जब सरकार ने दोबारा विमान सेवाएं शुरू कीं, तब एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि स्वास्थ्य प्रमाण पत्र और क्वारंटीन सेंटर में रखने जैसी बातें व्यावहारिक नहीं लगतीं. हैरानी वाली बात है कि जो बात विमान के यात्रियों के लिए व्यावहारिक नहीं लग रही, वो मज़दूरों के लिए अति आवश्यक कैसे बन गई थी.
दो महीने के लॉकडाउन ने मेहनतकश और संपन्न वर्ग के लोगों के बीच की दूरी जगजाहिर कर दी है. उस समाज की सच्चाई सामने आ गई है जहां अमीरों को गरीबों की दुर्गति से कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही उन्हें गरीबों के साथ कोई सहानुभूति है.
लॉकडाउन ने बाबा साहब आंबेडकर का वह कथन सच साबित किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय संविधान की आधुनिकता और प्रगतिशीलता पेंट की एक परत से ज्यादा गहरी नहीं है.
गरीबों का निर्वासन
अपनी किताब 'लुकिंग अवे: इनइक्वालिटी, प्रीजुडिस एंड इनडिफरेंस इन न्यू इंडिया' में मैंने भारत के अमीर और मध्यम वर्ग को दुनिया का सबसे असंवेदनशील और बेपरवाह माना है.
ये लोग जातीय और आर्थिक श्रेष्ठता के दंभ में आज भी जी रहे हैं. इस किताब में गरीबों के निर्वासन की चर्चा की गई है. हमारे गरीब भाई-बहन हमारी चेतना और विवेक से बहुत पहले ही निकल चुके हैं. लॉकडाउन ने तो बस इस छिपे हुए तथ्य को उजागर किया है.
मध्यम वर्ग का हर नौजवान गरीबों के आसपास ही पलता-बढ़ता है, लेकिन इन्होंने गरीबों को सेवक से अधिक का दर्ज कभी नहीं दिया. मिडिल क्लास के युवा गरीबों को न क्लासरूम में अपना दोस्त मानते हैं न खेल के मैदान में. ये लोग हर जगह ऊंच-नीच का ध्यान रखते हैं.
जब देश में कोविड-19 फैला तो इसका ठीकरा भी गरीबों के ऊपर ही फोड़ा जाने लगा. मजदूरों को वायरस फैलाने वाला बताया गया. हम ये भूल गए कि असल में यह बीमारी पैदल चल रहे मजदूरों से नहीं बल्कि हवाई जहाज में विदेशों से आए लोगों की वजह से फैली है.
मध्यम वर्ग ने देशव्यापी लॉकडाउन का स्वागत किया. भले ही यह दुनिया का सबसे बदइंतजामी और अपर्याप्त राहत के साथ किया गया लॉकडाउन हो, लेकिन संपन्न लोगों ने इसका पूरा समर्थन किया.
हम मध्यम वर्ग के लोग घरों में आश्वस्त थे क्योंकि नौकरियों ने वर्क फ्रॉम होम का विकल्प दे रखा था. हर महीने की सैलरी हमारे खाते में पहुंच रही थी. हमें पानी के लिए भी कोई भाग-दौड़ नहीं करना था इसलिए बार-बार हाथ-मुंह धोकर हम कोरोना से लड़े.
बीमारी की आशंका होने पर भी हम निश्चिंत थे क्योंकि स्वास्थ्य बीमा ने हमें महंगे प्राइवेट अस्पतालों में अच्छा इलाज कराने का विकल्प दिया है. घरों में कैद रहकर जब कभी हमारा मन उचटा तो इसे परिवार के साथ समय बिताने का एक मौका समझकर हमने मन बहलाया.
हमें इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा कि करोड़ों लोगों के जीवन में लॉकडाउन एक आफत की तरह आया है. सालों पहले जो लोग गांवों के बदतर हालात, गरीबी और जाति व्यवस्था से आजिज होकर शहरों में आए और बिना किसी सरकारी मदद के खुद को खड़ा किया, लॉकडाउन ने उन्हें तोड़ दिया है.
शहरों ने इन्हें कभी अपनाया ही नहीं था. इन्हें बसाने की पहल करना तो दूर सरकार इनके मौलिक अधिकारों की रक्षा करने में भी फेल रही. इनकी झुग्गियों को अनधिकृत कहा गया. इस दमनकारी व्यवस्थाओं के बीच भी गरीबों ने संघर्ष कर खुद को स्थापित किया था.
लॉकडाउन ने गरीबों को तबाही के अलावा कुछ नहीं दिया. झुग्गियों में अमानवीय हालात में रह रहे लोगों से सामाजिक दूरी और साफ-सफाई की उम्मीद रखना भी नाइंसाफी है. जहां एक ही बिस्तर पर कई लोग सिकुड़कर सोने को मजबूर हैं, वहां सामाजिक दूरी का पालन कैसे होगा?
भूख से त्रस्त करोड़ों मजदूर की चिंता से दूर मध्यम वर्ग के लोग प्रधानमंत्री के इशारे पर कभी थाली बजाकर, तो कभी टॉर्च जलाकर अपनी संवेदनहीनता दिखाते रहे. भयावह है कि हजारों किलोमीटर की पैदल यात्रा करने वाले, पीठ पर मासूमों को लादकर चलने वाले और ट्रक-ट्रेनों से कुचलकर मरने वाले ज्यादातर लोगों की उम्र 15 से 30 साल के बीच की है.
अगर बदकिस्मती से इनका जन्म किसी गरीब के यहां नहीं हुआ होता तो आज ये भी किसी हाईस्कूल या यूनिवर्सिटी के छात्र होते और इंटरनेट से पढ़ाई कर रहे होते. अपने घरों में बैठकर ऑनलाइन गेम खेलकर या फिर नेटफ्लिक्स के वेब सीरीज का आनंद ये भी ले सकते थे. दुर्भाग्य है कि ये संपन्न परिवारों में पैदा नहीं हुए.
पक्षपातपूर्ण रवैया
मजदूरों के लिए सरकार की पक्षपातपूर्ण नीतियों ने मध्यम वर्ग को परेशान नहीं किया. सरकारी नौकरी और प्राइवेट सेक्टर की बड़ी कंपनियों में काम कर रहे लोग निश्चिंत थे कि उन्हें घर बैठे-बैठे सैलरी मिल ही जाएगी. इधर गरीब लोग एक प्लेट खिचड़ी के लिए घंटों तक कतारों में लगे रहे. आत्मसम्मान की बलि चढ़ाकर इन्होंने जैसे-तैसे पेट भरा.
क्वारंटीन सेंटर्स सरकारी पक्षपात और असंवेदनशीलता के नए प्रमाण बनकर उभरे हैं. जहां अमीरों को उनके घरों या होटलों में ठहराया गया, वहीं मजदूरों को ऐसे बदतर जगहों पर रखा गया कि वे शौचालय के भीतर बैठकर भोजन करने को मजबूर हुए. ये क्वारंटीन सेंटर किसी भी लिहाज से जेल से कम नहीं हैं.
प्रवासी मजदूरों को घऱ पहुंचाने में सरकार ने खुले तौर पर पक्षपात दिखाया. विदेश में फंसे नागरिकों के लिए विशेष विमान की व्यवस्था की गई थी, तीर्थयात्रियों के लिए भी विशेष प्रबंध हुआ, लेकिन जब मजदूरों की बारी आई तो राज्यों के बॉर्डर सील कर दिए गए और ट्रेन-बसों का परिचालन रोक दिया गया.
जब लाखों की संख्या में लोग साइकिल और पैदल यात्रा करने को निकल पड़े तब सरकार ने कुछ ट्रेनें चलवाईं. घर पहुंचाने के नाम पर रेलवे ने प्रवासी मजदरों से पैसा वसूलना शुरू कर दिया. कड़े विरोध के बाद यह फैसला तो बदला लेकिन, इसके बदले में एक जटिल प्रक्रिया थोप दी गई.
अब मजदूरों को ऑनलाइन आवेदन करके मंजूरी लेनी थी. ऐसे में ट्रेनों में सीट मिलना भी किसी लॉटरी से कम नहीं था. जिन मजदूरों के पास स्मार्टफोन नहीं थे, उनसे ठेकेदारों ने टिकट के नाम पर खूब पैसे वसूले. पैसे देने के बावजूद भी जब ये मजदूर ट्रेनों में चढ़े तो बिना भोजन-पानी के इन्हें कई दिनों तक सफर करना पड़ा. कई ट्रेनें अपना रास्ता भटक गईं और इनमें बैठे कई मजदूरों ने भूख के कारण दम तोड़ दिया.
ज्यादा पैसे लेने के बावजूद भी बस कई मायने में ट्रेनों से बेहतर थे. हजारों रुपए देने के बाद बस-ट्रकों में जानवरों की तरह लदकर जब मजदूर अपने शहर पहुंचे तो वहां प्रशासन ने उनके ऊपर कीटनाशक छिटवाया. कई जगह सरकारी मुलाजिमों द्वारा घूस मांगे जाने की ख़बर भी सामने आई.
सरकार और उद्योगपतियों ने मजदूरों की कोई मदद नहीं की क्योंकि ये जानते थे कि मजदूरों के लौट जाने के बाद इनका कारोबार ठप हो जाएगा. इन्होंने हमेशा गरीबों को सिर्फ एक संसाधन के तौर पर देखा है.
अब जब सरकार ने विमान सेवा शुरू कर दी है तो एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि स्वास्थ्य प्रमाण पत्र और क्वारंटीन सेंटर में रखने जैसी चीजें व्यावहारिक नहीं लगतीं. हालांकि कई राज्य यात्रियों को क्वारंटीन करने के पक्ष में हैं, लेकिन हैरानी वाली बात है कि जो चीज विमान के यात्रियों के लिए व्यावहारिक नहीं लग रही वो मजदूरों के लिए अति आवश्यक कैसे बन गई थी.
आज हमारी पूरी मानव सभ्यता को आत्म-निरीक्षण करना चाहिए. आने वाले महीनों में जब भूख का संकट बढ़ेगा तब मजदूर परिवारों के बच्चे पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करने निकल जाएंगे.
क्या तब हमें एहसास होगा कि हमने मजदूरों के ख़िलाफ़ हो रहे अपराध में बराबर की भागीदारी निभाई है? क्या हम अपने नैतिकता के पतन को तब भी पहचान पाएंगे? इतना सब होने के बावजूद भी हम बराबरी, न्याय और सहानुभूति वाला समाज बनाने की सीख लेंगे?
(हर्ष मंदर पूर्व आईएएस अधिकारी और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
मूल अंग्रेजी लेख से अभिनव प्रकाश द्वारा अनूदित.