"मैं अपनी नवजात बच्ची को गोद में लेना चाहता हूँ, उसे छूना चाहता हूँ, उसकी शरारतें देखना चाहता हूँ. बस मैं और मेरी पत्नी उसे फ़ेस टाइम कॉल पर देख पाते हैं, तो थोड़ी तसल्ली मिलती है." ये कहकर समीर (बदला हुआ नाम) का गला भर आता है.
समीर बंगलुरु के रहने वाले हैं. उनकी शादी के 16 साल बीत गए थे और उन्हें घर में एक किलकारी का इंतज़ार था.
डॉक्टरों की सलाह के बाद उन्होंने और उनकी पत्नी ने गुजरात जाकर सरोगेसी के ज़रिए माता-पिता बनने का सपना देखा. ये सपना 30 अप्रैल को पूरा भी हो गया जब गुजरात के एक अस्पताल में सरोगेसी की मदद से उनकी बच्ची पैदा हुई लेकिन लॉकडाउन के कारण समीर और उनकी पत्नी अपनी बच्ची को घर लाने में असमर्थ हैं.
ऐसे ही कई दंपति हैं जिन्हें माता-पिता बनने का सुख तो मिल गया, मगर वो अभी अपने बच्चे को घर नहीं ला सकते.
क्या है सरोगेसी?
दरअसल, सरोगेसी के तहत पति-पत्नी बच्चा पैदा करने के लिए किसी महिला की कोख किराये पर ले सकते हैं.
सरोगेसी से बच्चा पैदा करने के पीछे कई कारण होते हैं. जैसे कि दंपत्ति के अपने बच्चे नहीं हो पा रहे हों, गर्भवती होने पर महिला की जान को ख़तरा हो या फिर कोई महिला ख़ुद बच्चा पैदा ना करना चाह रही हो.
यह एक तरह का करार है जो किसी दंपत्ति और सरोगेट मदर के बीच होता है. जो महिला अपनी कोख में दूसरे का बच्चा पालती हैं वो सरोगेट मदर कहलाती हैं.
सरोगेट मदर और बच्चे की चाह रखने वाले दंपत्ति के बीच एक एग्रीमेंट किया जाता है. इसके तहत इस प्रेग्नेंसी से पैदा होने वाले बच्चे के क़ानूनन माता-पिता वो दंपत्ति ही होते हैं जिन्होंने सरोगेसी कराई है.
माता-पिता बने पर बच्चा नहीं मिला
गुजरात का आणंद ज़िले को भारत में सरोगेसी का केन्द्र माना जाता है. यहाँ के अकांक्षा हॉस्पिटल एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के आईवीएफ़ क्लीनिक में डॉक्टर नयना पटेल का कहना है कि "लॉकडाउन शुरू होने के बाद 27 बच्चे पैदा हुए हैं. इसमें से 10 बच्चों को उनके माता-पिता ले जा चुके हैं और बाकियों को अभी भी माता-पिता के आने का इंतज़ार है और माता-पिता को अपने बच्चे का."
डॉक्टर पटेल बताती हैं, "हमारे पास ज़्यादातर जो दंपति आये हैं, उन्हें शादी के 10 से 16 साल के बाद बच्चे होने का सुख मिला है. ऐसे में वो माता-पिता बनने पर खुश हैं. लेकिन इस बात से परेशान भी हो रहे हैं कि बच्चे को ले जा नहीं सकते. काफ़ी लोग इस बात से डरे हुए हैं कि कहीं बच्चे की तबीयत ख़राब ना हो जाये. मिली-जुली भावनाओं का ये लोग सामना कर रहे हैं."
वो बताती हैं कि "कोरोना वायरस की वजह से हमारी ज़िम्मेदारी भी बढ़ गई है. सभी प्रकार की एहतियात बरती जा रही है ताकि बच्चे तक कोई इन्फ़ेक्शन ना पहुँच पाये."
डॉक्टर बतातीं हैं, "जो नर्सें या अटेंडेंट इन नवजात बच्चों की देखभाल कर रहे हैं, उन्हें 14 दिन के बाद ही घर जाने की इजाज़त दी गई है और तीन नर्सों को अस्पताल में ही रहने को कहा गया है और उनके सारे बंदोबस्त अस्पताल में ही किये गए हैं."
लॉकडाउन खुलने का इंतज़ार
डॉक्टर नयना पटेल कहती हैं कि इन बच्चों के अभिभावकों के साथ फ़ेसटाइम कॉल की व्यवस्था बनाई गई है.
उन्होंने कहा, "अलग-अलग समय तय किया गया है. कुछ का समय दोपहर के 2 से 4 बजे रखा गया है. हम बच्चे की हर गतिविधि उनके साथ शेयर करते है. कुछ पेरेंट्स अपने बच्चों को देखकर काफ़ी भावुक हो जाते हैं और अपनी चिंताएं भी हमसे शेयर करते हैं. शरीर पर कोई दाना निकल जाये तो पूछते हैं कि ये कैसे हो गया, वज़न कम क्यों हो गया? साफ़ सफ़ाई के बारे में भी सवाल पूछते हैं."
कई माता-पिता इन बच्चों को नाम से बुलाना पसंद करते हैं तो कई ऐसे ही पुकारते हैं.
डॉक्टर पटेल बताती हैं कि एक दंपति को क़रीब 15 साल बाद जुड़वा बच्चे हुए हैं और वो बस रोती ही रहती हैं कि इतने साल बाद बच्चे हुए हैं और मेरे पास नहीं हैं. ये लोग बस यही सवाल पूछते हैं कि कब ये लॉकडाउन खुलेगा और वो अपने बच्चों को अपने घर ले जा पाएंगे.
सरकार सरोगेसी (रेगुलेशन) बिल 2019 को मंजूरी दे चुकी है जिसमें व्यावसायिक सरोगेसी पर रोक लगाई गई है.
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source: bbc.com/hindi