उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले के एक गांव के रहने वाले 50 वर्षीय भानु प्रकाश गुप्ता शाहजहांपुर के एक ढाबे में काम किया करते थे, पर लॉकडाउन में ढाबा बंद होने से काम छूटा और वे परिवार सहित गांव लौट गए. ग़रीबी और बेरोज़गारी से परेशान भानुप्रकाश ने 29 मई को ट्रेन के सामने आकर अपनी जान दे दी.
'उई दिन अच्छे भले उठल रहलन. खाना बनाइके हम पूछलीं कि खा लेईं. बोलनन अभी नाहीं खाइब. नहा के खाइब. नहाइन धोइन अउर बिना कछु कहले बाहर निकल गइन. हम समझी बीड़ी लेवे गइल होइहें. जबसे घर आइल रहिस बहुते कम बाहर जाइस. कभो कभार खाली बीड़ी लेवे बाहर निकलैं. खाना परोस हम राह देख लगौं. देर होके लगी तो पता कइनी कि कहीं भाई के घर त नाहीं गइलन. वहां भी नाहीं रहेन. फिर रामकुमार के यहां फोन कर मालूम करे कि कहीं उहां तो ना गइन, उहों नाहीं रहिन. आधे घंटे बाद एक लइका के फोन आइल कि रेलवे लाइन पर एक आदमी कट गइल बाटें. उनके जेब से पर्चा मिलल हवे. पर्चा में नाम भानु लिखल बा. इ सुनते हम गिर पड़लीं…'
गुड्डी देवी 29 मई की दोपहर अपने पति भानु प्रकाश के घर से निकलने और फिर आत्महत्या करने के इस वाकये को बयान कर रोने लगती हैं. उस दोपहर वह दोपहर दो बजे के करीब घर से निकले थे. गुड्डी देवी कहती हैं कि पूरी जिंदगी परेशानी में गुजरी है. लॉकडाउन में काम खत्म हो जाने से पति और परेशान हो गए और आखिर में अपनी जान ही लेने का निर्णय ले लिया.
भानुप्रकाश गुप्ता उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले के मैगलगंज थाना क्षेत्र के नई बस्ती खखरा के रहने वाले थे. उन्होंने 29 मई की दोपहर मैंगलगंज रेलवे लाइन पर स्टेशन पर ट्रेन के सामने आकर आत्महत्या कर ली थी.
50 वर्षीय भानु प्रकाश की जेब से एक सुसाइड नोट मिला था, जिसमें उन्होंने गरीबी और बेरोजगारी का जिक्र करते हुए इस कारण से आत्महत्या करने की बात कही थी.
भानु प्रकाश का सुसाइड नोट लॉकडाउन में गरीबों और बेरोजगार हुए लोगों की व्यथा, बेबसी और नाकाफी सरकारी इंतजाम का जीवंत दस्तावेज है.
भानु प्रकाश ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था, 'मैं यह सुसाइड गरीबी और बेरोजगारी की वजह से कर रहा हूं. गेहूं, चावल सरकारी कोटे पर मिलता है पर चीनी, पत्ती, दाल सब्जी, मिर्च, मसाले परचून वाला अब उधार नहीं देता. मुझे खांसी, सांस, जोड़ों का दर्द, दौरा, अत्यधिक कमजेारी, चलना तो सांस फूलना चक्कर आना आदि है. मेरी विधवा मां दो साल से खांसी-बुखार से पीड़ित हैं. हम तड़प-तड़पकर जी रहे हैं. लॉकडाउन बराबर बढ़ता जा रहा है. नौकरी नहीं मिल रही है तो कैसे खर्चा चलवाएं व इलाज करवाएं. शासन-प्रशासन से भी कोई सहयोग नहीं मिला. गरीबी का आलम ये है कि मेरे मरने के बाद मेरे अंतिम संस्कार भर का भी पैसा मेरे परिवार के पास नहीं होगा.'
भानु प्रकाश उत्तर प्रदेश के ही शाहजहांपुर में रेलवे स्टेशन के पास एक ढाबे में भोजन बनाने का काम करते थे. वह लंबे अर्से से अपनी आजीविका के लिए यही काम करते आए थे। लॉकडाउन के बाद ढाबा बंद हो गया और वे बेरोजगार हो गए और उन्हें घर लौटना पड़ा.
वे शाहजहांपुर में परिवार सहित रहते थे. काम बंद होने के बाद सभी गांव लौट आए. उनका गांव मैगलगंज रेलवे लाइन के पास ही है. रेलवे लाइन उनके घर से बमुश्किल 100 मीटर दूर है.
इस परिवार के जानने वालों ने बताया कि भानु गुप्ता की आर्थिक स्थिति कभी अच्छी नहीं रही. उनके परिवार में बूढ़ी मां रामकली, पत्नी गुड्डी, तीन बेटियां- लक्ष्मी, तनु, सोनम और दो बेटे-अंकुश व लवकुश हैं.
उन्होंने बड़ी बेटी लक्ष्मी की शादी कर दी थी. दोनों बेटे छोटे हैं. दोनों पहले प्राइवेट स्कूल में पढ़ते थे लेकिन बाद में उनका एडमिशन सरकारी स्कूल में करा दिया गया. भानु बड़ी होती दोनों बेटियों की शादी के लिए भी चिंता में रहते थे.
बड़ी बेटी की शादी के बाद से भानु प्रकाश का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने लगा था. बेटी की विदाई के समय वह अचेत हो गए थे. गुड्डी देवी बताती हैं कि इसके बाद से उन्हें कई बार दौरे आए, जिसकी वह दवा लेते थे. हर दौरे के बाद और कमजोर जा रहे थे.
भानु प्रकाश के भाई राजेश गुप्ता भी उनके साथ शाहजहांपुर में बगल के ही ढाबे में काम करते थे. राजेश बताते हैं, 'स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण भाई साहब महीने में 20 दिन से आधिक दिन काम नहीं कर पाते थे जिसके कारण उनकी कमाई भी सीमित होती जा रही थी। लॉकडाउन में ढाबा बंद हो जाने से दो महीने तक बैठकी हो गयी और जो कमाई होती थी वह भी चली गयी. मैं खुद परेशान हूं.'
इसी गांव में रहने वाले भानु प्रकाश के रिश्तेदार रामकुमार परिवार की कमजोर आर्थिक हालत की तस्दीक करते हैं. वे बताते हैं, 'भानु प्रकाश की माली हालत बहुत खराब थी. हमने कई बार मदद की थी.'
वे आगे कहते हैं कि भानु प्रकाश संकोची थे और मदद के लिए जल्दी हाथ नहीं फैलाते थे. उन्होंने दवाई के लिए कई बार हजार-डेढ़ हजार रुपये की मदद की थी. वे अब अफसोस करते हुए कहते हैं, 'काश भानु ने कुछ कहा होता तो जरूर उसकी मदद का इंतजाम हो गया होता.'
इधर कुछ दिन से गुड्डी देवी की भी तबियत ठीक नहीं थी, हल्का बुखार रहता था. भानु प्रकाश उनके लिए दवा लेकर आए थे लेकिन आर्थिक तंगी के लिए अपने लिए दवा नहीं ले पाए. वे कहती हैं, 'वह बार-बार यही कहते थे कि 'दूनो जानि बीमार रहत हैं. दवाई भी नाहीं करा पावत हैं. दुई महीने से खाली बैठे हैं. कोई देखने वाला भी नहीं है. '
गुड्डी देवी कहती हैं कि उनके पति का पूरा जीवन परेशानी-उलझन में बीता. गरीब परिवार से होने के कारण पूरी जिंदगी दो पैसे के लिए संघर्ष करते रहे. शादी के बाद भी गुरबत की जिंदगी जारी रही, आखिर इसी गुरबत ने उनकी जान ले ली.
इस बीच समाजवादी पार्टी ने भानु प्रकाश गुप्ता के परिजनों को एक लाख रुपये की सहायता दी है। सपा नेता क्रांति कुमार सिह ने उनके परिजनों से मिलकर पार्टी द्वारा दी गई धनराशि गुड्डी देवी और रामकली देवी के खाते में ट्रांसफर करवाई है.
सिंह ने बताया कि उन्होंने अपने स्तर से एक क्विंटल गेहूं व चावल भी इस परिवार को दिया है. इसके अलावा पार्टी नेताओं द्वारा 20 हजार रुपये का अलग से सहयोग किया गया है. इस दौरान कुछ भाजपा नेता भी भानु प्रकाश के घर पहुंचे और सहयोग का आश्वासन दिया.
क्रांति सिंह कहते हैं, 'भानु प्रकाश की एक महीने की कमाई तीन से साढ़े तीन हजार रुपये थी. इसी में वे इतने बड़े परिवार का गुजारा करते थे. गांव के पते पर राशन कार्ड बना था, जिस पर राशन तो मिला जाता था लेकिन केवल इससे तो किसी गरीब परिवार का गुजर-बसर नहीं होता. सब्जी, नून-तेल आदि के खर्च के लिए आखिर भानु प्रकाश जैसे गरीब को कैसे मदद मिलेगी यह एक बड़ा सवाल है?'
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)