भवानी दयाल संन्यासी को हम सब कम जानते हैं. या यूं कहिए कि उनके बारे में हमें कम बताया गया है. ऐसा क्यों है, यह नहीं पता. शुरुआत में तो उनके बारे में डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसे राजनेताओं से लेकर शिवपूजन सहाय जैसे साहित्यकारों तक ने खूब बताया था. लेकिन बाद में इनपर चर्चा ही बंद हो गयी. जबकि संन्यासी के व्यक्तित्व और कृतित्व की दुनिया से गुजरेंगे तो मालूम होगा कि उनके नाम की चर्चा के बिना गांधी और हिंदी, दोनों का दक्षिणी अफ्रीकी देशों का सफर पूरा नहीं होता.
1892 में जन्मे भवानी दयाल संन्यासी अपने समय में दक्षिण अफ्रीका में बेहद सक्रिय, लोकप्रिय औक कर्मठ प्रवासियों में थे. उनका जन्म जोहांसबर्ग में हुआ था, जो दक्षिण अफ्रीका में गांधी के सत्याग्रही प्रयोग का शहर था. बिहार के एक गिरमिटिया मजदूर और अयोध्या से आरकाटी प्रथा के तहत ले जायी गयी एक महिला के पुत्र संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका में अप्रवासियों के साथ भारतीयों का एकीकरण करने के साथ ही उनका बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व भी किया था. साक्ष्यों और दस्तावेजों को खंगाले तो यह भी कह सकते हैं कि अपने समय में वे सबसे लोकप्रिय अप्रवासी थे.
संन्यासी दक्षिण अफ्रीकी देशों में रहनेवाले भारतीयों के सबसे विश्वसनीय और लोकप्रिय दूत थे. वे महात्मा गांधी के प्रिय लोगों में से एक भी रहे और इन सबसे बड़ी पहचान उनकी हिंदी के अनन्य सेवक की रही. अपने समय में उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी देशों में हिंदी के प्रचार में अहम भूमिका निभायी. 1922 में संन्यासी ने नेटाल से 'हिंदी' नाम से साप्ताहिक पत्रिका निकालने की शुरुआत की. यह अफ्रीका के अलग अलग देशों में रहने वाले प्रवासियों के बीच बेहद लोकप्रिय पत्रिका हुई.
इसके साथ ही संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका के कई देशों में रात्रि हिंदी पाठशााला की शुरुआत भी की. उनकी पत्नी जगरानी देवी थीं जो अनपढ़ थीं, लेकिन संन्यासी ने उन्हें घर में ही पढ़ाकर इस अनुरूप तैयार किया कि वे हिंदी की अनन्य सेवी तो बनी हीं, दक्षिण अफ्रीका में प्रमुख महिला सत्याग्रही भी बनीं. उनके नाम पर ही नेटाल में जगरानी प्रेस की स्थापना हुई. संन्यासी के हिंदी के प्रति समर्पण और उनकी राजनीतिक समझ का ही परिणाम था कि दक्षिण अफ्रीका में वे 'इंडियन ओपिनियन' के हिंदी संपादक भी बनाये गये थे. यह महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया एक अखबार था.
यह तो संन्यासी के दक्षिण अफ्रीका में किये गये काम की बात है. भारत आकर उन्होंने जिन कार्यों की बुनियाद रखी वह भी चकित करनेवाला है. संन्यासी पहली दफा 13 साल की उम्र में ही अपने पिता के साथ भारत में अपने मूल पैतृक गांव बहुआरा आये थे. यह बहुआरा गांव बिहार के रोहतास जिले में है. एक बार गांव आये तो फिर उनका आना-जाना लगा रहा. किशोरावस्था में ही संन्यासी ने अपने गांव के गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए एक राष्ट्रीय पाठशाला की नींव रख दी थी. बाद में उन्होंने एक वैदिक पाठशाला भी खोली. फिर गांव में ही उन्होंने खरदूषण नाम की एक और पाठशाला भी शुरू की. यहां बच्चों को पढ़ाने के साथ संगीत की शिक्षा दी जाती थी और किसानों को खेती संबंधी नई जानकारियां भी. बताते हैं कि जब उन्होंने खरदूषण पाठशाला की नींव रखी तो उसका उद्घाटन करने डॉ राजेंद्र प्रसाद और सरोजनी नायडू जैसे दिग्गज उनके गांव बैलगाड़ी से यात्रा कर पहुंचे थे. इस पाठशाला के साथ ही संन्यासी ने अपने गांव में 1926 में 'प्रवासी भवन' का भी निर्माण करवाया.
यह सब करते हुए संन्यासी जब उम्र में थोड़े और बड़े हुए तो फिर उनकी राजनीतिक गतिविधियां भी परवान चढ़ीं. वे 1939 में दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने के लिए इकलौते प्रतिनिधि के तौर पर भारत आये. भारत में उनकी गतिविधियां बढ़ीं तो तो उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. वे हजारीबाग जेल में रहे. वहां उन्होंने 'कारागार' नाम से पत्रिका निकालनी शुरू की जिसके तीन अंक जेल से हस्तलिखित निकले. उसी में एक सत्याग्रह अंक भी था जिसे अंग्रेजी सरकार ने गायब करवा दिया था.
इंडियन कॉलोनियल एसोसिएशन से जुड़े प्रेम नारायण अग्रवाल ने 1939 में 'भवानी दयाल संन्यासी- ए पब्लिक वर्कर ऑफ साउथ अफ्रीका' नाम से एक किताब लिखी थी. इसे अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था. बाद में संन्यासी ने खुद कई अहम पुस्तकों की रचना की. उनकी चर्चित किताबों में 1920 में लिखी गयी ' दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास', 1945 में लिखी गयी 'प्रवासी की आत्मकथा', 'दक्षिण अफ्रीका के मेरे अनुभव', 'हमारी कारावास की कहानी', 'वैदिक प्रार्थना' आदि है. 'प्रवासी की आत्मकथा' की भूमिका डॉ राजेंद्र प्रसाद ने लिखी है तो 'वैदिक प्रार्थना' की भूमिका शिवपूजन सहाय ने. सहाय ने तो यहां तक लिखा है कि उन्होंने देश के कई लोगों की लाइब्रेरियां देखी हैं, लेकिन संन्यासी की तरह किसी की निजी लाइब्रेरी नहीं थी.
भवानी दयाल संन्यासी के नाम पर अब भी दक्षिण अफ्रीका में कई महत्वपूर्ण संस्थान चलते हैं. डरबन में उनके नाम पर भवानी भवन है. नेटाल और जोहांसबर्ग के अलावा दूसरे कई देशों में भी संन्यासी अब भी एक नायक के तौर पर महत्वपूर्ण बने हुए हैं. लेकिन अपने देश भारत में न तो गांधी की बात करने वाले उनका नाम कभी लेते हैं, न हिंदीवाले और न ही विस्मृति के गर्भ से खोज-खोजकर रोज नये नायकों को उभारने में लगे बिहार वाले. यह हाल तब है जब संन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका से ज्यादा समय अपने ही देश, अपने ही राज्य में जिया था.