भौतिक विकास ने पर्यावरण को बहुत नुकशान पहुँचाया है। आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो। प्रकृति संरक्षण के संस्कार सिर्फ भारत में ही है। सनातन परम्पराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं।
प्राचीन काल से ही भारत के ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण की गहरी जानकारी थी। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए, ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। इसीलिए भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है। यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति गंभीर होती।
हिन्दुत्व वैज्ञानिक जीवन पद्धति है। प्रत्येक हिन्दू परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है। हिन्दू धर्म के संबंध में एक बात दुनिया मानती है कि हिन्दू दर्शन 'जियो और जीने दो' के सिद्धांत पर आधारित है। यह विशेषता किसी अन्य धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म का सह अस्तित्व का सिद्धांत ही हिन्दुओं को प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और सम्वद्र्धन के निर्देश मिलते हैं।
हमारे ऋषि जानते थे कि पृथ्वी का आधार जल और जंगल है। इसलिए उन्होंने पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है- 'वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:' अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। जंगल को हमारे ऋषि आनंददायक कहते हैं- 'अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु'। इसीलिए हिन्दू जीवन के चार आश्रमों में से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास का सीधा संबंध वनों से ही है।
वनों में ही हमारी सांस्कृतिक विरासत का विकास हुआ है। हिन्दू संस्कृति में वृक्ष को देवता मानकर पूजा करने का विधान है। वृक्षों की पूजा करने के विधान के कारण हिन्दू स्वभाव से वृक्षों का संरक्षक हो जाता है। चाणक्य ने भी आदर्श शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से अरण्यपालों की नियुक्ति करने की बात कही है। हमारे महर्षि यह भली प्रकार जानते थे कि पेड़ों में भी चेतना होती है, इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से लेकर बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङ्मयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं।
सनातन संस्कृति में घर में तुलसी का पौधा लगाने का आग्रह भी हमारी पर्यावरणीय चेतना को उद्घाटित करते हैं। तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधिय गुण भी मौजूद हैं। इसी तरह पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। सामान्य गृहिणी भी अपने अबोध बच्चे को समझाती है कि रात में पेड़-पौधे को छूना नहीं चाहिए, वे सो जाते हैं। रात में पेड़ कार्बन डाइ ऑक्सीजन छोड़ते हैं, इसलिए गांव में दिनभर पेड़ की छांव में बिता देने वाले बच्चे-युवा-बुजुर्ग रात में पेड़ों के नीचे नहीं सोते हैं।
इसी तरह जलस्रातों का भी हिन्दू धर्म में व्यापक महत्व है। ज्यादातर गांव-नगर नदी के किनारे पर बसे हैं। ऐसे गांव जो नदी किनारे नहीं हैं, वहां ग्रामीणों ने तालाब बनाए थे। बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है। अथर्ववेद में बताया गया है कि आवास के समीप शुद्ध जलयुक्त जलाशय होना चाहिए। जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। पूर्वजों ने गंगा समेत सभी नदियों को मां कहा है। महर्षि नारद ने कहा है कि पृथ्वी, अन्तरिक्ष, पर्वत, पशु-पक्षी, देव-मनुष्य, वनस्पति सभी मूर्तिमान जल ही हैं।
देश के प्रमुख पर्वत देवताओं के निवास स्थान हैं। विन्ध्यगिरि महाशक्तियों का वासस्थल है। कैलाश महाशिव की तपोभूमि है। हिमालय को तो भारत का किरीट कहा गया है। इसी तरह हमारे महर्षियों ने जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हिन्दू धर्म में गाय, कुत्ता, बिल्ली, चूहा, हाथी, शेर और यहां तक की विषधर नागराज को भी पूजनीय है।
इस तरह सनातन परम्पराओं में जीव संरक्षण का संदेश है। हिन्दू गाय की मां के रूप में अर्चना करता है। नागपंचमी के दिन नागदेव की पूजा की जाती है। कुल मिलकर हिन्दू धर्म प्रकृति के संरक्षण की परम्परा का जन्मदाता है। हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है। हमारे सभी त्योहार भी प्रकृति के अनुरूप हैं। मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिव रात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज और गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का पुण्य स्मरण है।