प्रसव से पहले और प्रसूति रोग विशेषज्ञ (गायनेकोलॉजिस्ट) ही महिला की स्वास्थ्य पर नजर रखते हैं. डिलीवरी के बाद शिशु रोग विशेषज्ञो की किरदार अहम होती है. लेकिन यदि गर्भस्थ शिशु में किसी तरह की विकृति या समस्या का पता चलता है
तो शिशु रोग विशेषज्ञ की मदद ली जाती है ताकि मां व बच्चा दोनों स्वस्थ रहें. इस स्थिति में शिशु रोग विशेषज्ञ बताते हैं कि किस-किस हफ्ते में किस तरह के टीके आदि लगवाने हैं. गर्भवती इन बातों का ध्यान रखें 1- समय से अपनी जांचें करवाना. खासकर वजन की जांच. 2- गर्भावस्था के दौरान लगने वाले महत्वपूर्ण टीके लग जाएं. 3- डाइट में संपूर्ण पौष्टिक आहार लें. 4- चिकित्सक की सलाह से नियमित अभ्यास करना और एक्टिव रहना. 5- गर्भ में पल रहे शिशु की ग्रोथ की जाँच करवाते रहना ताकि कोई विकृति-समस्या हो तो समय पर पता चल सके व उपचार हो सके. 6- चिकित्सक से डिलीवरी के समय होने वाली समस्याओं के बारे में पहले से जानकारी करना ताकि डिलीवरी के समय किसी तरह की घबराहट न हो. 7- डिलीवरी किसी अस्पताल या प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मी की देखरेख में ही प्लान करें.
दो तरह से होती है शिशु की जेनेटिक स्क्रीनिंग
1. जेनेटिक स्टडी
इसमें बच्चे के क्रोमोसोम्स यानी गुणसूत्र संबंधी विकारों जैसे गुणसूत्रों का कम या ज्यादा होने और इनसे होने वाली बीमारियों का पता लगाया जाता है. यदि शिशु को डाउन सिंड्रोम का खतरा है तो इस बारे में माता-पिता की काउंसलिंग जन्म से पहले ही प्रारम्भ की जा सकती है. इससे शिशु के अभिभावक और परिजन उसकी परवरिश को लेकर अपने को तैयार कर सकते हैं. जेनेटिक स्टडी गर्भावस्था के 20वें हफ्ते में की जाती है. इसमें गर्भस्थ शिशु का ब्लड सैंपल लेकर उसकी जीन स्टडी की जाती है. इस जाँच से पता चल जाता है कि आने वाला शिशु कितनी स्वस्थ होगा या उसे किस-किस तरह की बीमारियां हो सकती हैं. 2. मेटाबॉलिक स्क्रीनिंग
यह जन्म के बाद करते हैं. इसमें उन एंजाइम्स की जाँच की जाती है जो शिशु की मेटाबॉलिक प्रणाली को गड़बड़ा सकते हैं. असामान्य मेटाबॉलाइड्स जमा होने से बच्चे का मानसिक-शारीरिक विकास पर प्रभाव पड़ सकता है. मेटाबॉलिज्म का मतलब उस प्रक्रिया से है जो हमारे भोजन को पचाकर एनर्जी में बदलती है.