हालांकि चीन ने तिब्बत पर अपने नियंत्रण की शुरुआत तो तभी से कर दी थी जब सितंबर 1949 में साम्यवादी चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने इस दौरान पूर्वी तिब्बत के राज्यपाल के मुख्यालय चामदो पर अधिकार कर लिया। तिब्बत को बाहरी दुनिया से पुरी तरह काट दिया गया लेकिन तिब्बतियों ने 11 नवंबर 1950 चीन के इस आक्रमण के विरोध में संयुक्त राष्ट्र में अर्जी लगाई। लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा की संचालन समिति ने इस मुद्दे को टाल दिया।
इसके बाद तिब्बत में तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया। ज्यादा से ज्यादा चीनियों को बसाकर वहां की डेमोग्राफी को चेंज कर दिया गया।
इस तरह किया चीन ने कब्जा : तिब्बत सदियों से एक स्वतंत्र देश था लेकिन मंगोल राजा कुबलई खान ने युवान राजवंश की स्थापना की और उसने तब तिब्बत, चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का परचम लहराया था। फिर सत्रहवहीं शताब्ती में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ रिश्ते बने और फिर लगभग 260 वर्ष के बाद चीन की चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया लेकिन 3 वर्ष के भीतर विदेशी शासन को उखाड़ फेंका और 1912 में तेरवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की। तब से लेकर 1951 तक तिब्बत एक स्वंत्र देश के रूप में जाना जाता था।
अरुणाचल प्रदेश : चीन अरुणाचल प्रदेश के तवांग को तिब्बत का हिस्सा मानता है। हालांकि चीन तो समूचे अरुणाचल प्रदेश पर ही दावाकर कहता है कि यह दक्षिणी तिब्बत है। अरुणाचल प्रदेश की चीन के साथ 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है। चीन ने तिब्बत को साल 1951 में अपने नियंत्रण में ले लिया था, जब कि साल 1938 में खींची गई मैकमोहन लाइन के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है।
तिब्बती लोगों के जबरदस्त प्रतिरोध की परवाह न करते हुए चीन ने तिब्बत को अपना एक उपनिवेश बनाने की योजना को लागू करने के लिए तिब्बत से हुए किसी भी समझौते को नहीं माना और 9 सितम्बर, 1951 को हजारों चीनी सैनिकों ने ल्हासा में मार्च किया। तिब्बत पर जबरन अधिग्रहण के बाद योजनाबद्ध रूप से यहां के बौद्ध मठों का विनाश किया गया, धर्म का दमन किया गया, लोगों की राजनीतिक स्वतंत्रता छीन ली गयी, बड़े पैमाने पर लोगों को गिरफ्तार और कैद किया गया तथा निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ले-आम किया गया।
चीनियों ने इसका ऐसा निर्दयतापूर्ण प्रतिकार किया जैसा कि तिब्बत के लोगों ने कभी नहीं देखा था। हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सरेआम चौराहों पर मौत के घाट उतार दिया गया और बहुत से तिब्बतियों को कैद कर दिया गया या निर्वासित कर दिया गया। अंतत: 17 मार्च 1959 को दलाई लामा ने ल्हासा छोड़कर भारत से राजनीतिक शरण मांगी और वे अपने हजारों अनुयायियों के साथ भारत में आकर बस गए।