घटना सोलहवीं सदी की है। बिहार के सिंहभूम की भुइयां जाति के लोग तरह-तरह के घोड़े पालते थे। राजा भी घोड़ों के न सिर्फ शौकीन होते थे बल्कि उनका कारोबार भी करते थे।
एक बार एक घोड़ों का व्यापारी राजा को एक स्वस्थ-सुंदर घोड़ा बेच गया। घोड़ा देखने में जितना स्वस्थ व सुंदर था, उतना ही बिगड़ैल भी था। राजा ने उसे काबू करने का बड़ा प्रयत्न किया पर वह असफल रहा। फिर उसने घोड़े प्रशिक्षित करने वाले लोगों को सौंप दिया। उन्होंने भी काफी कोशिशें की परंतु वे उस बिगड़ैल घोड़े को साधने में असफल रहे।
अब राजा को गुस्सा आ गया। सारे प्रयत्नों के बाद राजा को उस घोड़े से चिढ़ हो गई। उसने घोड़े को 'सबक सिखाने' की एक घोषणा कर दी - 'जो इस घोड़े को साध लेगा, उसे भारी-भरकम इनाम दिया जाएगा। राजाज्ञा से इस घोषणा का राजधानी में ढिंढोरा पीटा जाने लगा।
उस समय राजपथ से दूसरे राज्य का एक यात्री काशी गुजर रहा था। काशी एक कुशल घुड़सवार था। उसने भांति-भांति के दर्जनों घोड़ों को अपने अनुकूल ढाला था। उसने मुनादी ध्यान से सुनी और दरबार में पहुंच कर कहा, - मैं काशी हूं। अनुभवी घुड़सवार हूं। मुझे वह घोड़ा सौंप दिया जाए। मैं उसे साधने का प्रयत्न करूंगा। मेरे लिए अलग निवास की व्यवस्था की जाए और साथ ही भोजन इत्यादि की भी।
काशी ने शुरू से उस पर सवारी गांठने की कोशिश नहीं की। वह उसकी रस्सी पकड़ कर कई दिन नगर के बाहर चरागाहों में पैदल घुमाता रहा। उसे सहलाता। बालों को साफ करता और उससे बातें करता हुआ उसे प्यार करता। एक सप्ताह में ही घोड़ा उसे सवारी कराने लगा। अगले एक सप्ताह में घोड़ा पूरा सध गया।
एक दिन काशी घोड़े पर सवार होकर दरबार में आया और घुड़सवारी के कई करतब दिखाए। सारे दरबारी वाह-वाह कर उठे। इनाम देने की बारी आई तो क्या दें, इस पर विचार किया जाने लगा। किसी ने कहा, राज्य में अनेक उपद्रव व अव्यवस्थाएं हैं। उन्हें यही बुद्धिमान और साहसी युवक ठीक कर सकता है।Ó दरबारी समर्थन में आ गये।
राजा ने जन प्रतिनिधियों की सहमति पर न चाहते हुए भी उसे राज्य सिंहासन सौंप दिया। काशी ने बड़ी कुशलता से राज्य का संचालन कर जनसमस्याओं का निराकरण किया।
- अयोध्या प्रसाद 'भारती'