आपको आचार्य ऋण और गुरु दक्षिणा के उत्तरदायित्व से मुक्त समझूंगा। जब तक मैं आपके पुत्र को वापस न ले आऊं तब तक मैं अपने घर नहीं जाऊंगा। मुझे आशीर्वाद दीजिये की मेरा ये प्रण पुरा हो जाए। फिर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों से आशीर्वाद लेकर वहां से चले जाते हैं। रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें.
श्रीकृष्ण और बलराम प्रभाष क्षेत्र में पहुंचकर समुद्र के किनारे खड़ हो जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण अपनी माया से एक धनुष को हाथ में प्राप्त करके उसकी प्रत्यंचा से टंकार करते हैं जिसके चलते समुद्र और आसमान में भूचाल जैसा आ जाता है। फिर समुद्र के भीतर से समुद्रदेव प्रकट होकर कहते हैं जगतपति के श्रीचरणों में प्रणाम। क्या आज्ञा है प्रभु?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं हे रत्नाकर हमारे गुरु महात्मा सांदीपनि का पुत्र पुर्नदत्त तुम्हारे इस प्रभाष क्षेत्र में पर्व स्नान के लिए आया था। यहां से तुम्हारी लहरें उसे बहाकर ले गईं। हमारी आज्ञा है कि पुर्नदत्त जहां भी है उसे तत्काल लाकर हमें वापस कर दो।
तब समुद्रदेव कहते हैं प्रभु पुर्नदत्त मेरे पास नहीं है। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं तो फिर कहां है? तब समुद्रदेव कहते हैं भगवन मेरी गहराइयों में पांचजन्य नाम का एक राक्षस रहता है। यह उसी महादैत्य का काम हो सकता है क्योंकि वह प्राय: तट पर स्नान करने वालों को खींच कर समुद्र में ले जाता है और उन्हें खा जाता है। पुर्नदत्त को भी वही खा गया होगा।
तब श्रीकृष्ण पूछते हैं कि वह महादैत्य इस समय कहां है? इस पर समुद्रदेव कहते हैं कि इस समय वह समुद्र तल पर पड़े हुए एक छोटे से शंख के अंदर छिपकर विश्राम कर रहा है। यह सुनकर बलराम कहते हैं छोटे से शंख के अंदर। इस पर समुद्रदेव कहते हैं जी, वह मयावी राक्षस अपने शरीर को छोटा करके उस शंख के अंदर चला जाता है। वही उसका निवास स्थान है। यह सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों समुद्र के अंदर चले जाते हैं और बहुत ही गहरे तल में वे उस शंख को खोज लेते हैं।
श्रीकृष्ण उस शंख के पास जाकर कहते हैं जागो दैत्यराज और देखो तुम्हारा काल तुमसे मिलने आया है। जब कोई हलचल नहीं होती है तो श्रीकृष्ण अपने धनुष से एक अग्निबाण चलाते हैं। जिसके ताप से विचलित होकर वह दैत्य अट्टाहास करता हुए शंख से बाहर निकलता है और विशालरूप धारण कर लेता है।
दोनों को देखकर वह कहता है आज तो कोमल भोजन खाने को मिलेगा। फिर बलराम को धनुष देकर श्रीकृष्ण भी विशाल रूप धारण कर लेते हैं और फिर दोनों का युद्ध होता है। मार खाने के बाद वह दैत्य भागने लगता है तो श्रीकृष्ण भी उसके पीछे तैरते हुए जाते हैं। वह दैत्य तेजी से तैरता हुआ एक समुद्री सुरंग में घुस जाता है। श्रीकृष्ण भी उसके पीछे रहते हैं। फिर एक जगह जाकर श्रीकृष्ण पीछे से उसकी दोनों टांगे पकड़कर मारते हैं। फिर दोनों में गदा युद्ध होता है। अंत में उसकी गदा गायब हो जाती है तो श्रीकृष्ण उसे अपनी गदा से खूब मारते हैं।
वह बुरी तरह घायल होकर नीचे गिर पड़ता है। तब श्रीकृष्ण अपनी गदा को तलवार में बदलकर उस दैत्य के सामने क्रोधित होकर खड़े हो जाते हैं। वह दैत्य भयभीत हो जाता है। श्रीकृष्ण उसके दो टूकड़े कर देते हैं। तभी वहां बलराम भी आ जाते हैं। यह देखकर बलराम कहते हैं इसके पेट में तो पुर्नदत्त की हड्डियां भी नहीं है। इसे व्यर्थ ही मारा। तब श्रीकृष्ण कहते हैं व्यर्थ ही नहीं। वास्तव में इसके उद्धार का समय आ गया था।
तब बलराम कहते हैं तो फिर अब क्या? श्रीकृष्ण कहते हैं कुछ नहीं। अब यमराज की राजधानी संयमणि में चलते हैं वहीं पुर्नदत्ता को ढूंढ सकते हैं। बलरामजी कहते हैं हां चलो। तभी श्रीकृष्ण की नजर उस शंख पर जाती है। उसे देखकर वे कहते हैं दाऊ भैया ये शंख कितना सुंदर है। देखें इसकी ध्वनि कैसी है। फिर श्रीकृष्ण उस शंख को उठाकर बजाते हैं तो सबसे पहले भगवान शंकर सुनते हैं। फिर अन्य देवता श्रीकृष्ण को देखकर उन्हें नमस्कार करते हैं। बलरामजी भी हाथ जोड़कर प्रभु को नमस्कार करते हैं।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं आज से यही हमारा शंख होगा। प्रत्येक युद्ध में इसी के साथ हम युद्धघोष करेंगे। इसका नाम पांचजन्य शंख होगा और जहां भी यह शंख बजेगा वहां धर्म की विजयी होगी। चलो अब यमराजजी के पास चलते हैं।