सच्चाई का मुखोटा उतार आया हूँ।
बस आज मैं खुद को मार आया हूँ।।
सच्चाई से मैं अपनी बहुत परेशां रहा हूँ।
अब अपने लिए झूठ का नकाब लाया हूँ।।
हर तरफ अब झूठ और मक्कारी छायी है।
मेरी सच्चाई इस भीड़ में बहुत घबराई है।।
हर एक,दूसरे से तीसरे की बुराई कर रहा है।
फिर तीसरे के साथ मुस्कुराकर गले लग रहा है।।
बस उसी मुस्कुराहठ को चेहरे पर तराश रहा हूँ।
मासूमियत भरी मुस्कान को अब मार रहा हूँ।।
जब तक मयखाने में अकेला था,
तब तक ही मैं शराबी कहलाया।
जब बैठ गया सब शरीफो के साथ,
तब जाकर सामाजिक कहलाया हूँ।।
आज बड़ा ही परेशां है मेरा अकेलापन।
मैं खुद को भेड़चाल से जोड़ आया हूँ।।
अब आईना मुझमे मुझको ही खोजता है।
नकाब मैंने अब अंतरात्मा तक चढ़ाया है।।
देख रहा हूँ आजकल लोग साथ आ रहे है।
कल तक जो बेगाने थे,वो आजकल अपनो
से भी ज्यादा अपने नजर आ रहे है।।
मेरी सच्चाई से जो लोग मुँह फेरने लगे थे।
झूठ से मेरे वो अब करीब आने लगे है।।
-नीरज त्यागी
ग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश ).