' अविनाश ने सोचा मर गया होता तो अच्छा होता. फिर सोचा कि अगर मेरे से पहले यही लोग मर गए होते तो कितना अच्छा होता. जब उसने दसवीं की तभी ये लोग मर जाते तो कितना फ़्री होता जीवन. फिर ख़याल आया कि पैसे कहां से आते पढ़ाई-लिखाई के लिए. नहीं, पैसों का इंतज़ाम तो हो ही जाता है. वैसे भी, इन लोगों ने कौन-सा इंतज़ाम कर दिया! हमेशा रोते ही तो रहे. हर बात में यही कहते रहे घर की स्थिति समझो. लेकिन जब किसी की शादी-विवाह की बात आती तो ये क्यों कहते कि हम लोग बड़े आदमी हैं, थोड़ा तो स्तर रखना ही पड़ेगा.
सोचते-सोचते उसे नींद आने लगी. चारों तरफ़ से ठंडी हवा आती मालूम पड़ रही थी. अंधेरा पूरी तरह छा चुका था. बिजली कट गई थी, जिससे कहीं कोई लाइट का बिंदु भी नज़र नहीं आ रहा था. अविनाश को ख़ूब सुकून महसूस हुआ. अगर ऐसे ही अंधेरा छाया रहता, ठंडी हवा आती रहती, ऐसे ही शांति रहती, किसी की आवाज़ नहीं आती तो जीवन कितना ख़ूबसूरत होता. उसने सोचा कि आज सोउंगा नहीं, इस सुख का आनंद ही उठाउंगा. पर तुरंत ही आंख झपक गई और जब नींद खुली तब तक तेज़ धूप हो गई थी.
अविनाश के एक डॉक्टर दोस्त ने बताया था कि जर्नल में मन की बातें लिखा करो, शांति मिलेगी. वो लिखने बैठता तो समझ नहीं आता कि क्या लिखे. उसके मन में मां-बाप के लिए सिर्फ़ गंदी-गंदी गालियां ही आतीं. वो लिखना चाहता था कि ये मर जाएं, ये जीवित क्यों हैं. इन लोगों ने मेरा जीवन नरक बना दिया है. फिर वो डिटेलिंग करना चाहता था कि जब मैं सुबह उठकर बिस्तर से डिप्स मार रहा था तो मेरी मां आई और बोली- 'ये क्या कर रहे हो बेटा?' उस आवाज़ में इतनी कड़वाहट और नापसंदगी थी कि मेरी सारी ऊर्जा ही चली गई. उस दिन के बाद मैं कभी डिप्स मारने के बारे में सोच भी नहीं पाया. लेकिन ये बातें ख़त्म ही नहीं होतीं. उसकी हर सांस, हर सेकेंड में नयी बातें थीं. उसे लगा लिखते-लिखते उसका जीवन ख़त्म हो जाएगा. और लिखने से हासिल क्या होगा? फिर ख़याल आया कि कहीं मां-बाप ने पढ़ लिया तो? उसकी रूह कांप गई.
तभी उसे लगा कि उसकी खिड़की में से झांकते हुए कोई मां के कमरे में गया है. वो संजना आंटी थीं. कुछ देर में मां और आंटी के हंसने की आवाज़ें आने लगीं. मां कह रही थी- 'सारा इंतज़ाम करना पड़ता है तब जा के पढ़ाई होती है. मैं तो अविनाश को बिस्तर से उठने नहीं देती. चाय तक बना के बिस्तर पर ही देती हूं. कपड़े धोना, प्रेस करना, घर की सफ़ाई करना किसी काम में उसे नहीं लगाती.'
संजना आंटी बोलीं- 'भाभी, आप कुछ ज़्यादा ही ख़याल रखती हैं. इतने बड़े लड़के के लिए इतना करना ठीक नहीं.'
मां ने बात काटते हुए कहा- 'अरे नहीं, बहुत मेहनत करता है. दिमाग़ लगता है तो इंसान थक जाता है.'
संजना आंटी ने हंसते हुए कहा- 'ये बात तो है. मेरा अभिषेक तो कहीं दिमाग़ लगाता नहीं. उसे पढ़ने से बचने का बहाना चाहिए, बस. काम करते देख तुरंत आ जाता है कि मां, हाथ बंटा देता हूं. ऐसी-ऐसी बातें करता है कि हंसी आ जाती है. मैंने कहा भी कि मैं तेरी गर्लफ़्रेंड थोड़ी हूं जो मसके लगा रहा है.'
मां की केयर-फ़्री आवाज़ आ रही थी. काफ़ी ख़ुश और काफ़ी चहकते हुए. बातों-बातों में संजना आंटी की बातें काट भी रही थीं. ये वो आवाज़ नहीं थी जो संजना आंटी के जाने के बाद निकलती. अविनाश ने कल्पना की. संजना आंटी के जाते ही मां की आवाज़ में एक अजीब-सी कड़वाहट और बेचारगी भर जाएगीं.
शाम को मां अविनाश के कमरे में आई- 'खाना खा के प्लेट किचन में भी नहीं रख सकते? कल दिन से ही पड़े हो यहां. मेरा भी मन आज़िज़ हो जा रहा है. मेरी भी तबीयत अब ठीक नहीं रहती है. मैं यहां सबके काम करने के लिए नहीं हूं. आने दो पापा को, बताती हूं मैं.'
अविनाश ने कल्पना की- पापा चाय पी रहे हैं. मां साथ बैठी गिना रही है कि उसने ये नहीं किया, ये किया. मेरी इस बात पर बदतमीज़ी से बोला. अचानक पापा चाय का कप फेंक देंगे. ख़ूब चिल्लाएंगे और मुझे बुलाकर ख़ूब सुनाएंगे. मैं फिर क्रोध में कुछ बोल दूंगा. पापा जब मारने उठेंगे तो मां रोक देगी कि पागल हो गए हैं क्या, ये क्या कर रहे हैं जवान बेटे के साथ. फिर मां रोने लगेगी. सब चुप हो जाएंगे.
पता नहीं कब रात हो गई. चारों तरफ़ शांति फैली थी. बस किसी कीड़े की आवाज़ आ रही थी. झींगुर बोल रहे हैं या दीमक? अविनाश ने कान लगाकर सुनना चाहा. पर ध्यान देने पर उसे अपनी सांसों की ही आवाज़ें आ रही थीं. तभी खटका हुआ और मां धीरे से कमरे में दाख़िल हुई. बिलकुल ठंडे स्वर में मां ने कहा- 'पापा बुला रहे हैं.' फिर जवाब का इंतज़ार किए बिना चली गई.
अविनाश पड़ा रहा. कुछ देर में बग़ल के कमरे से मां-बाप की आवाज़ें आनी लगीं. ऐसा लग रहा था जैसे दो पुरानी मशीनें एक साथ चल रही हों. अजीब-सी घर्र-घर्र की आवाज़ आ रही थी. अविनाश ने अंदाज़ा लगाया कि पापा अब बुरी तरह नाराज़ हो गए होंगे कि बुलाने के इतनी देर बाद भी नहीं आया. मां कह रही होगी कि मैं ही नौकर नहीं हूं सबके लिए कि बार-बार उसे बुलाने जाऊं.
अविनाश धीरे-धीरे उठा और चल पड़ा. पापा पलंग पर लेटे हुए थे. मां उनके पीछे बैठी हुई थीं. पलंग के पैताने एक कुर्सी पर अविनाश बैठ गया. पापा ने बोलना शुरू किया- 'बेटा, मैंने भी ज़िंदगी बहुत देखी है. सुख-दुख हर चीज़ें झेलते आए हैं. हम सब समझते हैं. लेकिन बहुत-सी मजबूरियां होती हैं. इंसान कुछ कर नहीं पाता. ऐसे में दुनिया को समझ के चलना पड़ता है. ये दुनिया बहुत चालाक है. आग में कूदोगे तो केरोसिन दे देंगे. पानी में डूबोगे तो पैर में पत्थर बांध देंगे. इस दुनिया से लड़ना पड़ता है. अपने लिए चालाकी से जगह बनानी पड़ती है.'
मां के सिसकने की आवाज़ आने लगी. अविनाश भी रुंध गया था. गला, नाक, कान, आंख सब आंसुओं से भरे मालूम पड़ रहे थे.
पापा ने फिर बोला- 'एक और बात बेटा. तुम्हारी उमर में मन-मस्तिष्क बहुत इधर-उधर जाता है. गंदे विचार आते हैं. सबको आते हैं. स्त्रियों को लेकर बहुत सारे विचार आते हैं. इन्हें रोकना चाहिए. वरना रात को यही विचार स्वप्नदोष का कारण बनते हैं जो तुम्हें हो रहा है. ऐसा नहीं है कि ये हमसे छुपा हुआ है. हम जानते हैं. पर इसको लेकर कोई परेशानी की बात नहीं है. तुम बस ख़ुद पर नियंत्रण रखो. विचारों को रोको. मन-मस्तिष्क अध्यात्म की तरफ़ लगाओ. योग करो. सुबह उठकर प्राणायाम करो. चार चक्कर लगा आओ स्टेडियम के. सुबह उठकर गीता पाठ करो. संस्कृत में दिक़्क़त है तो रामचरितमानस पढ़ लो.'
मां ने अब टोका- 'बे, आप भी क्या बात करते हैं. ये उमर है गीता और रामचरितमानस पढ़ने की?'
अंधेरा अब पहले की तरह गाढ़ा नहीं लग रहा था. ऐसा लग रहा था मानो अंधेरा तरल हो गया है जो छूते ही हवा में बदल जा रहा है. अविनाश अपने कमरे में लौट आया. सिर पर हाथ रखे बिस्तर पर पड़ा रहा. मां ने भी तो बहुत कष्ट उठाए हैं. क्या ही ज़िंदगी रही है मां-बाप की. पैसे के लिए नाक रगड़ते रहे. कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं. कोई आधुनिकता नहीं. लोगों से रगड़ते रहना, हर बात में बहस करते रहना-ये ही लाइफ़ स्टाइल था. कहां से सीख पाते कि ज़िंदगी में क्या करना है, क्या बनना है. यहां तो बस ज़िंदगी जी लेने की बात थी.
धीरे-धीरे उसकी आंख लग गई.
सुबह सोकर उठा तो मां फ़ोन लिए आंगन से बुला रही थी. देखो किसका फ़ोन आया है. अविनाश उठकर आंगन में गया तो मां-बाप दोनों तनाव में थे. मां ने धीरे से फ़ोन पकड़ा दिया. अविनाश के हैलो बोलते ही उधर से टनटनाती आवाज़ गूंजी- 'किसने फ़ोन उठाया था?'
मां-बाप दोनों के चेहर सख़्त हो गए. अविनाश फ़ोन लेकर बाहर चला गया. नेहा थी, उसके दोस्त की बहन. अविनाश और नेहा को नहीं पता था कि उनके बीच क्या है, क्या नहीं है. बस बातें होती थीं. ख़ूब बातें. अविनाश फ़ोन पर बात ख़त्म कर वापस आया तो बाप की आवाज़ सुनाई दी- 'जो भी हो, उससे कह दो कि ज़रा तमीज़ से बात किया करे. पहले देख ले किससे बात कर रही है.'
मां का चेहरा भी बिलकुल सख़्त हो रहा था. दोनों अजीब से दुख में थे. अविनाश को कुछ समझ नहीं आया. वह वापस अपने कमरे में चला गया.
दोपहर में मां उसके कमरे में आई. ख़ूब ख़ुश थी. बोलने लगी- 'पता है तुम्हें, वो क्या कह रही थी?'
अविनाश ने चौंककर पूछा- 'कौन?'
मां बैठते हुए बोली- 'वही, तुम्हारी भाभी.'
अविनाश ने सिर फेरते हुए कहा- 'मुझे नहीं जानना, क्या कह रही थीं.'
मां ने बात शुरू कर दी- 'नहीं जानना क्या, कौन-सा अपराध कर रही हूं मैं! सामाजिक दुनिया की बात बता रही हूं. कौन-सा चोरी कर रही हूं और तुम बड़े नैतिकतावादी महात्मा बन रहे हो!' थोड़ा रुककर मां ने फिर कहा- 'अरे उसके घरवाले लालची हैं. दिन-रात बस माल के चक्कर में रहते हैं कि कहीं से कुछ पैसा मिल जाए. पता है, तुम्हारी भाभी कह रही थी कि इस बार गर्मी की छुट्टियों में आ नहीं पाउंगी. वैसे भी यहां बहुत गर्मी पड़ रही है. मेरी स्किन पर फफोले उग आते हैं. मुझे हंसी आ गई. बड़ी मुश्किल से हंसी कंट्रोल किया. अपने घर में दिन-रात झाड़ू-पोंछा मारती थी, सबको खाना बना के खिलाती और लात भी खाती थी, तब स्किन पर फफोले नहीं पड़ते थे! चार दिन से शहर में रहने लगी तो फफोले पड़ने लगे!'
अविनाश ने हां-हूं करके बात ख़त्म करने की कोशिश की. मां उसके चेहरे की तरफ़ देखते हुए ज़ोर से हंसने लगी- 'अरे, इन देहाती-गंवार लड़कियों का यही हिसाब-किताब रहता है.
मां उसको देखकर हंसती ही रही तो वो भी थोड़ा मुस्कुरा पड़ा.
मां उठी- 'चलती हूं, भात बना लूं. दाल-सब्ज़ी तो है.'
कमरे से बाहर जाते-जाते मां फिर वापस आ गई- 'जब भी भाभी आए, थोड़ा सावधान रहा करो. ज़रूरी नहीं है कि ज़्यादा हंसी-मज़ाक़ करने से ही क़ाबिल बनोगे. आजकल इन रिश्तों में ज़्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता. भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाती है. अभी उत्तम नगर में ही एक भाई ने होली में अपने छोटे भाई को देख लिया भाभी को इधर-उधर रंग लगाते हुए, ख़ून-खराबा हो गया.'
अविनाश का मुंह एकदम कसैला हो गया- 'मैंने क्या किया? मुझे क्यों बता रही हो ये सब?'
मां ने अपनी आवाज़ कड़ी करते हुए कहा- 'दुनिया के रीति-रिवाज बता रही हूं. मैं ये सब बर्दाश्त नहीं करती. मैंने ज़िंदगी में कभी चोरी-बदमाशी नहीं की. मुझे ये सब पसंद भी नहीं है.'
अविनाश ने अबकी अपनी आवाज़ भी तेज़ की- 'तो मैं क्या करूं? मुझसे ये सब फ़ालतू बातें क्यों कर रही हो?'
मां ने अपनी आवाज़ और तेज़ कर ली- 'थोड़ा कम बदतमीज़ी करो. ज़्यादा ज़बान लड़ाने की ज़रूरत नहीं है. हर बात में बहस करना ज़रूरी है क्या? एकदम तुमने आदत ही बना ली है बहस करने की. बड़ा आदमी कुछ सिखा रहा है, तो सीख भी लो. दिन रात फ़ोन में ही घुसे रहते हो.'
अब अविनाश अपने फ़ोन में ही घुसा रहा. उसे पता नहीं था कि वह क्या खोज रहा है. स्क्रॉल करता रहा, करता रहा, करता रहा. कुछ देर मां के बोलने की आवाज़ आई- 'मेरी बातें सुननेवाला तो कोई नहीं है. पूरी ज़िंदगी दूसरों की सेवा करने में निकल गई. इनको बड़ी-बड़ी बातें आ रही हैं. ज़िंदगी ऐेसे नहीं कटती है.'
अविनाश और तेज़ी से स्क्रॉल करता रहा. कुछ देर के लिए उसने किताबें भी खोलीं. दो-चार लाइनें पढ़ीं. पेंसिल से मार्क किया. फिर डेली रूटीन बनाने लगा. सात से आठ पढ़ना है. आठ से सवा आठ रिक्रिएशन. थोड़ा घूम टहल लेना है. सवा आठ से नौ फिर पढ़ना है. फिर उसने पेज के सबसे ऊपर मोटे-मोटे अक्षरों में जय श्री राम लिखा. उसके नीचे छोटे-छोटे सितारे बना दिए. फिर ऊपर भी बना दिए. अब उसे लगने लगा कि बाक़ी दोनों तरफ़ भी ना बनाए, तो उसका सेलेक्शन नहीं होगा. उसने 'जय श्री राम' के चारों ओर सितारे बना दिए. अब थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ा कि चीज़ें अब कंट्रोल में हैं.
शाम को अविनाश जब घर लौट रहा था तो मां का फ़ोन आया- 'समोसे ले लेना. एक-दो लोग आए हुए हैं.'
अविनाश ने दो लोग, मां-बाप और ख़ुद के हिसाब से दो-दो समोसे प्रत्येक जोड़कर दस समोसे और दो फ़ालतू ले लिए कि किसी के लिए घट न जाएं. घर पहुंचा तो दो लोग बैठे हुए थे. मां ने समोसे का थैला खोला और मुस्कुराते हुए सभी लोगों के लिए समोसे और चटनी परोस दिया. समोसा बड़ा टेस्टी होता है केशरी मिष्ठान भंडार का. एक मेहमान ने एक ही खाया, दूसरे ने आधा ही खाया. फिर वे चले गए.
मां ने समोसे का थैला फिर खोला. और अपने माथे पर हाथ रख लिया. अविनाश ने पूछा- 'क्या हुआ? कुछ ग़लत निकला क्या?'
मां ने अपनी आंखें बंद किए हुए कहा- 'इतने समोसे लाने की क्या ज़रूरत थी? केशरी मिष्ठान भंडार के यहां से लाने की क्या ज़रूरत थी? पंद्रह रुपए का एक समोसा देता है? ये पैसा कहां से आएगा?'
अविनाश ने बात काटते हुए कहा- 'आप ही ने कहा था कि देख के सबके लिए समोसे ले लेना.'
मां की आवाज़ में ज़हर घुल गया- 'तुम्हें ख़ुद से दिमाग़ है कि नहीं? इतने समोसे ला के रख दिए और कोई खा भी नहीं रहा.'
अविनाश ने चिढ़ते हुए कहा- 'तो क्या हो गया? बच गए तो बच गए. बाद में खा लेंगे. शाम को काम करनेवाली आएगी तो उसे दे देना. वो भी नहीं खाए तो फेंक देना. क्या करूं मैं इसका?'
मां ग़ुस्से में थैला बंद करके बोलने लगी- 'इतनी रईसी करने की हमारे घर की स्थिति नहीं है. तुम्हें घर की स्थिति से कोई मतलब ही नहीं है. न कोई चिंता, न कोई समझ. दूसरे घरों के लड़के क्या नहीं समझते अपने मां-बाप की परेशानी? तुम्हें कोई मतलब नहीं है. इतना पैसा बर्बाद होगा तो कहां से आएगा. इतनी महंगाई है और तुम्हारे हाथ पर कोई कंट्रोल ही नहीं है. उस दिन भी जब बुआ के घर गए थे तो ऐसे ही समोसे और रसगुल्ले भर के ले गए. किसने कहा था कि पागलों की तरह बीस-बीस ले जाओ!'
अविनाश चिल्लाने लगा- 'बीस-बीस कहां ले गया था! जितना कहा, उतना ही ले गया था. ख़ुद ही तो कहा कि ले आओ समोसे रसगुल्ले और अब कह रही हो कि ये कर दिया, वो कर दिया. इतनी चिंता है तो ख़ुद क्यों नहीं ले जाती!'
मां ने समोसे का थैला ज़मीन पर पटक दिया- 'मुझे पता है कि वहां इतने समोसे रसगुल्ले क्यों ले के गए. वो तुम्हारी बुआ की लड़की है. बहन से बहन की तरह ही रहा जाता है. मैं इन रिश्तों में अपनी मां की नसीहत मानती हूं. आग और फूस कभी एक साथ नहीं रह सकते. कुछ ज़्यादा ही प्यार उमड़ रहा है तुम्हारा.'
अविनाश का चेहरा लाल हो गया- 'तुम पागल हो गई हो क्या! एक वही है जिससे मैं अपने मन की बात कर पाता हूं. वही समझ पाती है. बाक़ी लोगों से मैं त्रस्त हो चुका हूं. तुम लोग क्या बातें करते हो, तुम्हें पता भी है! मैं पागल हो जाउंगा तुम लोगों के साथ.'
अविनाश कुछ देर रुकने के बाद ज़ोर से चिल्लाया- 'हराम** हो तुम. तुम्हारी मां तुमसे भी बड़ी. वो मर गई लेकिन मेरा जीना हराम कर गई. वो बताएगी कि मुझे ज़िंदगी में कैसे जीना है, क्या करना है!'
मां अब दहाड़ें मारकर रोने लगी- 'मेरे नसीब में यही लिखा था. सब सही कहते थे कि तुझे भोगना है, तू भोगेगी. सारे दुश्मनों का कहा अब सच हो रहा है. इंसान अपनी औलाद के हाथों ही हारता है. पापा आते हैं तब तुझे बताती हूं मैं.'
अंधेरा हो चुका था. अविनाश अपने कमरे में चुपचाप पड़ा हुआ था. मोबाइल पर स्क्रॉल भी नहीं कर रहा था. बस स्क्रीन की लाइट जलाता और बंद करता. बाप के किसी फ़रमान का इंतज़ार कर रहा था. मन में तमाम जवाब बनाता, मिटाता और फिर बनाता. बग़ल के कमरे में मां-बाप शांति से आपस में बातें कर रहे थे. उनकी बात इतनी धीमी थी कि लग रहा था एक-दूसरे से भी छुपा रहे हैं. तभी बग़ल के कमरे से आवाज़ आई- 'धम्म!'
दोनों उठकर अविनाश के कमरे में आए. स्टूल फ़र्श पर गिरा पड़ा था. साड़ी पंखे से लटकी फटी पड़ी थी. अविनाश ज़मीन पर गिरा था. मां एकदम से बिलख पड़ी- 'रोज़-रोज़ ये क्या ड्रामा लगा रखा है? फांसी ही लगानी है तो लगा ले. मेरी मां की निशानी थी ये साड़ी, इसको फाड़ने की क्या ज़रूरत थी! हमीं लोग मिले हैं तुझे इमोशनल ब्लैकमेल करने के लिए? इस दुनिया में सबसे कमज़ोर हमीं मिले हैं तुझे ये सब करने के लिए? अगर घर की बेइज़्ज़ती ही करानी है तो चला जा बाहर नंगा. बुआ की लड़की के साथ भाग जा. जा मर तू. हमारे लिए आज से तू मरा ही हुआ है.'
अविनाश को आख़िरी लाइन सुनकर बड़ा संतोष हुआ. मरा ही हुआ है. सुनते ही उसका दिमाग़, हाथ-पैर एकदम शांत हो गए. ऐसा लगा, वह यही लाइन सुनना चाहता था.