संवाद सूत्र, छातापुर(सुपौल): लंबे जद्दोजहद के बाद भी कुसहा के जख्म से प्रखंड के किसान उबर नहीं पाए हैं। कभी उपज के नाम पर सोना उगलने वाली उपजाउ भूमि आज रेत की मोटी परत के नीचे बेबस व लाचार है। जिन खेतों की उपज से कल तक क्षेत्र के किसान धन धान्य से परिपूर्ण थे। आज उन्हीं किसानों को कंगाली के दौर से गुजरना पड़ रहा है। वर्ष 2008 में आये कुसहा-त्रासदी से उबरने के बाद से किसान रेत में छिपे भविष्य को तलाशने में लगातार जुटे हैं। लेकिन कोसी के प्रकोप ने ऐसा सितम ढाया है कि परत दर परत हटाने के बाद भी रेत उपजाउ भूमि का दामन नहीं छोड़ रहा। किसान हलकान हैं। त्रासदी के बाद सरकारी स्तर से प्राप्त अनुदान की राशि खपाने के बाद भी उन्हें कोप से मुक्ति नहीं मिल रही है। हालात हैं कि उक्त परती पड़ी भूमि पर किसानी करना संभव नहीं हो पा रहा है और किसान कंगाली के दौर से गुजर रहे हैं। किसानों में नित्यानंद राय ,उमेश राय आदि ने बताया कि त्रासदी के दौरान कोसी मुख्य नहर ने काफी देर तक कोसी के बेपरवाह धारा को रोक कर रखा था। नतीजा हुआ कि तटबंध को तोड़ते हुए जो धारा निकली तो अपने साथ गाद की मोटी परत खेतों में बिछाती चली गयी। त्रासदी के बाद चयनित किसानों के बीच फसल व भूमि क्षति अनुदान का वितरण हुआ जो उंट के मुंह जीरा समान साबित हुआ। किसानों ने अपने बूते भी रेत हटाने का प्रयास किया लेकिन पूर्णतया सफल नहीं हो पाये। वर्तमान हाल है कि सड़क निर्माण कंपनियों को मिट्टी निकालने की इजाजत महज इसलिए दी गयी कि किसी तरह खेतों से रेत की चादर हटे और सैकड़ों एकड़ बंजर भूमि पर फिर से हरियाली लौटाते हुए स्वयं का जीवन पटरी पर लौटायी जा सके। लेकिन इतने वर्षो से रेत हटाने के जद्दोजहद के बाद भी खेतों में बिछी रेत की मोटी परत खपने का नाम ही नहीं ले रहा है और किसान बदहाली के कगार पर पहुंचते जा रहे हैं। लोगों ने बताया कि क्षेत्रीय हालात को देखते हुए पिछले वर्ष में विश्व बैंक के अधिकारियों ने जायजा भी लिया था। लेकिन फिर क्या कैसे हुआ इस बात से अनभिज्ञ हैं।
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Posted By: Jagran
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