उत्तराखंड में नीति-माणा वैसे ही हैं जैसे बॉलीवुड में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल या फिर शोले के जय-वीरू. एक-दूसरे से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी पर बसे नीति और माणा दो अलग-अलग गांव हैं लेकिन इनका नाम अक्सर एक साथ ही लिया जाता है. माणा बद्रीनाथ से ऊपर बसा एक गांव है जबकि नीति उस पूरी घाटी को भी कहा जाता है जिसका विस्तार धौली गंगा नदी के इर्द-गिर्द फैलता हुआ तिब्बत की सीमाओं तक को छूता है. द्रोणागिरी इसी नीति घाटी में ही बसा एक बेहद खूबसूरत गांव है. यह गांव साल में सिर्फ छह महीने ही आबाद होता है. लेकिन जब आबाद होता है तब यह कमाल होता है.
चमोली जिले में जोशीमठ से मलारी की तरफ लगभग 50 किलोमीटर आगे बढ़ने पर जुम्मा नाम की एक जगह पड़ती है. यहीं से द्रोणागिरी गांव के लिए पैदल मार्ग शुरू हो जाता है. यहां धौली गंगा नदी पर बने पुल के दूसरी तरफ सीधे खड़े पहाड़ों की जो श्रृंखला दिखाई पड़ती है, उसे पार करने के बाद ही द्रोणागिरी तक पहुंचा जाता है. संकरी पहाड़ी पगडंडियों वाला तकरीबन दस किलोमीटर का यह पैदल रास्ता काफी कठिन लेकिन बेहद रोमांचक है. द्रोणागिरी गांव से ऊपर बागिनी, ऋषि पर्वत और नंदी कुंड जैसे कुछ चर्चित स्थल भी हैं जहां गर्मियों में काफी ट्रेकर्स पहुंचते हैं. जाहिर सी बात है कि सर्दियों में ये स्थान लोगों की पहुंच से बिलकुल दूर हो जाते हैं
नीति घाटी में मुख्यतः भोटिया जनजाति के लोग रहते हैं. द्रोणागिरी भी भोटिया जनजाति के लोगों का ही एक गांव है. लगभग 12 हजार फीट की ऊंचाई पर बसे इस गांव में करीब सौ परिवार रहते हैं. सर्दियों में द्रोणागिरी इस कदर बर्फ में डूब जाता है कि यहां रह पाना मुमकिन नहीं रह जाता. लिहाजा अक्टूबर के दूसरे-तीसरे हफ्ते तक सभी गांव वाले चमोली शहर के आस-पास बसे अपने अन्य गांवों में लौट जाते हैं. मई में जब बर्फ पिघल जाती है, तब एक बार फिर से द्रौणागिरी आबाद होता है. तब गांव के लोग यहां वापस लौट आते हैं.
छह महीनों तक वीरान रहे गांव में जब लोग वापस आते हैं तो सबसे पहले यहां एक अनुष्ठान का आयोजन किया जाता है. स्थानीय भाषा में इसे रगोसा कहा जाता है. गांव के लोगों का मानना है कि जब लंबे समय तक घर खाली रहते हैं तो उनमें नकारात्मक शक्तियां निवास करने लगती हैं. इसीलिए रगोसा के जरिये पूरे गांव का शुद्धिकरण किया जाता है. रगोसा में सार्वजानिक अनुष्ठान के बाद गांव के चारों तरफ कुछ अभिमंत्रित कीलें ठोक दी जाती हैं. गांव के लोग मानते हैं कि ऐसा करने से नकारात्मक शक्तियां गांव में दाखिल नहीं होतीं.
द्रोणागिरी लौटते ही गांव के लोग अपनी खेती-किसानी का काम भी शुरू कर देते हैं. इतनी ऊंचाई पर ज्यादा फसलें तो होती नहीं हैं लेकिन आलू राजा यहां खूब होते हैं. इसके अलावा जौ, मटर और फाफर (कुट्टू) की खेती भी यहां की जाती है. कुछ जड़ी-बूटियों और मसालों के लिए तो द्रोणागिरी विशेष तौर से जाना जाता है. फरन, जम्मू, काला जीरा, चोरू, कुटकी, अतीस, कूट जैसी कई बूटियां और मसाले भी यहां पैदा होते हैं. इनमें से कई तो खेती करके उगाए जाते हैं लेकिन कई प्रकृति की देन भी होते हैं.
सर्दियों में जब द्रोणागिरी के लोग अपना गांव छोड़कर जाते हैं तो अपनी काफी फसल भी यहीं छोड़ जाते हैं. इन फसलों को सहेज कर रखने के इनके तरीके भी अदभुत हैं. मसलन आलू की जब अच्छी पैदावार होती है तो गांव के लोग जाते वक्त इसे कई बोरियों में भरकर घर के पास ही एक गड्ढे में दफना देते हैं. यह गड्ढा भी इस तरह से बनाया जाता है कि चूहे तक इसमें नहीं घुस पाते हैं और आलू पूरे साल बिलकुल सुरक्षित रहते हैं.
इसे गांव वालों का देसी 'कोल्ड स्टोरेज' भी कहा जा सकता है. बर्फ की चादर के नीचे दबे ये आलू (या कोई दूसरी) फसल न तो खराब होते हैं और न ही इनमें अंकुर फूटते हैं. लिहाजा गर्मियों में जब गांव के लोग वापस लौटते हैं तो उनके पास खाने लायक कई बोरी आलू पहले से ही मौजूद होते हैं. इन्हीं आलुओं में से कुछ खेती के लिए भी निकाल लिए जाते हैं लिहाजा अगली फसल के लिए बीज भी यहां तैयार रहते हैं.
द्रोणागिरी गांव के लोग बताते हैं कि पहले उनका मुख्य काम तिब्बत से व्यापार करना था. भोटिया जनजाति के इन सभी लोगों के पास पहले सैकड़ों बकरियां, खच्चर और घोड़े हुआ करते थे. इन्हीं जानवरों की मदद से ये लोग नीति दर्रा पार करते हुए तिब्बत में दाखिल हो जाया करते थे. लेकिन बीते कई सालों से इस व्यापार को बंद कर दिया गया है. लिहाजा अब द्रोणागिरी के लोग लगभग पूरी तरह से प्रकृति पर ही निर्भर हो गए हैं. कुछ बेहद चुनिंदा लोग ऐसे भी हैं जो ट्रैक पर आने वाले यात्रियों का सामान ढोने का काम करते हैं. इसके अलावा द्रोणागिरी में एक खजाना भी छिपा हुआ है जिसकी खोज गांव वाले हर साल किया करते हैं और इसका कुछ हिस्सा उन्हें इस दौरान हासिल भी हो जाता हैं. इस खजाने का बड़ा अजीब सा नाम है - कीड़ा जड़ी.
कीड़ा जड़ी एक ऐसी जड़ी-बूटी है जिसके लिए माना डाता है कि यह यौन शक्ति बढाने का काम करती है. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में यह बहुत ऊंचे दामों पर बिकती है. द्रोणागिरी के लोगों को इस बारे में सिर्फ 15-16 साल पहले ही मालूम हुआ है. इससे पहले न तो यहां के लोग कीड़ा जड़ी के बारे में जानते थे और न ही इसकी उपयोगिता को समझते थे. लेकिन अब हर साल गांव के कई लोग सिर्फ इसकी खोज ही किया करते हैं और इससे अच्छा-खासा पैसा कमा लेते हैं. कीड़ा जड़ी का कारोबार मुख्यतः अवैध तस्करी के जरिये होता है. सरकार इसे वैध रूप देने के प्रयास जरूर करती रही है लेकिन इसमें सफल नहीं हो सकी है. दरअसल जिस कीड़ा जड़ी को सरकार गांव वालों से केवल 60-70 हजार रूपये प्रति किलो की दर पर ही खरीदना चाहती थी, उसी के लिए व्यापारी (तस्कर) गांव वालों को 10 से 12 लाख रूपये प्रति किलो तक देने को तैयार रहते हैं. लेकिन फिर भी इसके लिए मारा-मारी मची ही रहती है.
द्रोणागिरी के लोग आज भी हर साल अपने गांव लौटते हैं तो इसका एक कारण कीड़ा जड़ी को भी माना जा सकता है. कीड़ा जड़ी सिर्फ गर्मियों के इसी मौसम में पाई जाती है जब पहाड़ों से बर्फ पिघलना शुरू होती है. इसी दौरान गांव के लोग अपने जंगलों में निकल पड़ते हैं और दिन भर इस जड़ी की खोज करते हैं. लेकिन कीड़ा जड़ी की खोज शुरू तभी होती है जब गांव के सभी परिवार द्रोणागिरी पहुंच जाते हैं. ऐसा नहीं होता कि कुछ लोग बाकियों से पहले ही द्रोणागिरी पहुंच कर कीड़ा जड़ी लेने निकल पड़ें. यह नियम गांव वालों ने आपसी सहमति से बना लिया है. जब पूरा गांव द्रोणागिरी पहुंच जाता है, तब एक दिन तय किया जाता है जिसके बाद सभी एक साथ कीड़ा जड़ी की खोज करते हैं.
द्रोणागिरी में कीड़ा जड़ी के अलावा भी कई ऐसी चीज़ें मिलती हैं जिसकी जानकारी हमें हैरान कर सकती है. मसलन बुरांस के कई तरह के पेड़ और फूल. बुरांस उत्तराखंड का 'राज्य वृक्ष' है. इसके लाल रंग के फूलों से जूस भी बनाया जाता है जो पूरे उत्तराखंड में आसानी से मिल जाता है. लेकिन उत्तराखंड में रहने वाले कई लोग भी ये नहीं जानते कि बुरांस के फूल सफ़ेद और बैंगनी रंग के भी होते हैं. इसीलिए द्रोणागिरी गांव की चढ़ाई चढ़ते हुए ये फूल बाहर से आने वाले कई लोगों को हैरान कर देते हैं.
ठीक ऐसी ही हैरानी यहां लोगों को तब भी होती है जब उन्हें याक का झुंड दिखाई देता है. याक उत्तराखंड में कहीं नहीं होते. यहां एक-दो संस्थाएं याक की ब्रीडिंग करने के प्रयास जरूर कर रही हैं लेकिन इसके अलावा पूरे प्रदेश में याक ढूंढने से भी नहीं मिल सकते. द्रोणागिरी में याकों के इस झुंड की कहानी भी बेहद दिलचस्प है. गांव वाले बताते हैं कि 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय सैनिक कई सारे याक और बकरियां चीन से ले आए थे. वे बकरियां तो अब नहीं रही लेकिन याकों के कुछ वंशज आज भी द्रोणागिरी गांव के ऊपर की पहाड़ियों में आसानी से दिख जाते हैं. उत्तराखंड के पशुपालन विभाग को इनकी देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई है.
द्रोणागिरी अपने एक पौराणिक किस्से के चलते भी काफी चर्चित है. इस गांव में हनुमान की पूजा कभी नहीं होती. गांव के लोग हनुमान से नाराज़ हैं और उनके पास इसका कारण भी है. द्रोणागिरी गांव के लोग 'पर्वत देवता' को अपना आराध्य मानते हैं और यहां सबसे बड़ी पूजा द्रोणागिरी पर्वत की ही होती है. यह वही द्रोणागिरी पर्वत है जिसका जिक्र रामायण में संजीवनी बूटी के संदर्भ में मिलता है. मान्यता है कि त्रेता युग में जब लक्ष्मण मूर्छित हुए थे तो हनुमान संजीवनी बूटी लेने द्रोणागिरी ही आए थे और इस पर्वत का एक हिस्सा ही उखाड़ कर ले गए थे. गांव के लोग मानते हैं कि हनुमान उस समय उनके द्रोणागिरी पर्वत देवता की दाहिनी भुजा उखाड़ कर ले गए थे.
जून के महीने में द्रोणागिरी में पर्वत देवता की पूजा का एक बड़ा आयोजन होता है. इस दौरान गांव के वे लोग कुछ दिनों के लिए द्रोणागिरी आते हैं जो नौकरी या अन्य कारणों से यहां से पलायन कर चुके हैं. पर्वत देवता के साथ ही गांव वाले 'भुम्याल देवता' को भी पूजते हैं जिनका एक बेहद खूबसूरत मंदिर इस गांव में बना है. द्रोणागिरी गांव की असल खूबसूरती बरसात और उसके बाद ही निखरती है. तब गांव के पास ही दुर्लभ ब्रह्मकमल (उत्तराखंड का राज्य पुष्प) आसानी से खिले हुए देखे जा सकते हैं. गांव के पास के बुग्याल भी उस दौरान अपनी खूबसूरती के चरम पर होते हैं और यहां रहने के लिए मौसम भी तभी सबसे मुफीद होता है.
यह भी दिलचस्प है कि गांव के लगभग हर घर में गाय पाली जाती है लेकिन सावन से पहले गांव में दूध-दही का सेवन बिलकुल नहीं किया जाता. सावन में गांव वाले हरियाली देवी की पूजा करते हैं और उन्हें दूध-दही का भोग लगाते हैं. इसके बाद ही लोग खुद दूध-दही खाना शुरू करते हैं. उनकी मान्यता है कि हरियाली देवी ही उनके पशुधन की रक्षा करती है लिहाजा देवी को भोग लगाने से पहले उनके लिए दूध-दही का सेवन वर्जित है. सावन से पहले यहां जो चाय भी बनती है उसमें दूश नहीं डाला जाता. यह चाय घी और नमक से बनाई जाती है जिसे यहां के लोग 'ज्या' कहते हैं. इसमें कुछ पेड़ों की छाल भी डाली जाती है जिससे इसका रंग लगभग चाय जैसा ही हो जाता है.
फ़ोन और इंटरनेट की दुनिया से कहीं दूर, प्रकृति की गोद में बसा द्रोणागिरी इस क्षेत्र का सबसे ज्यादा ऊंचाई पर स्थिति गांव है. अच्छा यह है कि इस गांव में बिजली पहुंच गई है. यह इलाका 'नंदा देवी बायोस्फियर रिज़र्व' के अंतर्गत आता है लिहाजा यहां बिजली के खंभे लगाने की अनुमति नहीं है. इसके बावजूद ऊर्जा विभाग ने किसी तरह गांव तक बिजली पहुंचाने की व्यवस्था कर दी है.
द्रोणागिरी के लोग एक तरफ बिजली मिलने के चलते सरकार से खुश हैं तो दूसरी तरफ फोन का किराया बढ़ जाने के चलते नाराज़ भी हैं. इस गांव में कोई भी मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करता. न ही यहां लैंडलाइन फ़ोन की ही व्यवस्था है. यहां सिर्फ सैटेलाइट फ़ोन चलता है जिसकी दर मौजूदा सरकार ने काफी बढ़ा दी है. पूरे गांव में सिर्फ एक ही फ़ोन है जिसके माध्यम से द्रोणागिरी गांव का संपर्क अन्य दुनिया से बना रहता है. लेकिन इस फ़ोन पर बात करने के लिए गांव वालों को लगभग दस रूपये प्रति मिनट की दर से भुगतान करना पड़ता है. पहले यह दर काफी कम थी और उस पर भी सरकार इन लोगों को सब्सिडी देती थी. लेकिन बीते लगभग एक साल से सॅटॅलाइट फ़ोन की दरें काफी बढ़ चुकी हैं.
द्रोणागिरी को बाकी दुनिया के थोड़ा और करीब लाने के लिए सड़क निर्माण का काम भी चल रहा है. जुम्मा से द्रोणागिरी की तरफ दो किलोमीटर सड़क का निर्माण लगभग पूरा भी हो चुका है. इस पर जल्द ही गाड़ियां चलने लगेंगी और तब द्रोणागिरी गांव की मोटर रोड से दूरी दस से घटकर आठ किलोमीटर रह जाएगी. साहसिक पर्यटन की संभावनाएं तलाशने का काम भी द्रोणागिरी में किया जा रहा है. ट्रैकिंग के लिए तो लोग यहां आते ही हैं लेकिन 'स्नो-स्कीइंग' जैसे खेलों की संभावनाएं भी यहां बन सकती हैं जिस पर कुछ संस्थाएं काम भी कर रही हैं. लेकिन मोटर रोड से बेहद दूर होने और बायोस्फियर रिज़र्व के अंतर्गत आने की वजह से ऐसा करना आसान नहीं है.