हर साल बढ़ते हैं टीबी के मरीज

सारी दुनिया में एक इकलौते इंफेक्शन से होने वाली मौतों के कारणों में एड्स या एचआईवी के बाद ट्यूबरकुलोसिस(टीबी) का दूसरे नंबर पर स्थान है। आप चौंकिए नहीं, अपने भारतवर्ष में ही हर साल 15 लाख नए टीबी के मरीज बनते हैं और इन 15 लाख में तकरीबन एक लाख मरीज हर साल मल्टी ड्रग रेजिस्टेंस ट्यूबरकुलोसिस(एमडीआर टीबी) में परिवर्तित हो जाते हैं और इन एक लाख एमडीआर टीबी के मरीजों में केवल 7 प्रतिशत ही अपना इलाज करवा पाते हैं। हर साल टीबी से मरने वालों की संख्या अपने देश में करीब 14 लाख है। इन मौतों में करीब दो तिहाई मौतों का जिम्मेदार एमडीआर ट्यूबरकुलोसिस है।

एमडीआर ट्यूबरकुलोसिस का साधारण अर्थ है फेफड़े की टीबी की वह अवस्था जब टीबी के इलाज के लिए दी जाने वाली दवाएं बेअसर होने लगें और फेफड़े पूर्णरूप से नष्ट होने की कगार पर पहुंच जाएं। लगभग नष्ट हुए इन फेफड़ों में मवाद व कीटाणुओं से ग्रसित ऊतकों का जमाव हो जाता है।
जब एमडीआर टीबी का मरीज खांसता है तो एक खांसी से तकरीबन 3 हजार टीबी के कीटाणु हवा में फैलते हैं। इसलिए कहा जाते हैं कि एमडीआर टीबी से ग्रस्त फेफड़े टीबी के कीटाणुओं का गढ़ बन जाता है। ऐसे मरीजों में पहली पंक्ति की टीबी की दवाएं तो पहले से ही बेअसर हो चुकी होती हैं और दूसरी पंक्ति की महंगी वाली टीबी की दवाओं का असर भी नहीं होता है। एक तरफ पैसे की बरबादी तो दूसरी तरफ मौत की दस्तक। अगर समय रहते किसी थोरैसिक सर्जन यानी चैस्ट सर्जन से इसका इलाज नहीं कराया गया, तो मौत देर सवेर निश्चित है।
टीबी का बैक्टीरिया हवा में तैरते हुए भी एक से दूसरे तक पहुंच जाता है। जैसे जुकाम अथवा लू का रोगाणु फैलता है बिलकुल वैसे ही टीबी का बैक्टीरिया भी फैलता है। टीबी से पीडि़त मरीज यदि छींकता, खांसता, बात करता है अथवा जोर से हंसता है या गाने भी गाता हो तो उसके मुंह से बैक्टीरिया महीन बूंद के रूप में झड़ते रहते हैं। यदि यही बैक्टीरिया दूसरे किसी स्वस्थ व्यक्ति के फेफड़ों में सांस लेने के साथ ही पहुंच जाए तो उसे भी टीबी के रोगाणु लग जाते हैं। यही वजह है कि संक्र मित मरीज के परिवार के सदस्यों में अथवा जहां वह काम करता है उस ऑफिस या कारखाने के दूसरे लोगों तक भी टीबी का संक्र मण पहुंच जाता है।
टीबी का बैक्टीरिया किसी सतह पर जिंदा नहीं रहता। यह हवा में जिंदा रह जाता है और वैज्ञानिकों के अनुसार 6० फीट तक तैरता हुआ एक से दूसरे स्थान तक पहुंच सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी एयरकंडीशंड ऑफिस में अथवा लंबी यात्र की बस में कोई टीबी का मरीज खांस रहा हो तो बस या ऑफिस के दूसरे कोने तक उसके रोगाणु हवा में तैरते हुए भी पहुंच सकते हैं। टीबी के मरीज से हाथ मिलाने अथवा उसके साथ भोजन करने से टीबी का रोगाणु नहीं लगता है।
पूरी दुनिया के एक चौथाई टीबी के मरीज हमारे देश में हैं। पूरी दुनिया में टीबी और मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट टीबी के सबसे अधिक रोगी पाए जाते हैं। लगभग 79 हजार टीबी के मरीज एमडीआर होते हैं जिन पर कई तरह की दवाएं बेअसर साबित होती हैं। दुनिया में दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर हमारे देश में सबसे अधिक एचआईवी से संबंधित टीबी के रोगी पाए जाते हैं।
एड्स या डायबिटीज के मरीजों में लगभग एकतिहाई मरीज टीबी इंफेक्शन की चपेट में आ जाते हैं। अगर सही इलाज व सावधानी न बरती गई तो यह स्थिति बहुत जल्दी मरीज को मौत के मुंह में ले जाती है। अपने देश की लगभग 6 करोड़ जनता डायबिटीज से पीडि़त है। आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए कि हालात कितने बदतर हैं और टीबी इंफेक्शन एक महामारी का रूप ले रहा है।
होता यह है कि एड्स और डायबिटीज के मरीजों में शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता ढीली पड़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप टीबी के इंफेक्शन का खतरा ऐसे मरीजों में हमेशा सिर पर मंडराने लगता है। ऐसे मरीजों में टीबी के इलाज के दौरान भी मृत्यु की संभावना रहती है और दोबारा से टीबी का इंफेक्शन होने का खतरा रहता है। इसलिए डायबिटीज के मरीज को चाहिए कि वे समय-समय पर टीबी की जांच करवाते रहें।
एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2016 में रोगियों 4.5 फीसदी मरीज टीबी के कारण मर गए थे। हर साल 10 लाख से भी ज्यादा मरीज इलाज कराते-कराते 'गायब' हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश तो निजी अस्पताल में इलाज कराने पहुंचते हैं अथवा इलाज कराना ही बंद कर देते हैं। अन डायग्नोस्ड और पुअरली डायग्नोस्ड मरीजों की संख्या अज्ञात है।
ज्यादातर टीबी के मरीजों को जब कुछ दिन इलाज से फायदा होने लगता है तो वे इलाज को आधा-अधूरा ही छोड़ देते हैं। यहीं से एमडीआर टीबी की शुरूआत हो जाती है। फिर जब मरीज कुछ समय के बाद दोबारा दवा शुरू करता है तो यही दवा टीबी के इलाज में बेअसर हो जाती है और फेफड़े के नष्ट होने की नींव पड़ जाती है।
एमडीआर टीबी के पनपने में स्वास्थ्यकर्मी भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। हमारे फिजिशियन भी मरीज को इस बात के लिए जोर नहीं दे पाते कि मरीज इलाज को गंभीरता से ले व कड़ाई से नियम का पालन करे। डॉक्टर उसको इलाज में बिलकुल कोताही न बरतने की बार-बार सलाह दें। साथ ही साथ एमडीआर टीबी की भयानकता से भी अवगत कराएं।
हमारे देश में कई कारणों से मरीज निजी अस्पतालों में इलाज कराना पसंद करता है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो सरकारी अस्पतालों के मुफ्त के इलाज से दूरी बनाते हैं ताकि उन्हें कोई परिचित पहचान न सके। दूसरा एक और मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है कि समाज में जिन लोगों की पहचान टीबी के मरीजों के रूप में होती है उनके बच्चों के रिश्ते होने में बहुत मुश्किलें आती हैं। यही वजह है कि लोग टीबी की बीमारी को छिपाते हैं। वे धनाढ्य लोग भी सरकारी अस्पताल नहीं जाते जो निजी अस्पताल की फीसें अदा करने में आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं।
आजकल विश्व में प्रतिवर्ष तकरीबन 25 हजार एक्सडीआर टीबी के नए मरीज देखने में आ रहे हैं। एमडीआर टीबी के कारण इलाज में कोताही बरतने, अनियमित टीबी की दवा का सेवन व आधे-अधूरे इलाज हैं पर एक्सडीआर टीबी का कारण टीबी का ऐसा कीटाणु है जिस पर शुरूआती दिनों से किसी भी तरह की टीबी की दवा का असर नहीं होता है। यह टीबी के इतिहास में सबसे खतरनाक स्थिति है।
भारत सरकार ने समय रहते ट्यूबरकुलोसिस को संक्र ामक रोग घोषित कर दिया है। यह टीबी की विभीषिका को रोकने की दिशा में लिया गया एक प्रभावी कदम है।
- नरेन्द्र देवांगन

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