बिहार के सीतामढ़ी के रहने वाले ये मज़दूर उदयपुर की जयसमंद झील में मछली पकड़ने का काम करते थे. लॉकडाउन का दूसरा चरण शुरू होने तक किसी तरह की मदद न मिलने पर इन्होंने घर का रुख़ किया. रास्ते में कहीं ट्रकवालों, तो कहीं ग्रामीणों की मदद से ये सभी 13 दिन बाद रविवार को अपने गांव पहुंचे हैं.
बिहार के सीतामढ़ी जिले के चार मजदूर 20 अप्रैल को राजस्थान के उदयपुर से पैदल चले. आगरा तक पैदल चलते-चलते उनके पैरों में इस कदर छाले पड़ गए कि आगे चलने की हिम्मत नहीं रही.
जेब में पैसे भी नहीं थे. आगरा के आगे एक गांव में इन मजदूरों ने ग्रामीणों से गुहार लगाई कि वे उन्हें साइकिल दिला दें नहीं तो वे यहीं मर जाएंगे.
ग्रामीणों ने उन्हें तीन पुरानी साइकिलें मुहैया करवाईं, फिर इन साइकिलों की मदद से ये मजदूर 3 मई को अपने गांव पहुंचे. अब इन्हें गांव के क्वारंटीन सेंटर पर 21 दिन के लिए क्वारंटीन किया गया है.
तमाम मुश्किलें झेलने वाले ये चार मजदूर बिहार के सीतामढ़ी जिले के सूपी गांव के मनियारी तोले रहने वाले हैं. इनके नाम हैं- धर्मेंद्र कापर, रोहित कापर , मुकेश कापर और रिषू कापर.
उदयपुर से सीतामढ़ी तक की लगभग 1500 किलोमीटर की यात्रा में इन्होंने तकरीबन 370 किलोमीटर पैदल यात्रा की और 700 किलोमीटर से अधिक साइकिल चलाई.
राजस्थान में उन्हें एक ट्रक ने करीब 330 किलोमीटर तक लिफ्ट दी, बिहार में उन्हें 150 किलोमीटर तक राज्य सरकार की बस का सहारा मिला.
उदयपुर से अपने गांव तक पहुंचने के इस सफर में इन्हें 13 दिन लगे. मजदूरों ने रोज 150 से 175 किलोमीटर साइकिल चलाई. मुख्य मार्ग पर चलने से रोके जाने पर ये मजदूर पगडंडियों पर भी चलने को मजबूर हुए.
आगरा से लखनऊ तक साइकिल से चलते वक्त उन्हें कुछ खाने को भी नहीं मिला, साथ में रखा चिउड़े और खरीदे गए नमकीन से ही भूख शांत करनी पड़ी.
निषाद समुदाय के ये चारों मजदूर उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर जयसमंद झील में मछली पकड़ने का काम करते थे. ठेकेदार ने इन्हें नौ हजार रुपये महीने की मजदूरी पर यह काम दिया था.
ये सभी मजदूर 25 जनवरी को उदयपुर काम तलाशने आए थे. कई दिन तक भटकते रहने के बाद यह काम मिला. अभी 20 दिन ही काम कर पाए थे कि कोविड-19 के कारण लॉकडाउन हो गया.
देशव्यापी लॉकडाउन के बाद ठेकेदार ने मछली पकड़ने का काम बंद कर दिया. तब ये मजदूर झील के किनारे जंगल में टेंट में रहने लगे. इनके साथ बिहार के दूसरे जिलों के सात-आठ मजदूर और थे.
मजदूरों को राशन-पानी के लिए चार किलोमीटर दूर एक छोटे-से बाजार में जाना पड़ता था. वहां से राशन लाकर लकड़ी पर भोजन बनाते थे.
तीन सप्ताह से अधिक समय तक सरकार या स्थानीय प्रशासन की ओर से इन तक कोई मदद नहीं पहुंची, तब मजदूरों ने ठेकेदार के जरिये नजदीक के गांव के प्रधान से मदद मांगी. प्रधान ने आश्वासन तो दिया, लेकिन कोई मदद नहीं कर सके.
धर्मेंद्र कापर ने बताया, 'एक-एक कर साथ रह रहे बिहार के दूसरे जिले के सभी मजदूर चले गए और हम चार ही वहां रह गए. कमाई का हिस्सा गांव भेज दिया था, सिर्फ तीन हजार रुपये बचे थे जो 25 दिन तक के भोजन-पानी में खर्च हो गया.'
उन्होंने आगे बताया, 'सभी के पास मुश्किल से 1000-1200 रुपये बचे थे. जब लॉकडाउन के दूसरे चरण की घोषणा हो गई, तो कोई चारा नहीं बचा. आखिर में सभी ने फैसला लिया कि पैदल ही अपने गांव के लिए चल दिया जाए.'
धर्मेंद्र और उसके साथी 20 अप्रैल को पैदल चल पड़े, करीब 120 किलोमीटर पैदल चलने के बाद वे चित्तौड़गढ़ पहुंचे. यहां से एक ट्रक वाले ने जयपुर तक लिफ्ट दे दी.
उसने 23 अप्रैल को करीब 336 किलोमीटर के बाद जयपुर के पास इन मजदूरों को उतार दिया और यहां से वे पैदल ही आगे बढ़ते रहे.
230 किलोमीटर तक पैदल चलते हुए ये मजदूर तीन दिन बाद 26 अप्रैल को आगरा पहुंचे. यहां से आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे से आगे बढ़े, लेकिन करीब 20 किलोमीटर चलने के बाद हिम्मत जवाब दे गई.
धर्मेंद्र बताते हैं, 'चारों के पैर बुरी तरह सूज गए थे, उनसे चला नहीं जा रहा था. एक गांव में पहुंचकर गांव वालों से मदद मांगी. कहा कि किसी भी तरह साइकिल दिला दें. अगर साइकिल नहीं मिली तो वे गांव नहीं जा पाएंगे, रास्ते में ही मर जाएंगे.'
उन्होंने बताया कि इसके बाद गांव के कुछ लोगों ने उन्हें तीन पुरानी साइकिल दिलाईं, जिसके लिए 4,500 रुपये दिए. ये पैसे उन्होंने आगरा पहुंचने के बाद घर से मंगाए थे क्योंकि उनके सारे पैसे तब तक खत्म हो चुके थे.
तीन साइकिल मिलने के बाद 27 अप्रैल को ये सभी आगे के सफर पर निकले. एक साइकिल पर सबका सामान रखा गया और बाकी दो साइकिल पर तीन मजदूर चले.
रास्ते में उन्हें 14 और साइकिल सवार मिले. इनमें 13 मजदूर बिहार के मुजफफरपुर जिले के थे जबकि एक शिवहर जिले के. ये मजदूर मथुरा से आ रहे थे.
इसके बाद ये सभी मजदूर एक्सप्रेस वे से लखनऊ और वहां से फोर लेन हाइवे होते हुए एक मई की रात गोरखपुर पहुंचे, जहां इन्हें शहर के अंदर जाने से रोकते हुए बाइपास से जाने को कहा गया.
इन मजदूरों के बारे में जानकारी मिलने पर गोरखपुर शहर में कम्युनिटी किचन चला रहे कुछ छात्रों ने रात में इन्हें देवरिया बाइपास पर भोजन के पैकेट दिए.
यहां से गोरखपुर-कुशीनगर-तमकुही रोड होते हुए ये बिहार के गोपालगंज जिले में पहुंचे. आगरा से गोपालगंज तक इन सभी ने 700 किलोमीटर से अधिक साइकिल चलाई.
गोपालगंज जिले में स्थानीय प्रशासन द्वारा इन सभी की स्क्रीनिंग गई. यहां से वे दूसरे 14 मजदूरों से अलग हो गए और धर्मेंद्र को उनके तीन साथियों के साथ बस में बिठा दिया गया. बस में उनसे किराया नहीं लिया गया.
बस सीतामढ़ी से पहले महिन्दवारा तक ले गई और दो मई की रात इस पुलिस चेक पोस्ट पर चारों मजदूरों को उतार दिया गया. यहां उन्हें रोककर कहा गया कि उन्हें यहीं पर क्वांरटीन किया जाएगा.
लेकिन मजदूरों ने जोर दिया कि गांव के इतने करीब तक आ गए हैं तो उन्हें जाने दिया. यहां उन्हें पूरी रात रोका गया और तीन मई की दोपहर करीब एक बजे यहां से जाने दिया गया. और फिर वे सब साइकिल से 3 मई की शाम अपने गांव पहुंचे.
सभी मजदूर अपने घर के बाहर एक बगीचे में क्वारंटीन हुए थे, जहां से उन्हें चार मई की शाम गांव के स्कूल में पहुंचाया गया.
30 वर्षीय धर्मेंद्र बताते हैं कि चारों में वे सबसे बड़े हैं, बाकी तीनों की उम्र 20 साल से भी कम है. वे बताते है कि उदयपुर में पहली बार मजदूरी करने गए थे.
इसके पहले वह दिल्ली और हरियाणा में दस वर्ष से अधिक समय तक पेंट-पॉलिश का कम किया था. घर में मां, गर्भवती पत्नी और दो वर्ष की बेटी है. पिता का पहले निधन हो चुका है.
वह कहते हैं, टमां लगातार बीमार है. पत्नी की डिलीवरी अगले महीने है. घर पहुंचकर भी मां-पत्नी की देखरेख नहीं कर पा रहा हूं. दोनों की चिंता में उदयपुर से सीतामढ़ी तक चला आया.
उन्होंने आगे बताया कि सफर में उनके 12 से 13 हजार रुपये खर्च हुए हैं. उदयपुर में हम सब करीब तीन महीने रहे लेकिन एक महीने ही काम मिल पाया और बमुश्किल चारों 6-7 हजार रुपये ही कमा पाए.
वे कहते हैं, 'लॉकडाउन के पहले तीन हजार रुपये अपने पास रख सब पैसे घर भेज दिए थे. पर फिर घर भेजे गए पैसे में से ढाई हजार मंगाना पड़ा. कोई खेत-बाड़ी नहीं है. कुल जमीन एक कट्ठा है, जिसमें कच्चा घर है.'
धर्मेंद्र कहते हैं, 'उदयपुर इसी आस में गया था कि तीन महीने की कमाई से इस बार घर ठीक करा लूंगा लेकिन कोरोना और लॉकडाउन ने यह छोटा-सा सपना भी चकनाचूर कर दिया.'
उन्होंने बताया कि इस पूरी यात्रा में उन्हें किसी भी सरकार की मदद नहीं मिली.
वे कहते हैं, 'यह ठीक है कि सरकार इस समय कोरोना से लोगों को बचाने में लगी है लेकिन हम लोगों की तरफ भी देखना चाहिए. मुझे सबसे ज्यादा बुरा तब लगा जब सुना कि बिहार सरकार कह रही है कि वह मजदूरों को उनके घर नहीं बुला पाएगी.'
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)