तीन फिल्में जो कल तक कपोल-कल्पना लगती थीं

अक्सर किसी दिल दहला देने वाली सत्य घटना पर आधारित फिल्म देखते हुए हम कहते हैं कि 'काश, ये सबकुछ कभी न घटा होता!' इसी तरह कुछ फिल्मों के मामले में राहत की सांस लेते हुए यह भी कहते हैं कि 'शुक्र है जो भी देखा, वह सब काल्पनिक था!' लेकिन कोरोना संकट के इस समय में तमाम आर्थिक-सामाजिक और व्यक्तिगत समीकरणों के साथ जैसे ये बातें भी उलट-पुलट हो गई हैं. यह कहने की वजह यह है कि आजकल हम सच्ची कहानियों के नाट्य रूपांतरण को परदे पर देखने के साथ-साथ, कुछ अतिनाटकीय फिल्मी कहानियों को वास्तविकता में बदलते हुए भी देख रहे हैं. महामारी से जूझने का यह समय कई और चीजों के साथ शायद इस बात के लिए भी याद रखा जाएगा जब कई ऐसी घटनाएं घटीं जिन्हें देखकर सिर्फ यही कहा जा सकता है - 'अरे ऐसा तो बस फिल्मों में ही होता आया था!'

कंटेजियन
महामारी के इस दौर में कल्पना से वास्तविकता बनने वाली पहली फिल्म 'कंटेजियन' है. साल 2011 में रिलीज हुई, स्टीवन सोडरबर्ग के निर्देशन में बनी यह फिल्म पिछले दिनों तब चर्चा में आ गई जब दुनिया भर में कोरोना वायरस का संक्रमण बहुत तेजी से फैला. फिल्म के कथानक और दुनिया की आज की हकीकत में चौंकाने वाली समानताएं हैं. उदाहरण के लिए इसकी शुरूआत भी चीन से ही हुई और यह भी चमगादड़ों से ही इंसान तक पहुंचता है.
हालांकि यह सोचकर चुटकी भर राहत महसूस की जा सकती है कि फिल्म और वास्तविकता में थोड़ा अंतर है और कोरोना वायरस की भयावहता फिल्मी वायरस की अपेक्षा कम है. जैसे कि फिल्म में महामारी फैलाने वाला वायरस 'एमईवी-1' भी कोरोना वायरस की तरह खांसी और छींक से तो फैलता ही है, किसी को छूने से भी संक्रमित कर सकता है. साथ ही, फिल्म में एमईवी-1 का संक्रमण होने पर इंसेफेलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) होता है और इससे होने वाली मौतों की दर 25 से 30 फीसदी बताई है. वहीं, कोरोना वायरस के संपर्क में आने पर फेफड़ों का संक्रमण होता है और इससे होने वाली मौतों की दर तीन से चार फीसदी है.
लेकिन वायरस की दहशत से बिगड़ा माहौल, इलाज खोजने के लिए दुनिया भर में मची अफरा-तफरी, बंद होते बाज़ार, आपा खोती वैश्वविक संस्थाएं और भूख से परेशान होकर पलायन या अपराध करने पर मजबूर लोग इस फिल्म में भी देखे जा सकते हैं.
द टर्मिनल
साल 2004 में रिलीज हुई 'द टर्मिनल' का निर्देशन एक दूसरे स्टीवन ने किया है - स्टीवन स्पीलबर्ग ने. द टर्मिनल में मुख्य भूमिका टॉम हैंक्स ने निभाई थी. बड़ी दिलचस्प बारीकियों से भरी इस फिल्म में एक काल्पनिक यूरोपियन देश क्राकोझिया का जिक्र किया गया है जहां गृहयुद्ध छिड़ चुका है. इसके कारण अमेरिकन सरकार उसे एक देश मानने से इनकार कर देती है. इन सारे पेंचों के चलते क्राकोझिया का एक नागरिक अमेरिका के एक हवाई अड्डे पर अटक जाता है. फिल्म दिखाती है कि यह स्टेटलेस व्यक्ति कैसे कई महीने एयरपोर्ट पर गुजारता है और खुद को जीवित और खुश रखने की कोशिश में लगा रहता है.
कुछ इसी तरह का किस्सा दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर फंसे जर्मन नागरिक एडगार्ड ज़ीबार्ट का रहा. हनोई (वियतनाम) से इस्तांबूल (टर्की) जा रहे ज़ीबार्ट ट्रांजिट यानी विमान बदलने के दौरान दिल्ली में फंस गए. उनके दिल्ली पहुंचने वाले दिन ही यानी 18 मार्च को भारत सरकार ने कोरोना वायरस के प्रकोप के चलते सभी अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर पाबंदी लगा दी. ऐसे में कई वेदेशी यात्री भारत में अटक गए. तमाम देशों से आए इन यात्रियों के रहने की व्यवस्था जहां उनके देशों के दूतावासों ने कर दी. वहीं, जर्मनी में क्रिमिनल रिकॉर्ड होने के चलते जर्मन एम्बैसी ने ज़ीबार्ट की कस्टडी लेने से मना कर दिया और इस वजह से भारत सरकार ने भी उन्हें वीज़ा नहीं दिया.
'द टर्मिनल' के नायक की तरह उन्हें महीनों तो नहीं लेकिन 55 दिनों तक एयरपोर्ट पर रहना पड़ा. ज़ीबार्ट का किस्सा फिल्म से कुछ अलग इस तरह रहा कि यहां पर एयरपोर्ट अथॉरिटी ने उनकी थोड़ी मदद की और ट्रांज़िट एरिया में ही उनके लिए एक रेक्लाइनर, मच्छरदानी, टूथपेस्ट और खाने-पीने की कुछ चीजों का इंतजाम करवा दिया. फिल्म और वास्तविकता में एक और फर्क यह भी रहा कि फिल्म में जहां हवाई अड्डे पर लगातार गहमा-गहमा रहती थी, वहीं भारतीय हवाई अड्डा सूना पड़ा रहता था क्योंकि यह आंशिक तौर पर मुख्यत: कॉमर्शियल उड़ानों के लिए ही चालू था.
कुछ समय पहले एडगार्ड जीबार्ट ने मांग की थी कि उनके पास कई और देशों के वीज़ा हैं, इसलिए उन्हें कहीं और भेज दिया जाए, ताकि वे आज़ादी से रह सकें. हालांकि तब यह मांग यह कहकर ठुकरा दी गई थी कि अंतर्राष्ट्रीय उड़ानें शुरू होने पर ही ऐसा किया जा सकेगा. लेकिन पिछले दिनों, यह बात खबरों में आ जाने के चलते उन्हें एक रिलीफ फ्लाइट से एम्सटर्डम भेज दिया गया है.
जॉ'ज
जॉ यानी जबड़ा. साल 1975 में आई 'जॉ'ज' अमेरिका के एक आईलैंड पर आंतक मचाने वाली शार्क का किस्सा बताती है. शॉर्क के खतरनाक जबड़े को डर का प्रतीक बनाने वाली इस फिल्म का निर्देशन भी स्टीवन स्पीलबर्ग ने ही किया था. फिल्म से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह है कि करीब दो घंटे लंबी इस फिल्म में शॉर्क बमुश्किल चार मिनट के लिए ही परदे पर नज़र आती है. लेकिन फिर भी पूरे समय कथानक पर इसका आतंक छाया रहता है. करीब आधी सदी पहले रिलीज हुई इस फिल्म को देखते हुए शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन सारी दुनिया को कुछ इसी तरह के डर का सामना करना पड़ेगा. फिल्म और आज के माहौल की तुलना करें तो जैसे फिल्म में कहीं भी शार्क नहीं दिखाई देती है लेकिन कभी भी उसके हमला करने की आशंका किरदारों को डराती है, उसी तरह कोरोना वायरस भी कहीं नहीं दिखता है पर उसके हर जगह होने का संभावना हमें भय से भर देती है.
इसके अलावा भी, फिल्म में कई सीक्वेंस ऐसे हैं जो हमारे आज से मिलते-जुलते हैं. जैसे कि फिल्म में लोग बीच पर एकदम सामान्य तरीके से आते-जाते दिखाई देते हैं लेकिन शॉर्क का जिक्र आते ही हर तरफ भगदड़ मच जाती है. कोरोना त्रासदी के संदर्भ में देखे तो इस समय भी बाहर से सबकुछ सामान्य लगता है. लेकिन कुछ-कुछ समय में मोबाइल-टीवी पर आने वाली चेतावनियों से लेकर भूख और बीमारी के डर से पैदल घर लौटते लोगों के जत्थे, हमें यह बताते रहते हैं कि स्थिति बेहद गंभीर है.
माहौल से ज्यादा आज के दौर की राजनीति भी 'जॉ'ज' की पटकथा से बहुत हद तक मिलती-जुलती है. फिल्म में शहर का मेयर पुलिस अधिकारियों की चेतावनी को नज़रअंदाज करता है और शॉर्क को गंभीरता से नहीं लेता है. वह बीच को बंद करने या शॉर्क के खतरे को खत्म करने पर पैसे खर्च करने के बजाय यह चाहता है कि इससे गर्मी की छुट्टियों में आने वाले सैलानियों और उनसे होने वाली सरकारी आमदनी पर कोई असर ना पड़े. यह ठीक वैसा ही रवैया था, जैसा कोरोना संकट की शुरूआत के दौरान अमेरिका, ब्रिटेन, इटली समेत तमाम देशों के नेताओं ने दिखाया. इन सभी ने अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को व्यापारिक नुकसान होने के डर से तब तक नहीं बंद किया, जब तक स्थिति बेकाबू होने के कगार पर नहीं पहुंच गई. यानी, आजकल इंसान पर अर्थव्यवस्था को तवज्जो देने वाली जो राजनीति लगभग हर देश में देखने को मिल रही है, वह 'जॉ'ज' के कलात्मक व्यंग्य को वास्तविकता में बदलती लगती है.

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