शरीर पर जख्म हों तो जाहिर है काफी तकलीफ होती है. जख्म भर जाने के बाद उसका दाग़ रह जाता है जो उस हादसे की स्मृतिभर होता है. यह जख्म या दुर्घटना को याद तो दिलाता है लेकिन पर हादसे की तकलीफ नहीं देता. क्या हो गर जख्म दिल पर लगे हों? अव्वल तो ये आसानी भरते नहीं, भर भी जाएं तो इनके दाग़ जेहन से कभी मिटते नहीं और ये दाग़ ताउम्र हादसे की याद दिलाते हैं, वह भी पूरे दर्द के साथ. मशहूर शायर दाग़ देहलवी की जिंदगी कुछ ऐसे ही दागों से बनी थी, भरी थी.
दाग़ देहलवी का असल नाम नवाब मिर्जा खां था. 'दाग़' नाम उन्होंने अपने भीतर के शायर के लिए चुना. देहलवी यानी दिल्ली का या दिल्लीवाला, इसे उन्होंने अपना तखल्लुस बनाया. वह दिल्ली जो लगातार उनसे एक खेल खेलती रही. जो कभी तो मां की तरह उन्हें सीने में छिपाती रही तो कभी किसी बेवफा प्रेमिका की तरह उन्हें अपने दिल से बेदखल करती रही.
दाग़ के दिल में बस दाग़ ही दाग़ थे. बहुत छोटी-सी उम्र में पिता को खो देने का दाग़. फिर मां का बहादुरशाह जफ़र के बेटे मिर्जा फखरू से दूसरे निकाह का गम. फिर उस दिल्ली को छोड़ने के लिए मजबूर होना जो उनके लिए किसी महबूबा से कम नहीं थी. इसी दिल्ली को 1857 में ग़दर के वक़्त लाशों से पटा हुआ देखने का दुख भी उनके दिल में जज्ब था.
मां की मौत के बाद दाग़ मौसी के पास रामपुर आ गए थे. इस स्थान परिवर्तन का गम भी उन्हें जिंदगीभर रहा. यहीं पचास साल की उम्र में उन्हें नर्तकी मुन्नीबाई से प्यार हो गया. ये प्यार भी कोई ऐसा-वैसा प्यार नहीं था. मुन्नीबाई लखनऊ के नवाब हैदर अली को बेहद अजीज थीं. इस प्यार में दाग़ को नवाब की ताकत और रुतबे का कोई ख्याल न रहा और उन्होंने हैदर अली को पैगाम भिजवा दिया - दाग़ हिजाब के तीरे नजर का घायल है / आपके दिल को बहलाने को और भी सामां होंगे / दाग़ बिचारा हिजाब को न पाए तो और कहां जाए.'
नवाब हैदर अली भी कोई छोटे दिल के मालिक नहीं थे. उन्हें शायरी और शायरों की तहेदिल से कद्र करना आता था. 'दाग़ साहब आपकी शायरी से ज्यादा हमें मुन्नीबाई अजीज नहीं' इस पैगाम के साथ उन्होंने मुन्नीबाई को दाग़ के पास भेज दिया पर मुन्नीबाई दाग़ और हैदर अली की तरह प्यार को जीवन में सबकुछ समझनेवाली नही थीं. उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं. वे उन्हें अपनी जिंदगी में पूरा भी देखना चाहती थीं सो एक दिन दाग़ को तंगहाली में छोड़कर चलती बनीं और अपने एक जवान साजिंदे से शादी रचा ली.
वक्त का पहिया सही दिशा में घूमा और दाग़ की जिंदगी में फिर से प्रसिद्धि और रुतबे वाले दिन आ गए. मुन्नीबाई उस साजिन्दे को छोड़कर फिर उनके पास वापस आ गईं. पोपले मुंह और बिना दांतोंवाली 73 वर्षीय मुन्नीबाई के लिए दाग़ के दिल में अब भी जगह थी. उन्होंने मुन्नीबाई को फिर स्वीकार कर लिया. पता नहीं यह दाग़ का बड़प्पन था या फिर टूटकर किसी को प्यार करने खूबी लेकिन जो भी हो इन सब दाग़ों ने मिलकर उनके शायरी को वह मुकाम दिया जिसे देखकर यह कहने का मन हो आता है - दाग़ के दिल के दाग़ अच्छे थे.
किसी भी तरह के प्रेम में दखल और बेदखली का यह खेल दाग़ की जिन्दगी का एक आम किस्सा रहा. वह चाहे जिन्दगी से प्रेम हो या फिर सचमुच का प्रेम या उनका दिल्ली प्रेम, सब उनसे इसी मतलबी अंदाज में मिलते और जुदा होते रहे. पर उन्होंने जिसे भी प्यार किया हमेशा के लिए किया.
उनकी मां ने जब बहादुरशाह जफ़र के बेटे मिर्जा फखरू से निकाह किया था तो इस घटना से उन्हें एक ग़म जरूर बैठा लेकिन इसके बाद के साल ही उनकी जिंदगी के सबसे सुनहरे साल थे. तकरीबन 12 साल के वक़्त का यह टुकड़ा दाग़ के दाग़ बनने की कहानी है. इस दौरान उन्हें राजकुमारों जैसा पाला गया, शानदार तहजीब और तालीम दी गई. ग़ालिब, मोमिन, जौक, शेफ्ता जैसे उस्ताद उन्हें उर्दू और ग़जल सिखाते थे. 12 वर्ष की नन्हीं-सी उम्र में उन्होंने अपनी शायरी के हुनर से इन बड़े-बड़े उस्तादों को चौंका दिया था. इतना ज्यादा कि उनके लिए मिर्जा ग़ालिब को भी यह कहना पडा - 'दाग़ ने न सिर्फ भाषा को पढ़ा, बल्कि उसे तालीम भी दी.'
वह दाग़ ही थे जिन्होंने इन अजीम शायरों की छाप अपनी गजलों और शायरी पर नहीं पड़ने दी. जबकि इतने बड़े उस्तादों की नक़ल भी उन्हें उस वक्त ठीक-ठाक मुकाम तो दिला ही देती. दाग़ ने अपनी शायरी की राह खुद तलाशी. उन्होंने शेफ्ता की शायरी के नाटकीय अंदाज से परहेज किया. ग़ालिब की दार्शनिकता को खुद के शायर पर हावी नहीं होने दिया. मोमिन के उलझाव में खुद को बिना उलझाए हुए ही निकल आए. जौक की नैतिकता से भी उन्होंने खुद को खूब दूर रखा था. यह बाद उनके इन अल्फाज में दिखती है - 'लुत्फ़-ए-मयकशी तुम क्या जानो, हाय कमबख्त तुमने पी ही नहीं.' या फिर - 'साकिया तिश्नगी की ताब नहीं, जहर दे दे अगर शराब नहीं.'
वैसे दाग़ किसी की नक़ल करते भी तो क्यों. उन्होंने शुरू से ही ऐसा लिखा कि लोग उनकी ही नक़ल करते रहे. इसके उदाहरण बहुत से शायरों के कलाम और फ़िल्मी गीतों में मिल जाएंगे. बिना किसी शायर का नाम लिए हम यहां ऐसे दो उदाहरण देख सकते हैं -
दाग़ - 'सबलोग जिधर वो है उधर देख रहे हैं / हम तो बस देखनेवालों की नजर देख रहे हैं.'
1973 में आई फिल्म सबक का गीत - 'हम जिधर देख रहे हैं, सब उधर देख रहे हैं / हम तो बस देखने वालों की नजर देख रहे हैं.'
दाग़ - लीजिये सुनिए अब अफ़साना ये फुरक़त मुझ से / आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया.'
1962 में आई फिल्म आरती का गीत - आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया / कि मेरे दिल पे पड़ा था कभी गम का साया.'
दाग़ साहब ने गजलों को फ़ारसी के कठिन और मुश्किल शब्दों की पकड़ से छुड़ाते हुए उस समय की आम बोलचाल की भाषा उर्दू के आसान शब्दों में पिरोया था. यह कितना कठिन काम था यह दाग़ जानते थे. इस बात का गुमान भी उन्हें कहीं-न-कहीं था और उन्होंने कहा भी - 'नहीं खेल-ए-दाग़ यारों से कह दो / कि आती है उर्दू जुबान आते-आते.' और 'उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं दाग़ / हिन्दोस्तां में धूम हमारी जबां से है.' उनके शेर सीधी-सादी भाषा में साफ सुथरे तरीके से कहे गए शेर थे. जैसे बेहद चर्चित एक शेर का यह अंदाज देखें- 'तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किसका था?' और इसके साथ दाग़ बेहद विनम्र, स्पष्टवादी और विनोदी स्वभाव के भी थे. यह उनके सिवाय और कौन कह सकता था - 'जिसमें लाखों बरस की हूरें हो, ऐसी जन्नत का क्या करे कोई?'
प्रेम के हर अंदाज को अपने शब्द देनेवाला यह शायर उसे हर रंग में अपनी शायरी में पिरोता रहा. मिलना - खो जाना जिसके लिए उस तरह का अर्थ रखते ही नहीं थे. वह तो उसी का हो गया था और ताउम्र बना रहा जो दरअसल उसका था ही नहीं. प्रेम में नाकमयाब होना शायद इस अजीम शायर की किस्मत थी. फिर भी उसने उसका गिला कभी नहीं किया. किसी और से कभी रिश्ता न किया, न निभाया. और कभी जो गिला किया भी तो बड़े मासूम और दिलफरेब से भोले अंदाज में -
'आप पछताए नहीं जोर से तौबा न करेंआपके सर की कसम दाग़ का हाल अच्छा है'