लखनऊ। "समरथ को नहीं दोष गुसाईं" तुलसीदास जी की यह वाणी अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डा वाई पी सिंह पर खरी उतरती है। संस्थान में उनकी नियुक्ति ही संदेह के घेरे में है। कायदे कानूनों को तार-तार कर डा सिंह प्रतिनियुक्ति के जरिए संस्कृति निदेशालय में उप निदेशक के पद पर पदासीन किए गए थे और ठीक उसी तरह नियमों को ताक पर रखकर वर्ष 2002 में संस्थान के निदेशक बनाए गए।
निदेशक का कार्यकाल सिर्फ पांच वर्ष का होता है पर भ्रष्टाचार के आरोपों में निलम्बन झेल चुके डा सिंह के लिए प्रगति की राह में रोड़े बनने वाले कायदे कानून मायने नहीं रखते। योगी सरकार सत्ता में आई तो उम्मीद जगी कि दशक भर से ज्यादा समय से संस्थान में कुंडली मार कर बैठे इस भ्रष्ट अधिकारी पर कार्रवाई होगी। पर ऐसा संभव नहीं हो सका। जानकारों के मुताबिक सत्ता शीर्ष पर बैठे बड़े ओहदेदारों से साठंगांठ के दम पर इनका भ्रष्टाचार का खेल खूब फल फूल रहा है। बहरहाल, डा सिंह की करतूतें अब परत दर परत खुल रही हैं।
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आपको बता दें कि डा सिंह का रिटायरमेंट 30 जून को प्रस्तावित है। पर वह अपने कार्यकाल की समय सीमा बढवाने में जुटे हैं। देखा जाए तो उनका नियुक्ति आदेश शासकीय नियमों की कसौटी पर अमान्य है।
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इन संस्थानों के भी हैं निदेशक
डा वाई पी सिंह वर्ष 2002 से अब तक अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक हैं। उनका 30 जून को रिटायरमेंट प्रस्तावित है। पर डा सिंह रिटायरमेंट की समय सीमा आगे बढवाने में जुटे हैं। मजे की बात यह है कि उनके पास लोककला संस्कृति संस्थान और कबीर अकादमी के निदेशक का भी प्रभार है। डा सिंह एक साथ कई संस्थानों के निदेशक की जिम्मेदारी निभा रहे हैं।