आपने सम्राट हर्षवद्र्धन का नाम तो ज़रूर सुना होगा। वे भारत के एक यशस्वी सम्राट थे। सम्राट हर्षवद्र्धन वीर और बहुत बड़े विद्वान तो थे ही, इसके साथ-साथ उनमें एक विशेष गुण भी था कि वे विद्या प्रेमी भी थे। कला और साहित्य में रूचि रखने के अलावा वे विद्वानों का बहुत आदर-सत्कार किया करते थे। यही कारण था कि उनके दरबार में अनेक विद्वान थे।
एक समय की बात है। सम्राट हर्षवद्र्धन घने जंगल के रास्ते अपने नगर को लौट रहे थे कि वे रास्ता भटक गए। बहुत देर तक सम्राट इधर-उधर भटकते रहे लेकिन सही रास्ता नहीं मिला। गर्मी के कारण उनका मन व्याकुल हो रहा था और गला सूखा जा रहा था। तभी उन्हें काफी दूर एक आश्रम दिखाई दिया। सम्राट हर्षवर्द्धन उसी दिशा में चल पड़े।
काफी देर तक चलने के बाद सम्राट उस आश्रम के पास आकर रूके। तभी किसी की मधुर और बारीक आवाज उनके कानों में पड़ी, पथिक, तुम कौन हो और यहां किस उद्देश्य से आए हो?'
यह सुनकर और देखकर सम्राट के आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि यह आवाज किसी और की नहीं बल्कि पिंजरे में बंद एक मैना की थी। उसकी शुद्ध संस्कृतवाणी को सुनकर सम्राट का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही था। उस मैना को देखकर सम्राट की सारी थकान पल भर में ही गायब हो गई। वे कौतूहलवश काफी देर तक मैना को निहारते रहे और उसके साथ वार्तालाप करने में व्यस्त हो गए।
मैना ने एक विद्वान की भांति सम्राट के सभी प्रश्नों के बड़े सुंदर तरीके से उत्तर दिए। मैना के मुंह से अपने सभी प्रश्नों के इतने सटीक, सुंदर और सारगर्भित उत्तर सुनकर सम्राट सोचने लगे जिस आश्रम के पक्षी ही इतने चतुर और विद्वान हैं, उस आश्रम का स्वामी कितना बड़ा विद्वान होगा।'
तभी एक तेजस्वी पुरूष उस आश्रम में आया और उससे पूछने पर मालूम हुआ कि वह इस आश्रम का स्वामी है। उसने सम्राट हर्षवद्र्धन का अपने आश्रम पर स्वागत किया और उसके बार-बार आग्रह करने पर सम्राट को उसके साथ भोजन भी करना पड़ा।
भोजन के उपरांत दोनों में परस्पर देर रात तक बातें होती रही। उस तेजस्वी पुरूष की बातों का सम्राट पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। बातों ही बातों में जब सम्राट को यह पता चला कि उक्त पुरूष एक कवि भी हैं तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। फिर उन्होंने उस पुरूष से कुछ कविताएं सुनाने का भी आग्रह किया।
सम्राट के बहुत आग्रह करने पर उस प्रतिभावान पुरूष ने अपनी दो-तीन कविताएं सुना दी। कविताएं सुनकर सम्राट हर्षवद्र्धन बहुत प्रसन्न हुए। और उन्होंने कवि की पीठ ठोंकी तथा उसकी कल्पना को बार-बार सराहा। अपनी इतनी प्रशंसा सुनकर कवि की झिझक मिट गई और उसने हाल ही में रचित अपना ग्रंथ सम्राट के सामने रख दिया। उसका लिखा ग्रंथ पढ़कर तो हर्षवर्द्धन वाह-वाह कर उठे।
सम्राट ने कहा, हे कविराज! तुम तो वास्तव में एक अनमोल रत्न हो जो खुद अपना मूल्य नहीं जानते। आज तक तुम अपनी इस प्रतिभा को जंगल में छिपाए रहे पर अब मैं तुम्हें यहां नहीं रहने दूंगा। तुम जंगल के नहीं बल्कि राजदरबार के लायक हो, इसलिए आज से तुम मेरे दरबार में रहोगे। मैं तुम्हें राजकवि का पद देता हूं।
कवि सम्राट का यह आग्रह टाल न सके। क्या तुम जानते हो कि आश्रम में रहने वाला यह कवि कौन था? जी हां, यह वही कवि था जो बाद में 'महाकवि बाणभट्ट' के नाम से प्रसिद्ध हुए और जिनका लिखा महाकाव्य 'कादम्बरी' विश्वविख्यात है।
- सीमा भरतगढिय़ा