कोरोनावायरस को लेकर हाल ही एक अध्ययन में पाया गया है कि इसके मरीजों की मौत निमोनिया से नहीं बल्कि खून का थक्का जमने के कारण हो रही है. रिपोर्ट में बोला गया है
कि इटली में कोरोना से मरने वालों की ऑटोप्सी में सामने आया है कि उनके फेफड़ों, किडनी व दिमाग में खून बुरी तरह जम चुका था. इससे फेफड़ों के साथ हार्ट व ब्रेन अटैक की संभावना बढ़ जाती है. न्यूयार्क के वील कर्नल मेडिसन के हीमेटोलॉजिस्ट डाक्टर जैफ्री लॉरेंस का बोलना है कि आईसीयू में भर्ती बहुत से मरीजों में क्लॉटिंग समस्या देखने को मिल रही है. ये कोविड-19 के ही मरीज हैं व यह इससे पहले ऐसा नहीं देखा गया था. क्या कहते हैं डॉक्टर इटली व अमरीका में जो अध्ययन हुए हैं वे मरीजों के पोस्टमॉर्टम के आधार पर किए गए हैं. जीवित शरीर व पोस्टमार्टम रिपोर्ट दोनों में थोड़ा अंतर होने कि सम्भावना है. लेकिन इसको हम नकार नहीं सकते हैं क्योंकि हिंदुस्तान में भी कुछ मरीजों के फेफड़ों के सीटी स्कैन में क्लॉटिंग देखने को मिलता है. अभी संक्रमण फैलने से रोकने के लिए एहतियातन पोस्टमार्टम नहीं हो रहे हैं. ऐसे में यह बोलना जल्दबाजी होगा कि केवल खून पतला करने वाली दवा दें तो कोरोना के मरीजों की जान बच जाएगी. मुंह से निकला वायरस अधिक नुकसान पहुंचाता अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की रिसर्चर नीलजे वान डोरमलेन के अनुसार कोविड-19 वायरस छींकने के बाद हवा में तीन घंटे तक जिंदा रह सकता है जबकि खांसने पर मुंह से निकले 1-5 माइक्रोमीटर साइज के ड्रॉपलेट हवा में कई घंटों तक जिंदा रह सकते हैं. सामान्य वार्ता के दौरान निकलने वाले ड्रॉप्लेट्स महज आठ मिनट तक ही हवा में रह सकते हैं. ऐसे में मुंह से वार्ता के दौरान निकला कोविड-19 संक्रमित का ड्रॉपलेट्स अधिक नुकसान पहुंचाता है. यही वजह है कि दक्षिण कोरिया के एक कॉल सेंटर में सबसे अधिक मरीज मिले थे. वायरस गत्ते पर 24 घंटे, प्लास्टिक व स्टील की सतह पर 2-3 दिन तक जिंदा रहता है. कॉपर पर सबसे कम चार घंटे रहता है. जितनी दूरी, उतनी सुरक्षा कई अध्ययन में यह भी आया है कि महज छह फीट की दूरी बनाए रखना कोविड-19 से सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. अगर एक संक्रमित व्यक्तिएक बड़े कमरे में भी छींकता या खांसता है तो कमरे में उपस्थित सभी लोगों में इसके संक्रमण की संभावना रहती है.